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Friday, October 30, 2009

विज्ञान और मानव-भाषा सूत्र

विज्ञान का प्रयोजन मानव-चेतना विधि से मानव-लक्ष्य और जीवन-मूल्य प्रमाणित करने के लिए दिशा निर्धारित करना है।

विज्ञान में "काल-वादी ज्ञान", "क्रिया-वादी ज्ञान" और "निर्णय-वादी ज्ञान" के सार्वभौम सिद्धांत और नियमो का बोध-गम्य होना आवश्यक है।

निर्णय-कारी प्रवृत्ति में मानव-भाषा सूत्र जीवित रहने की आवश्यकता है। मानव-भाषा सूत्र को सार्वभौम रूप में, अर्थात धरती पर सभी मानव के स्वीकारने योग्य भाषा को, कारण-गुण-गणित रूप में पहचाना गया है।

कारणात्मक-भाषा में हर स्थिति, गति, घटना में निहित "मूल ज्ञान" स्पष्ट होता है। जैसे - अस्तित्व "होने" के रूप में है। मनुष्य-संसार, जीव-संसार, वनस्पति-संसार, और पदार्थ-संसार - ये चारों अवस्थाएं "होने" के आधार पर ही मानव में, से, के लिए समझ में आता है। "नहीं होना" मानव को समझ में आता नहीं है। "नहीं होना" होता ही नहीं है। "तिरोभाव" या "मिट जाने" का जो कल्पना दिया गया - वह मानव-परम्परा में प्रमाणित होना बना ही नहीं। इसका कारण यही है - "तिरोभाव" या "मिट जाना" होता ही नहीं है। "परिवर्तन" होना पाया जाता है। परिवर्तित रूप अस्तित्व में होता ही है। इसे संगठन-विघटन, रचना-विरचना, या परिणाम-परिवर्तन कहा जा सकता है। परिणाम-परिवर्तन की अपनी स्थिति निश्चित है। परिवर्तित सभी वस्तु अपनी स्थिति में होते ही हैं। परिवर्तित स्थिति पूर्व-स्थिति से भिन्न होते हुए भी "होना" समाप्त नहीं होता। किसी भी स्वरूप में होना, वह भी एक यथा-स्थिति होना - यह "सदा-सदा होने" की गवाही है।

गुणात्मक-भाषा से सम, विषम, और मध्यस्थ क्रियाकलाप स्पष्ट होता है। उद्भव क्रियाकलाप "सम"-क्रिया के रूप में, प्रलय क्रियाकलाप को "विषम"-क्रिया के रूप में पहचाना जाता है। साथ ही, जो कुछ भी उद्भवित रहता है उसको बनाए रखने में जो भी कार्यकलाप है - उसी का नाम "मध्यस्थ" है। अस्तित्व में चार अवस्थाओं का प्रगटन है। हर अवस्था का उसके वैभव को बनाए रखना मध्यस्थ-क्रियाकलाप है।

मध्यस्थ क्रियाकलाप को मनुष्य-परम्परा के सन्दर्भ में देखें तो - मानव परम्परा में शैशव, कौमार्य, यौवन, प्रौढ़, और वृद्ध अवस्थाओं के रूप में परिलक्षित है। मानव-परम्परा में "व्यवहार" इसी के साथ सुस्पष्ट होता है। हर मानव-संतान जन्म से ही न्याय का याचक होता है, सत्य वक्ता होता है, और सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक होता है। मानव-संतान का अपने अभिभावकों के साथ "व्यवहार" होता ही है। मानव-संतान स्वाभाविक रूप में अपने अभिभावकों का अनुसरण-अनुकरण करता ही है। इस व्यवहार का "प्रयोजन" है - अभिभावकों द्वारा संतान में न्याय-प्रदायी क्षमता स्थापित हो, सत्य का बोध हो, और सही कार्य-व्यवहार करना सिखाया जाए। ऐसा करना अभिभावकों का "दायित्व" है। इस दायित्व को पूरा करने के लिए अभिभावकों का पहले से उसके "योग्य" बने रहना आवश्यक है। इस प्रकार - हर मानव-सम्बन्ध में, दायित्वों को निर्वाह करने के लिए उसके लिए आवश्यक ज्ञान, विवेक, विज्ञान से संपन्न रहना आवश्यक है।

गणितात्मक भाषा समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की आवश्यकता के आधार पर गणना-विधि पूर्वक "वस्तु-मूलक गणित" को समझने के लिए है। मनुष्य का अकेले में कोई कार्यक्रम नहीं है। अकेले मनुष्य में कोई "प्रमाण" नहीं है। अकेले में कोई "व्यवहार" होता नहीं है। दो व्यक्ति से अधिक होने पर ही "परिवार" कहलाता है। परिवार में होने के बाद समाधान-समृद्धि का वैभव प्रमाणित होना आवश्यक हो जाता है। परिवार की आवश्यकताओं में "समृद्धि" से सम्बंधित जितनी भी बात है, उसमें गणित के आधार पर भी बात करना बनता है। वस्तु-मूलक गणित मानव-उपकारी होना पाया जाता है। मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ मनुष्य जितना भी कार्य करता है - वह सर्वाधिक भाग गणित-ग्राही है।

नित्यम् यातु शुभोदयम

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Thursday, October 29, 2009

प्रचार-माध्यमो की सार्थकता

आज सभी प्रचार-माध्यम अपराध-गतिविधियों को ज्यादा से ज्यादा प्रचारित किया करता है। प्रचार-माध्यम का मूल स्वरूप सही-गलती को चेताने से है, अथवा स्पष्ट करने से है। इसमें से "गलती" का प्रचार हुआ - लेकिन "क्या सही है" और "क्या होना चाहिए" इसका प्रचार नहीं हो पाया। इसी कारण-वश अपराध-प्रवृत्तियां बुलंद हुई। सही पक्ष का पता नहीं हो पाया।

किसी घटना को हम "ग़लत" मानते हैं तो उस मानने में "सही" की अपेक्षा समाहित ही रहती है। इस बात को हृदयंगम करने से पता लगता है कि प्रचार-माध्यम अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए हर "ग़लत" घटित-घटना को बढ़ा-चढा कर बताने के स्थान पर, "सही" घटनाएं कैसे होना चाहिए - इस तथ्य को उजागर करें। इस तरह मानव-परम्परा में सुधार होना स्वयं-स्फूर्त होगी। इस विधि से - शुभ को चाहने वाले सभी प्रचार-माध्यम अपनी सार्थकता, पूरकता, और उपयोगिता को प्रमाणित कर सकते हैं। अपराधों का प्रचार करने से अपराध बढे हैं। धरती का बीमार होना मनुष्य के अपराधों से हुआ है।

अपराध करने वाला व्यक्ति या समुदाय यह मान कर अपराध करता है - "सभी अपराधी हैं" अथवा "दूसरे लोग हमसे ज्यादा अपराधी हैं।" इसी मान्यता के साथ अपराध और मज़बूत होता जाता है। अपराध करने वाले को सही दिशा, सही कार्य, सही प्रयोजन बोध कराने की स्थिति में अपराध प्रवृत्ति सुधरने की ओर दिशा मिलना स्वाभाविक हो जाती है। इसलिए यह उचित है की पत्र-पत्रिका, रेडियो, टेलिविज़न, और आज की स्थिति में इन्टरनेट भी - सभी दिशाओं में "सही पक्ष क्या होना चाहिए?" - इसे प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। इसके लिए प्रचार-कार्यों में कार्यरत मेधावियों को "सही-पक्ष" में पारंगत होने की आवश्यकता है। उनको सभी स्थितियों में "सही" और "ग़लत" की विभाजन-रेखा को परखने की आवश्यकता है।

"सही" और "ग़लत" की विभाजन-रेखा जीव-चेतना और मानव-चेतना के मध्य में ही होता है। जीव-चेतना विधि से कामोन्मादी, भोगोन्मादी, और लाभोन्मादी प्रेरणाएं मिल रही हैं - जो "भ्रम" का द्योतक है। मानव-चेतना अपने स्वरूप में जीवन-जागृति का द्योतक है। जागृति और भ्रम उजाले और अंधेरे जैसा ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६)

विरोध पर विजय पाना सम्भव है.

आदिकाल से आज तक युद्ध को सर्व-जन मानस में आवश्यकता के रूप में स्वीकारा नहीं गया, एक "मजबूरी" के रूप में ही स्वीकारा गया। ऐसी मजबूरी के लिए तर्क यह दिया जाता है - पडौसी देश जब सामरिक तंत्र को तैयार करता है, तब हमको करना ही पड़ेगा। ऐसे उदगार जो पहले तैयार करता है, वह भी देता है। बाद में जो तैयार करता है, वह भी यही तर्क देता है। ऐसे में किसको सही माने? तब यही एक निष्कर्ष निकलता है - राज-गद्दी में जो बैठने को व्यक्ति तैयार होता है, उसके मन में सामरिक-तंत्र भय और प्रलोभन के आधार पर तैयार हुआ ही रहता है। राजगद्दी पर बैठे हुए आदमी को गद्दी खिसकने का भय बना ही रहता है। इसलिए राज-गद्दी में बैठ-कर पैसे को वितरित करने के "दाता" बने रहते हैं, और गद्दी बनाए रखने के लिए कितने भी भृष्टाचार, अनाचार, दुराचार समावेश करने के लिए प्रलोभित रहते हैं। एक निष्कर्ष निकलता है - "राज-गद्दी रहेगा तो युद्ध-कार्य रहेगा ही!"

