- अक्टूबर २०१०, बाँदा (जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन)
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Saturday, April 30, 2016
Wednesday, April 27, 2016
सत्यता सहज मूल्याँकन व्यवस्था
"विकास के अर्थ में चरित्र, जीवन के अर्थ में मूल्य ध्रुवीकृत है. यही सत्यता सहज मूल्याँकन व्यवस्था है. आचरण ही मानवीय चरित्र को स्पष्ट करता है. आचरण ही चरित्र का अनुसरण स्थापन व समृद्धि का प्रकाशन है. आचरण में, से, के लिए प्रत्येक इकाई बाध्य है. प्रत्येक आचरण में स्व-संतुष्टि, तृप्ति व आनंद की अभिलाषा व कल्पना समायी रहती है." - श्री ए नागराज
Tuesday, April 26, 2016
Monday, April 25, 2016
जीवन
"जीवन ही जन्म द्वारा प्रकाशित होता है. जीवन मूल्य से रिक्त मुक्त इकाई नहीं है. जीवन अनन्त शक्ति संपन्न होने के कारण नित्य प्रसव पूर्वक संस्कारशील है. मनुष्य का सम्पूर्ण सौंदर्य मानवीयता ही है. यही उसका वैभव है. मानवीयता ही मनुष्य के लिए सतत साथी है." - श्री ए नागराज
भाव और संवेग
"रूप और गुण में से गुण ही गति अर्थात संवेग है, स्वभाव व धर्म भाव है. प्रत्येक इकाई में भाव स्थिति में व संवेग गति में है. मूलतः त्व भाव है और उसका प्रकाशन संवेग है. स्वभाव व धर्म ही मानव परंपरा में, से, के लिए प्रयोजनीय है तथा रूप और गुण उपयोगी है. भावों को जीने की कला में सार्थक बनाने योग्य प्रारम्भ और निरन्तर प्रायोजित होने वाली मानसिकता ही संवेग है." - श्री ए नागराज
Sunday, April 24, 2016
Sunday, April 17, 2016
Saturday, April 16, 2016
परिवार
"निश्चित संख्या में जागृत मानव जो परस्पर सम्बन्धों को पहचानते व मूल्यों का निर्वाह करते हैं, और परिवार गत उत्पादन कार्य में परस्पर पूरक होते हैं, ऐसे कम से कम दस व्यक्तियों के समूह की परिवार संज्ञा है." - श्री ए नागराज
Wednesday, April 13, 2016
समुदायवाद, व्यक्तिवाद की परेशानी
व्यक्तिवाद विशेषतया पराधीनता को स्वीकारे रहता है। जबकि हर नर-नारी समानता सहित पहचान प्रस्तुत करना चाहता है साथ में सुखी रहने की आवश्यकता बनी रहती है। सभी जीव संसार अपने-अपने प्रजाति रूपी समुदायों के रूप में जीता हुआ देखने को मिलता है। सभी मानव एक ही प्रजाति के होते हुए परस्परता में निश्चित पहचान सहित जीना स्पष्ट नहीं हो पाया इसका कारण व्यक्तिवाद व समुदायवाद ही है। समुदायवाद, व्यक्तिवाद की परेशानी ही विशेषतः दासता है। दासता मानव को स्वीकार नहीं है। विशेषता एक मान्यता है। मान्यतायें प्रमाण नहीं हो पाती। माने हुए को जानना आवश्यक है। जाने हुये को मानना, माने हुये को जानना ही मानव की आवश्यकता है। यही समाधान व प्रमाण सूत्र है। जानने-मानने की सम्पूर्ण वस्तु सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व ही है।
- मानवीय आचरण सूत्र, अध्याय - १ से।
Monday, April 11, 2016
अध्ययन का लक्षण
"मानवीय आचरण का अनुकरण-अनुसरण करना, उसे अपना स्वत्व बनाने की तीव्र जिज्ञासा पूर्वक निष्ठान्वित क्रियाकलाप ही अध्ययन का लक्षण है. अध्ययन की चरितार्थता आचरण में ही है. अर्थात आचरण पूर्वक ही अध्ययन सफल है. अन्यथा तो केवल चर्चा ही है." - श्री ए नागराज
Sunday, April 10, 2016
