"रूप और गुण में से गुण ही गति अर्थात संवेग है, स्वभाव व धर्म भाव है. प्रत्येक इकाई में भाव स्थिति में व संवेग गति में है. मूलतः त्व भाव है और उसका प्रकाशन संवेग है. स्वभाव व धर्म ही मानव परंपरा में, से, के लिए प्रयोजनीय है तथा रूप और गुण उपयोगी है. भावों को जीने की कला में सार्थक बनाने योग्य प्रारम्भ और निरन्तर प्रायोजित होने वाली मानसिकता ही संवेग है." - श्री ए नागराज
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