इस प्रकार की स्थिति में इससे बचा कैसे जाए? इस पर सोचने के लिए विकल्पात्मक विधि की आवश्यकता हुई, जो अनुसंधान पूर्वक हमारे करतलगत हो गयी।

मानव-चेतना विधि से हम यह पाये हैं - विरोध का विरोध, और विरोध का दमन के स्थान पर "विरोध पर विजय" पाना सम्भव है। यह समझदारी सहज रूप में लोकव्यापीकरण होना ही है। इसे पाने के लिए सूत्र रूप में "चेतना-विकास मूल्य-शिक्षा" विधि से पूरे देश में "विरोध पर विजय" पाने की मानसिकता को तैयार किया जा सकता है। विरोध पर विजय पाने के लिए "सर्वतोमुखी समाधान" ही एक मात्र उपाय है। "सर्वतोमुखी समाधान" समझदारी से ही मानव-परम्परा में प्रमाणित होता है। इसके लिए सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - इन तीनो में अध्ययन पूर्वक पारंगत होने के उपरांत ही अनुभव-मूलक विधि से सर्वतोमुखी समाधान प्रकट करने का अधिकार हर व्यक्ति में होना पाया जाता है।

इस ओर हर शुभ चाहने वाले व्यक्ति को ध्यान देने की आवश्यकता पैदा हो गयी है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

वर्तमान का विखंडन नहीं किया जा सकता.

वर्तमान का तात्पर्य है - होना, रहना। होने-रहने में क्रियाशीलता सदा-सदा से स्थिति-गति रूप में, फल-परिणाम रूप में, वर्तता ही रहता है, अभी भी वर्त रहा है, आगे भी वर्तता रहेगा। इस प्रकार वर्तमान कहीं भी खंडित होना, या खंडित रहना - किसी भी विधि से सम्भव नहीं है।

"ऋणात्मक विधि" से वस्तु के अभावित होने की बात किया जाता है। ऐसे प्रयोगों को सर्वाधिक रूप में गणितीय विधि से संपन्न करना देखने को मिल रहा है। ऋणात्मक विधि से वस्तु स्थानांतरित होती है। कोई एक देश-काल में वस्तु जो थी, वह दूसरे देश-काल में चली गयी। उदाहरण रूप में : "१० - १० = ० " - ऐसा गणित में लिखा करते हैं। इससे मानव को संदेश रूप में जो स्वीकारने को सूत्र मिलता है - "वस्तु नहीं रहा!" इस तरह गणितीय विधि जो सच्चाई को उद्घाटित करने गया था, झूठाई में उलझाते चले गए।

"विखंडन विधि" से भी वस्तु और क्रिया के समाप्त होने की कल्पना दी जाती है। विखंडन क्रम के लिए चक्कू, छुरी, तलवार, पिसाई, घुटाई का प्रयोग किया जाता है। इसके बाद संख्यात्मक गणित का सहारा लिया जाता है। इस क्रम में - एक वस्तु को हज़ार टुकडा किया, पुनः उसमें से एक टुकड़े को हज़ार टुकडा किया, इस प्रकार करते-करते टुकडा विधि से एक टुकडा बचा ही रहता है। जिसको गणितीय विधि में "नगण्य" मान लेते हैं, अथवा और टुकडा करने में दिलचस्पी ख़त्म हो जाता है, अथवा और टुकडा करने का आवश्यकता नहीं रहता। ऐसी थकी हुई मानसिकता की स्थिति में "वस्तु समाप्त हो गयी" - ऐसा गणितीय विधि से स्वीकार लेते हैं। जबकि हर विखंडन के पहले "एक" होना स्वीकारे ही रहते हैं। उसको हज़ार भाग में विभाजित करने के बाद एक भाग को पुनः विभाजित करना स्वीकारते हैं। शेष ९९९ भाग यथावत रखा ही रहता है। इस क्रम को जोड़ने पर पता लगता है मानव भ्रमित करने को ही विखंडन-विधि गणित को अपनाए। विखंडन-विधि गणित मनुष्य को कुछ भी सकारात्मक वस्तु, उपलब्धि, घटना, अथवा ज्ञान देने में असमर्थ रहा। जबकि गणितीय भाषा को सर्वाधिक सत्य मान करके विज्ञान-संसार उदय हुआ था!

"दबाव विधि" से भी वस्तु और क्रिया के समाप्त होने की कल्पना दी जाती है। इसमें "यांत्रिक दबाव" और "ऊष्मा दबाव" के भेदों से प्रयोग संपन्न हुए। इन प्रयोगों में बहुत प्रकार के रसायन द्रव्यों के संयोग में ऊष्मा-दबाव पैदा करते हुए देखा गया। एक पटाखा से लेकर बन्दूक तक, बन्दूक से लेकर तोप तक, तोप से लेकर आण्विक-बम्ब तक विध्वंस क्रियाकलापों को करता हुआ देखा गया। इन सभी क्रम में ऊष्मा विधि से दबाव होना, उस दबाव से वातावरण में ध्वनि से लेकर कुछ न कुछ उपद्रव मचाने के रूप में निरीक्षण-परीक्षण करके निर्णय लेते चले गए।

इन सभी विधियों में सर्वाधिक हानि-प्रद ऊष्मा-तंत्र प्रदूषण विकीरणीय धातुओं के परिष्करण पूर्वक मध्यांश का विखंडन पूर्वक हुआ। यह सब जो मानव जाति के लिए नकारात्मक है - उसका गुण-गायन आए दिन प्रचार-माध्यमो द्वारा उछाला जाता है। इस प्रकार विज्ञानं विधा में जो सर्वाधिक सम्मान पाते हैं - वह सर्वाधिक विध्वंस-कारी, मानव-विरोधी, और नियति-विरोधी है। यह सब नाश और अड़चन का कारण बन चुकी है। सामरिक तंत्रों में, सामरिक विचारों में, सामरिक प्रयोगों में संलग्न विज्ञानियों को सर्वाधिक उपयोगी माना जाता है।

हर ईष्ट-अनिष्ट घटनाएं वर्तमान में ही घटित होती हैं। इसमें से ईष्ट घटनाएं मानव को स्वीकार होती हैं, अनिष्ट घटनाएं मानव को स्वीकार नहीं होती। हम अपराध के लिए भले ही भय-प्रलोभन वश सहमत हो गए हों, पर आज की स्थिति में मानव-कुल में जीवित सर्वाधिक लोगों में अपराध अस्वीकृत है। इसीलिए विकल्पात्मक विधि को सोचने की आवश्यकता है।

अपराध-मुक्ति विकल्पात्मक विधि से ही सम्भव है, परम्परा-गत विधि से नहीं। भटकाव से मुक्ति पाने के लिए सह-अस्तित्ववादी विकल्पात्मक विचार, शास्त्र, शिक्षा, व्यवस्था के प्रति पारंगत होना आवश्यक हो गया है। यह "सर्वतोमुखी समाधान" एक सहज-मार्ग होना स्पष्ट हो चुका है।

बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६)

Wednesday, October 28, 2009

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन

मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है - यह सबको पता है। उल्लेखनीय और विचारणीय बात यह है - २१वी सदी तक "कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन क्या है?", इस बात पर कोई मनोविज्ञानी, समाजशास्त्री, अर्थ-शास्त्री ध्यान क्यों नहीं दे पाये? यह धर्म-नीति और राज्य-नीति संसार के विद्वानों के लिए और भी गंभीर रूप में सोचने का मुद्दा है।

मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन क्या है? इस का सार-संक्षेप उत्तर यही है - (१) कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता मनुष्य में "नियति-प्रदत्त" है। सह-अस्तित्व में "प्रकटन विधि" से मनुष्य-परम्परा धरती पर है, जिसमें कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है। (२) मनुष्य में प्रकट कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का "तृप्ति-बिन्दु" पाना ही इस कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन है। यही "मानव-लक्ष्य" भी है।

मानव की परिभाषा है - "मनाकार को साकार करने वाला, और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने वाला"। मानव ने अभी तक अपनी परिभाषा का आधा भाग - "मनाकार को साकार करना" - पूरा कर लिया है। इसी क्रम में मनुष्य-परम्परा ने आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन संबन्धी वस्तुओं को प्राप्त कर लिया। यह मनुष्य की कर्म-स्वतंत्रता के फलस्वरूप ही हुआ। कल्पनाशीलता के साथ ही कर्म-स्वतंत्रता प्रकट हुई है। मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता को कर्म-स्वतंत्रता में परिवर्तित करता रहा - जिससे उसने अपनी परिभाषा का आधा-भाग प्रमाणित कर लिया। लेकिन उक्त वस्तुएं प्राप्त होने के बावजूद मानव का सुखी होना - या मनः स्वस्थता प्रमाणित होना - नहीं बन पाया। मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधियों से जितने भी कर्म करता आया, और आगे करने वाला है - उन सबके फलन में मनुष्य "सुखी" होना चाहता है, या मनः स्वस्थता प्रमाणित करना चाहता है।

इस प्रकार हम इस निष्कर्ष में आते हैं - कल्पनाशीलता में ही सुखी होने की आशा, अथवा अपेक्षा, अथवा इच्छा समाई है।

