"भाव ही धर्म है. भाव मौलिकता है. धर्म का व्यवहार रूप ही न्याय है. धर्म स्वयं परस्पर पूरकता के अर्थ में स्पष्ट है. परस्परता सम्पूर्ण अस्तित्व में स्पष्ट है. परस्परता का निर्वाह ही न्याय का तात्पर्य है. परस्परता ही पूरकता की बाध्यता है और सम्पूर्ण बाध्यता विकास रूपी लक्ष्य के अर्थ में है. इस प्रकार जड़ चैतन्य प्रकृति में परस्परता बाध्यता और विकास नित्य प्रभावी है, यही नैसर्गिकता का नित्य वैभव है." - श्री ए नागराज
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