Thursday, April 7, 2016
धैर्य
"न्याय पूर्ण विचार में निष्ठा एवं उसकी निरंतरता ही धैर्य है. यह घटित होने के लिए सर्वप्रथम मानव का अपने स्वत्व स्वरूप अर्थात मानवीयता के प्रति जागृत होना अनिवार्य है. हर मानव धैर्य पूर्ण होना ही चाहता है, न्याय का याचक है ही, न्याय प्रदायी क्षमता से संपन्न होना ही चाहता है. किन्तु इसके लिए स्वयं में विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान रूपी निश्चयन आवश्यक है." - श्री ए नागराज
Wednesday, April 6, 2016
मनुष्य की मूल्यवत्ता
"मनुष्य में जो मूल्य दर्शन क्षमता है, वही मनुष्य को व्यवहार, उत्पादन, विचार एवं अनुभूति में, से, के लिए प्रेरित करती है. मूल्य दर्शन क्रिया ही मनुष्य की मूल्यवत्ता है." - श्री ए नागराज
Tuesday, April 5, 2016
नैसर्गिकता का नित्य वैभव
"भाव ही धर्म है. भाव मौलिकता है. धर्म का व्यवहार रूप ही न्याय है. धर्म स्वयं परस्पर पूरकता के अर्थ में स्पष्ट है. परस्परता सम्पूर्ण अस्तित्व में स्पष्ट है. परस्परता का निर्वाह ही न्याय का तात्पर्य है. परस्परता ही पूरकता की बाध्यता है और सम्पूर्ण बाध्यता विकास रूपी लक्ष्य के अर्थ में है. इस प्रकार जड़ चैतन्य प्रकृति में परस्परता बाध्यता और विकास नित्य प्रभावी है, यही नैसर्गिकता का नित्य वैभव है." - श्री ए नागराज
Monday, April 4, 2016
जागृति का अवसर
"जागृति क्रम में अखण्ड सामाजिकता और सार्वभौम व्यवस्था मानव परंपरा में होना इसलिए आवश्यक है ताकि मानव को जागृति का अवसर सहज सुलभ हो सके." - श्री ए नागराज
Sunday, April 3, 2016
मानव कुल का प्रयोजन
"किसी शिक्षा संस्कार व्यवस्था के बिना भी कल्पना के रूप में अभिभावकों में संतान के प्रति अभ्युदय की कामना स्वीकृत रहती है. इस तथ्य से स्पष्ट है कि अस्तित्व में अभ्युदय सूत्र और उसकी व्याख्या है ही, उसे मानव को नियति के रूप में स्वीकारना है. इस तथ्य को जानने के फलस्वरूप अस्तित्व में मानव जाति का अभ्युदय के लिए प्रायोजित होना, तत्पर होना ही मानव कुल का प्रयोजन है. ऐसा स्वीकृत होने पर ही मानव अध्ययन के लिए निष्ठा पूर्वक तत्पर होता है." - श्री ए नागराज
Saturday, April 2, 2016
सम्बन्ध का कार्य रूप
"मानव परस्परता में जागृति के अर्थ में अनुबंध ही सम्बन्ध का कार्य रूप है. अनुभव मूलक बोध विधि से परस्पर स्वीकृति सहित पूरकता सहज संकल्प तथा निर्वाह के प्रति निष्ठा ही अनुबंध है. अनुबंध दृढ़ता एवं निरंतरता को ध्वनित करता है जो पूर्णरूपेण जागृति पूर्वक ही संभव है. जागृत मानव के आचरण में ही प्रकटन में निष्ठा होती है." - श्री ए नागराज
मानव का स्वभाव गति में होने का अर्थ
"मानव का स्वभाव गति में होने का अर्थ है मानव का स्वनियंत्रित होना। मानव की स्वभाव गति मानवीयता पूर्ण आचरण ही है. मानव की परस्परता में न्यायपूर्वक व मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम पूर्वक आचरण ही नियंत्रण है. अतः मानव अपने स्वभाव गति में स्वयं व्यवस्था में रहते हुए परस्परता में उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता पूर्वक पूरकता, उदारता पूर्वक आचरण प्रमाणित करता है." - श्री ए नागराज
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