आशा, अपेक्षा, और इच्छा जीवन-सहज प्रक्रिया है। इसी के साथ जीवन में स्मृतियाँ प्रभावित रहती ही हैं। हर मानव में विगत से स्मृतियाँ, वर्तमान में प्रमाण, और भविष्य के लिए अपेक्षा होना स्पष्ट होता है। "सुख" प्रमाण स्वरूप में वर्तमान में ही होता है। वर्तमान में आशा, अपेक्षा, और इच्छा के तृप्त न होने के फलस्वरूप ही मनुष्य भूत और भविष्य में अपने स्मरण को दौडाए रहता है। भूत और भविष्य "सुख" का आधार न होने के फलस्वरूप मनुष्य "मनमानी" करता है।

मनुष्य की "मनमानी" को रोकने के प्रयास करने के लिए दो ध्रुवों में "भय" और "प्रलोभन" का तंत्र प्रस्तुत हुआ। इसे कुछ इने-गिने लोग ही स्थापित किए। प्रलोभानात्मक-तंत्र विभिन्न देश-काल और समुदायों में विभिन्न प्रकार से "धर्म-गद्दी" द्वारा प्रस्तुत हुआ। इसमें रहस्यमयी ईश्वर, अनुकरण न हो सकने वाले महापुरुष, अवतारी पुरूष, ईश्वर के संदेश-वाहक, सिद्ध-पुरुषों को केन्द्र में रख कर तरने-तारने का प्रलोभानात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। साथ ही "पाप" के प्रति भय, और प्रायश्चित्त का कार्यक्रम दिया गया। इसी प्रकार राज्य-तंत्र द्वारा सामान्य व्यक्तियों को जान-माल की रक्षा करने का आश्वासन और उसके लिए सीमा-सुरक्षा करने का कार्यक्रम रहा। इसके साथ ही राज्य-तंत्र का स्पष्ट-कार्यक्रम रहा - गलती को गलती से रोकना, अपराध को अपराध से रोकना, और युद्ध को युद्ध से रोकना। धर्म-गद्दी और राज्य-गद्दी का तंत्र यह सोचकर आरम्भ हुआ - सामान्य व्यक्ति इन तंत्रों की मूल-प्रवृत्ति को समझ नहीं पायेगा। २१ वी शताब्दी तक सर्वाधिक मानव इन तंत्रों की कलई को खुलते हुए देख लिया अथवा इन तंत्रों का प्रयोजन क्या हुआ और क्या हो रहा है - यह समझने के योग्य हो गया।

मानव अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के चलते - जंगल युग से ग्राम-कबीला युग में, ग्राम-कबीला युग से राज्य-युग में, राज्य-युग से लोक-तंत्र युग में पहुँच गया। लोकतंत्र में हर मानव, अथवा सर्वाधिक मानव "नेतृत्व मानसिकता" के लिए तत्पर रहा। इने-गिने लोगों को ही नेतृत्व-पद मिल सकता है, इसलिए उसके लिए संघर्ष भावी हो गया। इसके साथ - लोकतंत्र युग में राज्य-युग में राजाओं के सुविधा-संग्रह की सूचना सर्व-मानव के लिए प्रस्तुत हो गयी। उस आधार पर राजाओं को जो सुविधा-संग्रह उपलब्ध था, उससे ज्यादा पाने के लिए नेतृत्व प्रवृत्तियां आंकलित होता हुआ देखा गया।

राज्य-युग में आचार्य एक "आदर्श" रूप में गण्य होता था। राज-गद्दी पर बैठा हुआ राजा अपने को "आदर्श" होना स्वीकार ही लेता था। राज्य-गद्दी के "आदर्श" पूर्णतया सुविधा-संग्रह और अय्याशी-बदमाशी से भरा रहा। राज्य-गद्दी के ढांचे-खांचे में ही जन-प्रतिनिधि सर्वाधिक संख्या में उलझा हुआ दिखाई पड़ता है। जन-प्रतिनिधि विधि से गण-तंत्र प्रणाली राज्य-युग के तुलना में "पवित्र" होना जनमानस में स्वीकृत रहा। लेकिन आज की स्थिति में जन-प्रतिनिधि सर्वाधिक भृष्टाचार, अप्रत्याशित धूर्तता पूर्वक सुविधा-संग्रह उपार्जित करता हुआ देखने को मिलता है। "अप्रत्याशित" से मतलब है - जिस समय जनमानस निर्वाचन क्रिया करता है उस समय स्वीकृति रहती है कि जन-प्रतिनिधि जन-हित में कार्य करेगा। निर्वाचित होने के बाद - "जन-हित" भाषा में ही रह गयी। जन-हित के लिए जो मुद्रा-तंत्र था, वह जन-प्रतिनिधि के द्वारा निक्षेपित होता गया।

इस तरह जिनको सामान्य लोग "आदर्श" या "श्रेष्ठ" स्वीकारते रहे - उनका लक्ष्य केवल "सुविधा-संग्रह" ही होता हुआ देखा गया। फलतः सभी ज्ञानी, अज्ञानी, और विज्ञानी सुविधा-संग्रह की ही कतार में हो गए। सर्वाधिक जनमानस जब भृष्टाचार के लिए तत्पर हो गया तो इसके प्रथम-चरण में ही लोगों को यह भी पता चला कि धरती बीमार हो गयी। मानव अनेक प्रकार के नए-नए रोगों में ग्रस्त होता गया। यह सब परिस्थितियां अत्याधुनिक वर्चस्व का फल-परिणाम है। मनुष्य परम्परा अपराध-ग्रस्त हो चुकी है। ये परिस्थितयां मनुष्य परम्परा के अपराधों के फल-परिणाम हैं। २१ वी सदी तक जीव-चेतना विधि से जीने के क्रम में मनुष्य-परम्परा में सुविधा-संग्रह की लिप्सा बढ़ी, जिसके लिए सम्पूर्ण अपराध किए गए।

अपराध-मुक्त मानव-परम्परा के लिए हर व्यक्ति समाधान-संपन्न होना, और हर परिवार समाधान-समृद्धि संपन्न होना और उपकार करना आवश्यक है। उसके लिए मनुष्य में "चेतना विकास" ही प्रधान मुद्दा है। मानव-चेतना में जीवन-सहज आशा, अपेक्षा, और इच्छा "वर्तमान" में ही तृप्त रहती हैं। "मनमानी" को रोकने के लिए फ़िर "भय", "प्रलोभन", और "आस्था" पर आधारित तंत्रों की आवश्यकता नहीं रहती।

"चेतना-विकास मूल्य-शिक्षा" का कार्यक्रम पैसे से नहीं है। उसके लिए समझदारी से संपन्न - अर्थात मानव-चेतना, देव-चेतना संपन्न अध्यापको, गुरुजनों, आचार्यों की आवश्यकता है। मानव-चेतना में पारंगत हर मानव संबंधों को "प्रयोजनों के आधार पर" पहचानता है, और उसके निर्वाह करने के क्रम में कृतज्ञता, गौरव, श्रृद्धा, प्रेम, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान, स्नेह जैसे मूल्यों को प्रमाणित करता है। यही "न्याय-परम्परा" का मतलब है। इन उपलब्धियों के आधार पर "अखंड-समाज" और "सार्वभौम व्यवस्था" के साथ सर्व-मानव का "निरंतर सुखी" होना बनता है। यही मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का "प्रयोजन" है।

जीवन में दृष्टा-पद प्रतिष्ठा, और जागृति-सहज प्रमाणों का मानव-परम्परा में होना आवश्यक हो गया है। क्योंकि मानव-परम्परा अपराधों से मुक्त होना चाहता है, और मानव-परम्परा के अपराधों से मुक्त होने की आवश्यकता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित, अप्रैल २००६, अमरकंटक

Tuesday, October 27, 2009

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का स्त्रोत क्या है, क्यों है, और कैसा है?

कल्पनाशीलता के साथ कर्म-स्वतंत्रता हर नर-नारी में, से, के लिए "स्वाभाविक रूप" में है। "स्वाभाविक" का मतलब - "नियति-सहजता" से है। "नियति-सहजता" का मतलब - सह-अस्तित्व में प्रकटन क्रम में जो विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति है उससे मानव-परम्परा धरती पर प्रकट हुई। मानव-परम्परा में शरीर-रचना की मौलिकता में यह पाया गया कि जीवन-सहज कल्पनाशीलता - शरीर और जीवन के संयुक्त स्वरूप में प्रकट होता हुआ देखने को मिलता है। मानव-परम्परा शरीर और जीवन के संयुक्त साकार रूप में प्रकट होता हुआ देखने को मिलता है। हर नर-नारी में, से, के लिए जीवन का स्वरूप, जीवन का कार्य, जीवन का प्रयोजन समान होना अध्ययन-गम्य है। यह अध्ययन "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" क्रम में प्रकट और प्रमाणित है।

मानव आदिकाल से - मैं कौन हूँ? कैसा हूँ? और क्यों हूँ? इन प्रश्नों के उत्तर पाने का इच्छुक रहा है। इन प्रश्नों का उत्तर "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" के प्रकट और प्रमाणित होने से स्पष्ट रूप में सूचित करना सम्भव हो गया है। मैं कौन हूँ? मैं कैसा हूँ? और मैं क्यों हूँ? - इन प्रश्नों को लेकर मानव निरुत्तरित होता हुआ देखा जाता है। इनका उत्तर प्रस्तुत करना अब सुलभ हो गया है।

कल्पनाशीलता का स्त्रोत "जीवन" है। जीवन कहाँ से आया? इस प्रश्न का उत्तर सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में परमाणु में विकास-क्रम, और विकास होना स्पष्टतः समझ में आया है। हर परमाणु एक निश्चित गठन होता है। हर गठन में दो या दो से अधिक परमाणु-अंशों का होना समझ में आता है। इसी क्रम में परमाणुओं का "भूखे" और "अजीर्ण" होना भी समझ में आता है। "भूखा" और "अजीर्ण" भाषा मानव-संवेदना से जुडी अवश्य है। मानव ही समझने वाला इकाई है, इसलिए मानव-संवेदना से जुडी भाषा है। परमाणुओं के गठन-क्रम में परमाणु का "तृप्त" होना या "गठन-पूर्णता" होना भी समझ में आता है। ऐसे "गठन-पूर्ण" परमाणु का चैतन्य इकाई के रूप में जीवन-पद प्रतिष्ठा में वैभवित होना, अथवा प्रभावित होना पाया गया। जीवन के "प्रभावित" होने का माध्यम शरीर ही रहा। इसका सिद्धांत यही है - "अधिक शक्ति और बल, कम शक्ति और बल के माध्यम से प्रमाणित होना पाया जाता है।" जीवन गठन-पूर्णता के आधार पर अक्षय-बल और अक्षय-शक्ति संपन्न है, "परिमाम का अमरत्व" सहज वैभव है। शरीर एक भौतिक-रासायनिक रचना है - जो सह-अस्तित्व में प्रकटन विधि से धरती पर प्रकट है। शरीर जीवन की तुलना में कम बल और शक्ति संपन्न है। इसलिए जीवन शरीर के माध्यम से प्रमाणित होता है।

मानव अपने कल्पनाशीलता को कर्म-स्वतंत्रता में परिवर्तित करता रहता है। कर्म-स्वतंत्रता मानव-परम्परा में प्रमाणित होती है। मानव-चेतना पूर्वक जीवन-सहज कल्पनाशीलता और मानव-सहज कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु स्पष्ट होता है। जीवन-सहज कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिन्दु जीवन-लक्ष्य - सुख, शान्ति, संतोष, आनंद - के स्वरूप में है। मानव-सहज कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु मानव-लक्ष्य - समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व - के स्वरूप में है। मानव-लक्ष्य प्रमाणित होता है तो जीवन-लक्ष्य भी प्रमाणित होता है। जीवन-लक्ष्य प्रमाणित होता है तो मानव-लक्ष्य भी प्रमाणित होता है। जीवन-लक्ष्य मानव-परम्परा में प्रमाणित होना अवश्यम्भावी है, क्योंकि मानव-परम्परा जीव-चेतना वश अनेक प्रकार से अपराध करने में प्रवृत्त हो चुका है। इसकी गवाही धरती के बीमार होने के रूप में प्रस्तुत है। जीवन-सहज जागृति मानव-परम्परा में ही प्रमाणित होती है। जिसके फलन में मानव का चारों अवस्थाओं के साथ संतुलन पूर्वक जीना, न्याय-धर्म-सत्य का प्रमाणित हो पाना, मानव-परम्परा में, से, के लिए एक महिमा-संपन्न वैभव है। महिमा-सम्पन्नता का तात्पर्य "अपराध मुक्त परम्परा" से है। यह सब कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु को पाने के क्रम में शोध और अनुसंधान पूर्वक अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुआ।

अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व स्वरूप में होना, सह-अस्तित्व स्वयं व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तु के रूप में होना स्पष्ट हुआ है। यह समाधि-संयम विधि से अनुसंधानित एवं प्रकाशित तथ्य है। समाधि-संयम का एक झलक ऋषि-कुल परम्परा में "वेद" और "वेदान्त" नाम से श्रुति और स्मृति के रूप में वांग्मय प्रस्तुत है। जिसके कथन के अनुसार - "ज्ञान सर्वोपरि सम्पदा है।" साथ में यह भी प्रतिपादित है - "ज्ञान ही ज्ञाता भी है।" और "ज्ञान ही ज्ञेय भी है।" ऐसा इन ग्रंथों में कहा गया है। ऐसे गहन, गूढ़, और गंभीर रहस्यमय शब्दों के साथ उपदेश-परम्परा में यह इंगित किया गया है - धारणा, ध्यान, और समाधि पूर्वक ही अज्ञात ज्ञात होना बताया गया है। इस उपदेश को साधना-विधि से अन्तिम-निर्णय पाने के उद्देश्य से लेखक स्वयं उद्यत हुए, और उसमें सफल हो गए। इस क्रम में सत्यापन यही है - "समाधि में कोई ज्ञान नहीं हुआ।" संयम विधि से सम्पूर्ण अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूप में अनुभव हुआ, फल-स्वरूप उसका व्याख्या करना सुगम हो गया।

इस प्रकार कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का स्त्रोत समझने के साथ-साथ इनकी "सार्थकता" भी समझ में आया। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता की सार्थकता मानव-चेतना पूर्वक मनः-स्वस्थता को प्रमाणित करने में है। मनः स्वस्थता अभ्युदय या सर्वतोमुखी-समाधान के स्वरूप में है। इसके फलन में सम्पूर्ण मानव जाति को "अखंड-समाज" के रूप में पहचानना बनता है। इसी विधि से "सार्वभौम व्यवस्था" का स्वरूप स्पष्ट है। यह इस बात का उत्तर है - कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता "क्यों" है? "अखंड-समाज" और "सार्वभौम-व्यवस्था" को प्रमाणित करने के लिए कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है।

परिवार में हर सदस्य का समझदार होना, फलस्वरूप समाधान-संपन्न होना, और श्रम-पूर्वक समृद्धि-संपन्न होना आवश्यक है। समाधान-समृद्धि पूर्वक ही हर परिवार "उपकार प्रवृत्ति" में होना पाया जाता है। इस प्रकार "सार्वभौम व्यवस्था" का १० सोपानीय स्वरूप निकलता है। इस तरह "कैसा" प्रश्न का उत्तर मिलता है। सार्वभौम व्यवस्था के १० सोपानीय स्वरूप को हम अगले प्रसंग में देखेंगे।

- बाबा श्री नागराज शर्मा, अप्रैल २००६, अमरकंटक

Monday, October 26, 2009

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का सार्थक स्वरूप

मानव में स्मृति और कल्पनाशीलता का स्त्रोत और प्रक्रिया को समझने के लिए अपेक्षा बनी रहती है। इसका मूल कारण हर मानव में - चाहे बच्चे हों, बूढे हों, नर हों, नारी हों - कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वर्तमान रहना पाया जाता है।

मानव अपने कल्पनाशीलता को कर्मस्वतंत्रता में परिवर्तित करता रहता है। मानव अपने शरीर के साथ ही कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता को प्रयोग करता दिखाई पड़ता है।

मानव के अध्ययन से पता चलता है - मानव अपनी आंखों से जो देखता है उससे अधिक समझता हुआ स्पष्ट आंकलित होता है। हर "रूप" में आकार, आयतन, घन समाहित रहता है। आंखों पर सामने वस्तु के रूप का १८० अंश तक ही आकार-आयतन प्रतिबिंबित होता है। शेष १८० अंश ओझिल रहता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आकार आयतन का पूरा स्वरूप आंखों में आता नहीं है। इसी के साथ "घन" का स्वरूप आंखों तक पहुँचता ही नहीं है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मानव का अध्ययन करते हैं तो हमको पता चलता है - समझने का पक्ष हर मानव में सक्रिय रहता ही है। इसी क्रम में मानव गणितीय विधि से आकार, आयतन, और घन को समझ पाता है। यह प्रक्रिया हर मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता की बदौलत है।

अब यह भी स्पष्ट होना आवश्यक है कि - समझने वाली चीज क्या है? पाँचों ज्ञान-इन्द्रियों में - यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों में - किसी एक वस्तु का "सम्पूर्णता" पहुँच नहीं पाता है। "सम्पूर्णता" को समझने की अपेक्षा मनुष्य में बना ही रहता है। सुदूर विगत से ही मानव घटनाओं को पहचानने का प्रयास करते ही आया है।

मनुष्य ने अपने इतिहास में - "कारण" के आधार पर, "गुण" के आधार पर, और "गणित" के आधार पर घटनाओं को पहचानने का प्रयास किया है। विगत में अध्यात्मवादियों ने ईश्वर को "मूल कारण" के रूप में भाषा में प्रस्तुत किया। उसके बाद अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए ईश्वर का बहुत-कुछ गुणगान किया। अभी तक आदर्शवादी लोग शिक्षा-जगत में ईश्वरीयता को अथवा ईश्वर को "मूल कारण" के रूप में पहचानने की व्यवस्था दे नहीं पाये। इस गवाही से यह स्पष्ट होता है, इस सोच-विचार का गम्य-स्थली अधूरा रहा।

दूसरा प्रयास इस रूप में हुआ - जिसमें कहा गया ईश्वर देवी-देवताओं के रूप में महिमा, लीला, और मर्यादाओं को प्रकट करते हैं, दुष्टों का नाश करते हैं, भक्तों का संरक्षण करते हैं। इस प्रकार की महिमा-संपन्न देवी-देवताओं को अपने ईष्ट के रूप में स्वीकारने के लिए बहुत सारे तौर-तरीके प्रस्तुत करते हुए, लोगों में ईश्वर और देवी-देवताओं के प्रति "आस्था" स्थापित करने के लिए अनेकानेक विधियों को सत्कथा, परीकथाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया। साथ ही "उपदेश" के रूप में उपासना, आराधना, ध्यान, पूजा-पाठ, प्रार्थना पूर्वक "ईश्वर-कृपा" और "देव-कृपा" पूर्वक शरीर-यात्रा या जन्म सार्थक होना - यह सब की स्वीकृति "भक्ति" के नाम से प्रचलित हुआ। भक्ति के लिए "गुणात्मक भाषा" का प्रयोग ज्यादा हुआ।

ईश्वरवाद (अर्थात विरक्तिवाद) और भक्तिवाद दोनों प्रचलित हुआ। उसके बाद भौतिकवाद शुरू होने के साथ भक्ति-विरक्ति विचाराधीन होता गया। दूसरी भाषा में "अनास्था" की ओर मानव-मानसिकता परिवर्तित होता हुआ, और सुविधा-संग्रह प्रवृत्ति बढ़ता हुआ देखा गया। भौतिकवाद में "गणितात्मक भाषा" का प्रयोग हुआ। गणितीय भाषा विधि से भी मनुष्य का अध्ययन नहीं हुआ। भौतिकवादी महिमा प्रौद्योगिकी विधि से जो प्रकट हुआ - उससे जन-मानस "सुविधा-संग्रह" के वश में आ गया। इसके बावजूद भक्ति-विरक्ति सर्वथा लुप्त हो गयी - ऐसा नहीं हुआ।

ईश्वरवाद अथवा आदर्शवाद "कारणात्मक सोच-विचार" की सम्प्रेष्णा में पहुँचा, जबकि गुणात्मक और गनितात्मक भाषा गौण रहा। भक्तिवाद में गुणात्मक भाषा प्रधानतः मानसिकता में रहा तथा अन्य दोनों गौण रहा। भौतिकवाद में गणितात्मक भाषा प्रबल रहा, गुण और कारणात्मक भाषा गौण रहा। इस विधि से यह समझ में आता है - मानव-भाषा अभी तक पूर्णतया प्रयोग नहीं हो पाया। इसी के साथ यह भी समझ में आता है - सच्चाई को समझने के लिए मानव-भाषा के रूप में कारण, गुण, और गणित को संयुक्त रूप में स्वीकारना ही होगा।

"सुख-शान्ति पूर्वक जीना" - सामान्य व्यक्ति में यह सहज-अपेक्षा पायी जाती है। इस अपेक्षा के लिए स्मृति के साथ कल्पनाशीलता को जोड़ कर मानव-जाति सोचता आया, प्रयोग करता आया। इससे यह हमको पता चलता है - हर मानव सोचने वाला है, हर मानव में सोच-विचार की आवश्यकता बनी हुई है। साथ ही - सोच-विचार में "सुख-शान्ति पूर्वक जीना" की स्थिति-गति को पहचानने की आवश्यकता बनी हुई है। मानव कल्पनाशील है, विचारशील है, और इस कल्पना और विचार का मुद्दा है - सुख-शान्ति पूर्वक जीना।

मानव के अध्ययन से पता चलता है - हर मानव समझने-समझाने वाला भी है। और शरीर द्वारा सोच-विचार को प्रस्तुत करता है। इस तरह से विचार मानव-परम्परा में "अनुकरणीय विधि से" पीढी से पीढी पहुँचता हुआ देखने को मिलता है। जो विचार नहीं पहुँच पाता है, उसके स्थान पर परिवर्तित रूप में और कोई चीज स्थापित हो जाती है।

इसी के साथ मानव के अध्ययन में यह भी स्पष्ट होता है - समझ, सोच-विचार, और कल्पनाशीलता शरीर से भिन्न है। ऐसे शरीर से भिन्न वस्तु को पहचानने के क्रम में पता चला कि यह "जीवन" है। जीवन अपने में "अमर" और "नित्य" रहता है। शरीर गर्भाशय में तैयार होता है। ऐसे शरीर को जीवन पहचानता है और संचालित करता है। हर जीवन एक शरीर को संचालित करता है। जीवन का प्रकाशन समझ, सोच-विचार, और कल्पना के रूप में है। उसका प्रमाण मानव-परम्परा में है। शरीर के द्वारा जीवन व्यक्त होना पाया जाता है। इस प्रकार मानव को जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में पहचानना सुलभ हो गया है।

जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव को पहचानने के उपरांत ही कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन स्पष्ट होता है। सोच-विचार में "सुख-शान्ति पूर्वक जीने की इच्छा" भी जीवन के स्वत्व रूप में होना समझ में आता है। स्मृतियाँ जीवन में विद्यमान होना स्पष्ट होता है। स्मृतियाँ जीवन का स्वत्व होना समझ में आता है। जीवन ही कल्पनाशीलता और स्मृति का स्त्रोत है।

समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की इच्छा भी जीवन में प्रकाशित होने वाली प्रक्रिया है। सुख-शान्ति पूर्वक जीने के लिए समाधान-समृद्धि आवश्यक है। समाधान हर नर-नारी में होता है। समृद्धि हर परिवार में होता है। समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि होना पाया जाता है।

समझदारी का स्त्रोत सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व है। सह-अस्तित्व अपने स्वरूप में व्यापक वस्तु में समाई हुई एक-एक वस्तुएं हैं, जो जड़-चैतन्य रूप में अध्ययन-गम्य हैं। भौतिक और रासायनिक संसार को "जड़ प्रकृति" नाम है। रसायन-संसार में सम्पूर्ण अन्न-वनस्पति, झाड़, जंगल प्रकट हो चुकी है। इसके मूल में रसायन द्रव्यों में उत्सव, प्राण-सूत्र, प्राण-सूत्रों में रचना-विधि, हर रचना "बीज-वृक्ष न्याय विधि" से आवर्तनशील व्यवस्था में होना - इसी क्रम में अनेकानेक रचनाएँ प्रकट हो चुकी हैं।

इसके बाद जीव-संसार अंडज और पिंडज विधि से जलचर, भूचर, और खेचर रूप में विद्यमान है। इसके पश्चात मानव का प्रकटन इस धरती पर होना, और परम्परा रूप में पीढी से पीढी के रूप में विद्यमान है।
ये पूरी बात समझ में आना "समझदारी" है। ऐसे समझदारी से हर वस्तु का त्व सहित व्यवस्था में होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना स्पष्ट स्वीकार होता है। फलस्वरूप मानव अपने मानवत्व सहित व्यवस्था होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति से संपन्न होना पाया जाता है। यही "समाधान" का स्त्रोत है।

समाधान-समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना, और 'परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था' में भागीदारी करना समझदारी से परिपूर्ण परम्परा है। यही "अखंड समाज" और "सार्वभौम व्यवस्था" का स्वरूप है।

समझदार व्यक्तियों के परिवार में आवश्यकताएं "निश्चित" होती हैं - जो शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में स्पष्ट होती हैं। निश्चित आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन करना सहज है। फलन में समृद्धि सहज है। इस प्रकार हर परिवार-जन का समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना सहज है। पुनर्विचार करने का यही उद्देश्य है।
स्मृतियाँ घटना और भाषा के रूप में रहता है। कल्पनाएँ अपेक्षा के रूप में होती हैं। अपेक्षाएं निश्चित होने के क्रम में समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व पूर्वक जीना बनता है। यह कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का सार्थक स्वरूप और प्रयोजन है।

"सदा सर्व-शुभ हो!"

- बाबा श्री ए नागराज के साथ सम्वाद पर आधारित, अप्रैल २००६ - अमरकंटक

Friday, October 23, 2009

सार्वभौम व्यवस्था - सम्मलेन २००९, हैदराबाद

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

इस शुभ-कामना से हम यहाँ मिले हैं। आज मेरे वक्तव्य का मुद्दा है - "सार्वभौम व्यवस्था"। सार्वभौम व्यवस्था कैसे होती है? पिछले तीन दिनों में आपके सम्मुख प्रस्ताव रखा है कि 'विकल्प' स्वरूप में 'समझदारी' से संपन्न होने की आवश्यकता है। 'समझदारी' से संपन्न होने के बाद 'प्रमाणित' करने की आवश्यकता है। यह मनुष्य के सामने 'आवश्यकता' के स्वरूप में रखा हुआ है। सन् २००० तक ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी इस धरती पर जो कुछ भी सोचा, निर्णय लिया, किया - उसके फल-परिणाम में यह धरती बीमार होते हुए देखने को मिला। अपना-पराया की दूरियां बढ़ते हुए देखने को मिला। देशों की सीमाओं पर विभीषिकाएँ बढ़ता हुआ देखने को मिला। इन सब को देखने पर मनुष्य-जाति में सोचने का मुद्दा उभरा - "हम सही कर रहे हैं, या ग़लत कर रहे हैं?"

उसके उत्तर में विकल्पात्मक स्वरूप में "समझदारी" का यह प्रस्ताव है। समझदारी को अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान के संयुक्त रूप में अध्ययन-गम्य कराने का व्यवस्था दिया। इसको अध्ययन करने वाले आज लगभग २००० लोग तो हो चुके हैं। अब यदि आपकी इच्छा हो तो आप भी अध्ययन कर सकते हैं। यह आपको सूचना देना चाहा।

इस प्रकार यदि अध्ययन होता है तो मनुष्य का "मानव चेतना" पूर्वक जीना बनता है। अभी तक मनुष्य-जाति "जीव-चेतना" में जिया है - यह समीक्षित हुआ। जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्य ने जीवों से अच्छा जीने का प्रयत्न किया। इन्ही प्रयत्नों के फलन में यह धरती ही बीमार हो गयी - जिससे पुनर्विचार की आवश्यकता बन गयी। पुनर्विचार के लिए विकल्पात्मक रूप में "समझदारी" का प्रस्ताव है।

अस्तित्व-दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - इन तीनो को छोड़ कर हम कभी भी "समझदार" नहीं होंगे। अभी भी नहीं, करोड़ वर्ष के बाद भी नहीं। इस ज्ञान को परीक्षण करने और शोध करने का अधिकार हर व्यक्ति के पास रखा है। यह मैं अपने अनुभव से बता रहा हूँ।

ऐसे समझदारी से संपन्न होने पर हमको "सर्वतोमुखी समाधान" हासिल होता है। इस बात को मैंने अनुभव किया है, जिया है, प्रमाणित किया है। सर्वतोमुखी समाधान को मैं जी कर देखा हूँ, प्रमाणित किया हूँ - इससे "सुख" मिलता है। प्रकारांतर से, आज पैदा हुआ आदमी, कल मरने वाला आदमी - सभी सुखी होना चाहते हैं। मानव-चेतना से संपन्न होने पर हरेक व्यक्ति के पास समाधान उपलब्ध होगा। समाधान पूर्वक हम सुखी होते हैं। समस्या पूर्वक दुखी होते हैं। "सर्वतोमुखी समाधान" यदि आप हासिल करना चाहते हैं तो उसके लिए "मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व वाद" अध्ययन के लिए प्रस्तुत किया है। उसको आप अध्ययन कर सकते हैं।

"जीवन विद्या शिविर" इस प्रस्ताव की "सूचना" देता है। सूचना मिलने के बाद "उत्साहित" होना होता है। उत्साहित होने के बाद यदि "समझने" का उद्देश्य बनता है, तो उसके लिए व्यवस्था है। इस पर आप यदि इच्छा हो तो ध्यान दे सकते हैं। मेरे कहने मात्र से मत करिए। आपकी अपनी इच्छा बनती हो तो अध्ययन करिए। अभी रायपुर के पास एक छोटे से गाँव अछोटी में लगभग १०० लोग अध्ययन कर रहे हैं।

सह-अस्तित्व में प्रकटन विधि पूर्वक मनुष्य-शरीर रचना धरती पर प्रकट हुई। इस प्रकटन में किसी भी मानव का कोई भी हाथ नहीं है। इस धरती पर अभी तक जितने भी मनुष्य अब तक प्रकट हुए, यहाँ जो इतने लोग दिख रहे हैं - किसी का भी धरती पर मनुष्य-शरीर रचना प्रकटन में हाथ नहीं है। मनुष्य-शरीर रचना को प्रकृति स्वयं-स्फूर्त विधि से प्रस्तुत कर दिया। जागृति को प्रमाणित करने योग्य शरीर धरती पर बन चुकी है।

समझदारी के बिना हम समाधान संपन्न होंगे नहीं। मानव-जाति समाधान-संपन्न होने के बाद न सीमा-सुरक्षा रहेगी, न अपने-पराये की दूरियां रहेंगी, न "भ्रम" रहेगा।

"भ्रम" का स्वरूप क्या है? जीवन ही शरीर को जीवंत बना कर रखता है। जीवंत बनाने के फलस्वरूप शरीर में संवेदनाएं व्यक्त होती हैं। संवेदनाओं को देख कर जीवन ही बुद्धू बनता है और शरीर को जीवन मान बैठता है। यही भ्रम है। यह भ्रम रहने तक जीवन शरीर के मरने और जीने को अपने साथ जोड़ लेता है। शरीर को जीवन मानना ही भ्रम का मूल स्वरूप है।

समस्या भ्रम-वश है। समाधान जागृति पूर्वक होता है।

यदि हम समस्या प्रस्तुत करते हैं, तो हम भ्रमित हैं। यदि हम 'सर्वतोमुखी समाधान' प्रस्तुत करते हैं, तो हम जागृत हैं। हर व्यक्ति इस बात का "स्व-निरीक्षण" कर सकता है।

विकल्पात्मक मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन करने से मानव "सर्वतोमुखी समाधान" संपन्न होता है। सभी विधा में समाधान प्रस्तुत करने योग्य होता है। अध्ययन के बारे में बताया - हर शब्द का अर्थ होता है। अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। अध्ययन पूर्वक वस्तु साक्षात्कार होना, बोध होना, अनुभव होना। अनुभव होने के बाद प्रमाण होना। इस तरह मनुष्य अस्तित्व में अध्ययन कर सकता है, अनुभव कर सकता है, और अनुभव को जी कर प्रमाणित कर सकता है।

सर्व-मानव सुख चाहते ही हैं। सुख पूर्वक जीना चाहते ही हैं। वे एक शरीर-यात्रा में ही कैसे समझदार हों, समाधानित हों, प्रमाणित हों - उस चौखट में पूरे अध्ययन की व्यवस्था है। एक ही शरीर यात्रा में! अनेक शरीर यात्राओं की बात नहीं है। एक ही शरीर-यात्रा में "सम्पूर्ण बात" का अध्ययन कर सकते हैं।

"सम्पूर्ण बात" है - सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व का अध्ययन हो जाए, और स्वयं का अध्ययन हो जाए। तब सम्पूर्ण अध्ययन हुआ। इसमें से एक भी भाग को छोड़ दें तो सम्पूर्ण अध्ययन नहीं हुआ।

अभी जो अध्ययन प्रचलित है वह केवल सुविधा-संग्रह करने के लिए है, अपराध करने के लिए है, दूसरों को बुद्धू बनाने के लिए है। अभी मानव-जाति के पास जो भी विद्वता है - वह इन तीन जगह में ले जाने के लिए ही कामयाब है। अभी तक मानव-जाति के पास जो भी विद्वता है वह समाधान प्रस्तुत करने में असमर्थ है। न्याय प्रस्तुत करने में असमर्थ है। सत्य प्रस्तुत करने में असमर्थ है। अभी तक मैं सुप्रीम कोर्ट के तीन retired judges से बात किया हूँ। वे कहते हैं - हमें न्याय का पता नहीं है, हम केवल "फ़ैसला" करते हैं।

"सत्य" शब्द हम जानते हैं - पर सत्य क्या है, सत्य का प्रभाव क्या है, इसके बारे में हम सर्वथा अनभिज्ञ हैं। सत्य बोध कराने की व्यवस्था अभी तक शिक्षा में आया नहीं है। इसीलिये इस विकल्प के द्वारा न्याय, धर्म, और सत्य को शिक्षा में बोध कराने की व्यवस्था रखा है। छत्तीसगढ़ राज्य शिक्षा से विद्वान यहाँ हमारे बीच बैठे हैं। वे भी इसकी गवाही दे सकते हैं। इस कार्यक्रम में हर व्यक्ति "स्वेच्छा" से भागीदार हो सकते हैं।

यह कोई "उपदेश" नहीं है।

मैं स्वयं एक वेदमूर्ति परिवार से हूँ। उपदेश देने में मैं माहिर हूँ। उपदेश की विधि है - "जो न मैं समझा हों, और न आप समझोगे - उसको मैं आपको बताऊँ, फ़िर आप मुझे कुछ दे कर खुश हों, मैं आप से वह ले कर खुश होऊं!" इस तरीके को मैंने छोड़ दिया - क्योंकि यह निरर्थक है, इससे कोई प्रयोजन नहीं निकलता। प्रयोजन जिससे निकलता है, उसको अनुसन्धान करने में मैंने २५ वर्ष लगाया, फ़िर और २५ वर्ष लगाया उसको संसार को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने के लिए, फ़िर १० वर्ष से इस बात को लोगों के सम्मुख रखने योग्य हुए। आज इस बात को करीब २००० लोग अध्ययन कर रहे हैं। आगे और लोग इसको अध्ययन करेंगे - यह आशा किया जा सकता है। जो चाहें, वे अध्ययन करने में भागीदारी कर सकते हैं।

अध्ययन कराने को लेकर हम प्रतिज्ञा किए हैं - "ज्ञान व्यापार" और "धर्म व्यापार" हम नहीं करेंगे। अध्ययन के लिए कोई दक्षिणा उगाहने की बात नहीं है। अध्ययन के लिए कोई शुल्क नहीं रखा है। ज्ञान जीवन सहज-अपेक्षा है। ज्ञान को टुकडा करके बेचा नहीं जा सकता। अभी जो "बुद्धि-जीवी" कहलाये जाते हैं - वे अपने ज्ञान को "बेच" रहे हैं। उनसे पूछने पर - "ज्ञान को कैसे बेचोगे? 'ज्ञान' को तुम क्या जानते हो?" - उनसे कोई उत्तर मिलता नहीं है। इस बात का कोई उत्तर देने वाला हो तो मैं उसको फूल माला पहना करके सुनूंगा! ज्ञान को "बेचने की विधि" को मुझे बताने वाला आज तक मिला नहीं है। अभी ज्ञान-व्यापार और धर्म-व्यापार में कितने लोग लगे हैं, उसका आंकडा रखा ही है। सारी दरिद्रता, सारी अपराध-प्रवृत्ति धर्म-व्यापार और ज्ञान-व्यापार से ही है।

समझदार होने के बाद हम धर्म-व्यापार करेंगे नहीं, ज्ञान-व्यापार करेंगे नहीं। मैं यदि "धर्म" को समझता हूँ तो मैं अपने बच्चे को उसके योग्य बनाऊं, अपने अडोस-पड़ोस के व्यक्तियों को उसके योग्य बनाऊं, अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को उसके योग्य बनाऊं - यही बनता है। मैं वही कर रहा हूँ। मेरे संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के बीच मैं काम कर रहा हूँ। व्यापार से मुक्त - धर्म और ज्ञान का बोध कराने की मैंने व्यवस्था कर दिया।

धर्म-आचार्यों से मैंने इस बारे में (ज्ञान-व्यापार और धर्म-व्यापार को लेकर) बात-चीत किया। इस बात को छेड़ने से आचार्य-लोग बहुत नाराज होते हैं। मैं उन आचार्यों की बात कर रहा हूँ जो शंकराचार्य पद पर बैठे हैं। एक आचार्य नाराज नहीं हुए। वे थे - श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य! वे अमरकंटक आए थे, उसके बाद उनसे सत्संग हुआ, उन्होंने मेरी बात को अध्ययन करने के बाद बताया - "तुमने एक महत कार्य किया है। हम तो धर्म के लक्षणों को बताकर शिष्टानुमोदन करते हैं, तुमने धर्म का अध्ययन कराने का व्यवस्था किया है।" ऐसा एक ही ऐसे व्यक्ति ने कहा। दूसरा ऐसे व्यक्ति ने अभी तक कहा नहीं है। इन सब बातों से जो मुझे संतोष मिलना था, मिलता रहा। मैं आगे-आगे बढ़ता गया, और इस प्रकार चलते-चलते आज आप लोगों के सान्निध्य में आ गया।

समझदार व्यक्ति व्यवस्था में जीता है। समझदार व्यक्ति सर्वप्रथम परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक व्यवस्था में जीता है। ऐसे परिवार में नर-नारियों में समानता रहता है। इस प्रकार परिवार में सुख-शान्ति पूर्वक जीना बनता है। सभी परिवार ऐसे सुख-शान्ति पूर्वक जीने वाले होने पर "अखंड समाज" होता है। सभी परिवार समाधान-समृद्धि संपन्न होने पर अखंड-समाज का गठन होता है। उससे कम में अखंड-समाज होने वाला नहीं है। ऐसे समाज में हम अभय-संपन्न होते हैं। भय-मुक्त होते हैं। अभी इसके अभाव में कौन क्या कर देगा - यह आशंका बना ही रहता है। मनुष्य-जाति का सारा इतिहास इस बात की गवाही है। सभी बात आपके सम्मुख है।

अभय-संपन्न होने के बाद हम "सार्वभौम व्यवस्था" के पक्ष में जाते हैं। चारों अवस्थाओं का परस्पर संतुलन ही सार्वभौम-व्यवस्था है। इसमें नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीना प्रमाणित होता है। इन प्रमाणों के साथ मानव सुख, शान्ति, संतोष, आनंद पूर्वक जीने की स्थिति में आता है। सुख, शान्ति, संतोष, और आनंद जीवन सहज-अपेक्षा है।

समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व - ये चार घाट हैं।

व्यक्ति के स्तर पर समाधान।
परिवार के स्तर पर समाधान-समृद्धि।
समाज के स्तर पर समाधान-समृद्धि-अभय।
समग्र-व्यवस्था के स्तर पर समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व।

समाधानित होने के लिए "अध्ययन" है। अध्ययन कराने का शुरुआत मैंने किया है।

"सार्वभौम व्यवस्था" हो जाने पर क्या होगा?

सार्वभौम-व्यवस्था में हम "सत्य" को प्रमाणित करते हैं। सह-अस्तित्व परम सत्य है। सह-अस्तित्व को हम व्यवस्था में प्रमाणित करते हैं। इस तरह मानव प्रकृति-सहज विधि से, अस्तित्व-सहज विधि से, सह-अस्तित्व सहज विधि से जीता है। इसको हर व्यक्ति सोच सकता है, समझ सकता है, जी सकता है, प्रमाणों को प्रस्तुत कर सकता है।

सार्वभौम-व्यवस्था में हम पाँच आयामों में बहुत अच्छी तरह जी पाते हैं। "सार्वभौम व्यवस्था" में मनुष्य के जीने के पाँच आयाम हैं : -

(१) शिक्षा-संस्कार
(२) न्याय-सुरक्षा
(३) स्वास्थ्य-संयम
(४) उत्पादन कार्य
(५) विनिमय कोष

शिक्षा-संस्कार से मानव-परम्परा में "समाधान" उपलब्ध होगा।

इससे सबके लिए न्याय-सुलभता हो ही जायेगी। समझदार परिवार में संबंधों में न्याय होता ही है।

समझदारी के बाद न्याय कोई दुरूह नहीं है।
भ्रमित रहते तक न्याय महान-दुरूह है।

समझदारी के बाद - संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति होने पर न्याय होता है।

"न्याय" का हम अध्ययन कराते हैं। जबकि इस धरती पर जितने भी सुप्रीम कोर्ट हैं - उनमें न्याय का अता-पता नहीं है। सभी देशों के संविधानों के तीन ही कायदे हैं - गलती को गलती से रोको, अपराध को अपराध से रोको, युद्ध को युद्ध से रोको। इन तीन कायदों के रहते उनसे न्याय कहाँ मिलेगा? इन तीन कायदों के अलावा ये कोर्ट "जन-सुविधा" की बात करते हैं। सुविधा का कोई तृप्ति-बिन्दु ही नहीं है। सबके लिए सुविधा-संग्रह की चाहत को पूरा करने की सम्भावना ही नहीं है।

उससे पहले विगत में कहा गया था - "भक्ति-विरक्ति में कल्याण है।" भक्ति-विरक्ति सबको मिल नहीं सकती। भक्ति-विरक्ति "रहस्य" से शुरू होता है, "रहस्य" में ही अंत होता है। भक्ति-विरक्ति के रहस्य से पार अभी तक किसी एक व्यक्ति के वश का रोग नहीं हुआ। भक्ति-विरक्ति रहस्य से मुक्त हो जाए, शिक्षा में स्थापित हो जाए, आचरण में आ जाए, व्यवस्था में प्रभावित हो जाए - ऐसा आज तक हुआ नहीं। "भक्ति-विरक्ति से व्यवस्था होगा" - ऐसा हम "आस्था" के आधार पर अरमान करते रहे। आस्थाएं धीरे-धीरे शिथिल होता हुआ देखा जा रहा है। जब कभी भी शिक्षा की "समीक्षा-समिति" बनती है तब उसमें प्रधान रूप में कहा जाता है - "आस्था का हनन हो रहा है।" यह सब सुनने पर लगता है - लोगों के मन में कुछ तो आया है। किंतु इस स्थिति का समाधान पाना उनसे सम्भव नहीं हुआ है।

न्याय-अन्याय की बात मनुष्य-परस्परता में ही होती है। न्याय की अपेक्षा मानव-परस्परता में ही होती है। न्याय-सुलभता का आधार है - "संबंधों की पहचान"। संबंधों के नाम सबको विदित हैं। सभी भाषाओँ में संबंधों के नाम तो हैं। लेकिन संबंधों के प्रयोजनों का ज्ञान नहीं है। संबंधों के प्रयोजनों को निर्वाह करने का अधिकार बना नहीं है। जैसे - "माता", "पिता" नाम सुदूर विगत से भाषा में हैं। किंतु माता-पिता के साथ न्याय कैसे होगा, क्यों होगा, क्या प्रयोजन होगा - इसके बारे में कोई बात न शिक्षा में हैं, न व्यवस्था में है, न आचरण में है। अभी जितने भी समुदाय-परम्पराएं हैं - किसी में भी नहीं है। इसी कारण "अनुसंधान" करना पड़ा। अनुसंधान पूर्वक प्राप्त वस्तु को विकल्पात्मक स्वरूप में रखना पड़ा। उसको अभ्यास में लाने के लिए उपक्रम करना पड़ा।

उसी "उपक्रम" में यह सम्मलेन भी है। अपनी-अपनी जगह में हम सब शुभ के लिए कार्य कर रहे हैं। हम शुभ के लिए क्या कार्य किए, आप क्या कार्य किए - इसे सम्मलेन में परस्पर सुन कर हम उत्साहित होते हैं। अगले वर्ष पिछले वर्ष से ज्यादा शुभ के लिए कार्य करते हैं। इस ढंग से होते-होते हम यहाँ तक पहुंचे हैं।

यह जो इतनी बात आपको बताया, उसमें कुछ पूछना हो तो आपका स्वागत है।

सबको धन्यवाद! शुभाशीष! प्रणाम! और नमन!

- बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित (४ अक्टूबर २००९, हैदराबाद)

Tuesday, October 20, 2009

सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान, सह-अस्तित्व नित्य-प्रभावी - सम्मलेन २००९, हैदराबाद

मेरे बंधुओं!

अपने बंधुओं के बीच मैं स्वयं को पा करके सुख का अनुभव कर रहा हूँ। जो कुछ भी मैं आगे कहूँगा - वह मेरे सुख का अभिव्यक्ति है। आज यहाँ मुझे "सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान - सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी" - इस मुद्दे पर अपने अनुभव को प्रस्तुत करने को कहा गया है।

सह-अस्तित्व में हम सब हैं। सब कुछ - अणु, परमाणु, तृण, काष्ठ - सभी का सभी सह-अस्तित्व में है। इसको मैंने देखा है, समझा है, जिया है। इन तीनो भागों में किसी को भी शंका हो तो उसको आप मुझसे पूछ सकते हैं, समझ सकते हैं।

"सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है" - इसको मैंने देखा। अस्तित्व में एक व्यापक-वस्तु है। व्यापक-वस्तु को जड़-प्रकृति के लिए साम्य-ऊर्जा स्वरूप में मैं समझा। व्यापक वस्तु को ही मानव में मैं "ज्ञान" स्वरूप में समझा। साम्य-ऊर्जा सभी भौतिक-रासायनिक वस्तुओं को प्राप्त है। इसका प्रमाण है - सभी भौतिक-रासायनिक वस्तुएं क्रियाशील हैं। साम्य-ऊर्जा में भीगे रहने, संपृक्त रहने के आधार पर हर वस्तु ऊर्जा संपन्न है। उसके बाद जीव-संसार में यह ऊर्जा "जीने की आशा" के स्वरूप में प्राप्त है। उसके बाद मनुष्य में यह ऊर्जा "कल्पनाशीलता" के स्वरूप में प्राप्त है।

मनुष्य में कल्पनाशील होने के आधार पर "ज्ञानशील" होने का व्यवस्था बना हुआ है। हर मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वर्तमान है। कल्पनाशीलता के प्रयोग से ही हम "तदाकार-तद्रूप विधि" से ज्ञान-संपन्न होते हैं। ज्ञान-संपन्न होने का विधि यही है। आज तक जितने भी व्यक्ति ज्ञान-संपन्न हुए हैं, इसी विधि से हुए हैं। आगे ज्ञान-संपन्न होंगे तो भी इसी विधि से होंगे। ज्ञान-संपन्न होने का अवसर इसी तदाकार-तद्रूप विधि से है।

"ज्ञान-सम्पन्नता सह-अस्तित्व में ही होता है।" यह बात भौतिकवादी और आदर्शवादी दोनों विधियों से प्रकट नहीं हो पाया। उसी आधार पर इस प्रस्ताव को "विकल्प" कहा है। इस प्रस्ताव को "विकल्प" कहने का प्रयोजन इतना ही है, और कुछ नहीं है।

"सह-अस्तित्व ज्ञान मूल है" - यह बात आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों नहीं पकड़ा। जिसके प्रमाण में आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों द्वारा "मानव का अध्ययन" नहीं हुआ। मानव द्वारा "मानव का अध्ययन" न हो पाने की वजह से मानव द्वारा अपने मनोगत विधि से ही जीना बना। अभी एक ही मनुष्य एक ही दिन में अनेक स्वरूपों में जीता है। मनुष्य एक स्वरूप में सवेरे से शाम तक जी नहीं पाता है। इसको हम देख सकते हैं, समझ सकते हैं, अध्ययन कर सकते हैं। सह-अस्तित्व ज्ञान सम्पन्नता पूर्वक ही मनुष्य "एक निश्चित स्वरूप" में जी पाता है।

हर बच्चे में, हर बूढे में कल्पनाशीलता-कर्म-स्वतंत्रता "स्वत्व" के रूप में रखा है। मनुष्य ने कल्पनाशीलता के आधार पर कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग किया है। मनुष्य को अभी तक कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिन्दु प्राप्त नहीं हुआ, अध्ययन-गम्य नहीं हुआ, व्यवहार-गम्य नहीं हुआ, व्यवस्था-गम्य नहीं हुआ। इसी विसंगति के कारण एक ही व्यक्ति का एक दिन में अनेक स्वरूपों में जीना होता है। सह-अस्तित्व ज्ञान होने पर मनुष्य का "एक निश्चित स्वरूप" में जीना होता है।

अभी तक के इतिहास में मानव-परम्परा ने हमें क्या दिया फ़िर? इस प्रश्न का उत्तर है - अभी तक के मानव-इतिहास में विगत परम्परा ने हमें "भाषा" दिया और विज्ञानं ने हमे "तकनीकी" दिया। तकनीकी भी प्रचलित-विज्ञानं से कम मात्रा में आयी है, विगत परम्परा से ज्यादा मात्रा में आयी है। इस बात को हम ऐसे समझ सकते हैं - आहार, आवास, अलंकार संबन्धी वस्तुएं विगत-परम्परा से आयी हैं। दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन संबन्धी वस्तुएं प्रचलित-विज्ञानं से आयी हैं। विज्ञानं-विधा में एक तो सामान्य विधि से तकनीकी विकसित हुई, दूसरे - समाज की अपेक्षा के अनुसार तकनीकी विकसित हुई। तकनीकी जो विज्ञानं द्वारा विकसित हुई - प्रौद्योगिकी विधि से सर्व-सुलभ हो गयी - यह बात हमको समझ में आयी।

सह-अस्तित्व को मैंने "नित्य प्रभावी" स्वरूप में देखा। "नित्य प्रभावी" का मतलब है - नित्य प्रकटन-शील! सह-अस्तित्व नित्य प्रकट होता ही रहता है। सह-अस्तित्व कब तक प्रकट होता है? इसका उत्तर है - जब तक सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रकट न कर दे! सह-अस्तित्व का प्रतिरूप होने का मतलब है - अस्तित्व में प्रमाणित हो जाना। सह-अस्तित्व प्रकटनशील होने का प्रयोजन है - सह-अस्तित्व प्रमाणित हो जाए। इतनी ही बात है। मूल सिद्धांत इतना ही है। इस आधार पर सह-अस्तित्व के नित्य प्रकटनशील होने का प्रयोजन मुझको समझ में आया।  मनुष्य जागृत होने पर सह-अस्तित्व का प्रतिरूप है। सह-अस्तित्व ज्ञान को जी कर प्रमाणित करने वाला केवल मानव ही है।

सह-अस्तित्व ज्ञान में ही "जीवन-ज्ञान" समाहित है। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जीवन में दस क्रियाएं होती हैं। जिनमें से मानव भ्रम-वश ४.५ क्रिया में जीता है। शेष ५.५ क्रियाएं सुप्त रहते हैं। उन ५.५ क्रियाओं को व्यक्त करना ही "जागृति" है। ४.५ क्रिया में जीना ही "भ्रम" है। ऐसा मुझको समझ में आया।

भ्रम-वश मनुष्य व्यक्तिवाद और समुदायवाद में जीता है - व्यक्तिवाद "भोग" के लिए - और समुदाय-वाद "झगडा" (संघर्ष) करने के लिए! झगडे का कोई अंत नहीं होता। झगडे के लिए सामरिक-तंत्र को बुलंद बनाते-बनाते यह धरती बीमार हो गयी। धरती बीमार होने के बाद आदमी कहाँ रहेगा? कहाँ युद्ध करेगा? कहाँ संघर्ष करेगा? क्या कर लेगा?

अभी जैसे आपके स्कूल में भी जो संघर्ष (competition) करके जीत के आते हैं, उनको आप select करते हैं। इस तरह selection की विधि मानव को विभाजित किया। जो ज्यादा संघर्ष किया उसको हमने इसलिए select किया क्योंकि वह और ज्यादा संघर्ष कर सकता है, युद्ध कर सकता है, पैसा पैदा कर सकता है। "पैसा पैदा करने" के मूल में जाने पर पता चलता है - अपराध किए बिना या अपराध के लिए सहमति दिए बिना पैसा पैदा किया नहीं जा सकता।

अब क्या किया जाए? इसका उत्तर है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जिया जाए। समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने से सुविधा-संग्रह की प्रवृत्तियां विलय हो जाती हैं। इसको मैंने जी कर देखा है। मेरे पास संग्रह नहीं है - लेकिन मैं समृद्ध हूँ। मैं समृद्धि पूर्वक जीता हूँ, अपने बल-बूते पर मैं कहीं भी जाता हूँ, अपना काम पूरा करता हूँ। मेरी सारी समृद्धि की वस्तुएं शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के लिए हैं। समृद्धि के लिए वस्तुओं का उत्पादन आवश्यक है। ये वस्तुएं सामान्याकंक्षा (आहार, आवास, अलंकार) और महत्त्वाकांक्षा (दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन) संबन्धी होती हैं। इसमें से आहार, आवास, अलंकार संबन्धी वस्तुएं शरीर-पोषण और संरक्षण के अर्थ में हैं। समाज-गति के लिए दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन संबन्धी वस्तुओं का उपयोग किया जा सकता है। आहार, आवास, अलंकार संबन्धी वस्तुओं के उत्पादन करने में मैंने परिश्रम किया हुआ है। दूर-श्रवण, दूर-गमन, दूर-दर्शन संबन्धी वस्तुओं के उत्पादन को लेकर परिश्रम करने के लिए आप आगे परीक्षण कर सकते हैं।

सह-अस्तित्व में जीना = समुदाय-चेतना से छूट कर मानव-चेतना में परिवर्तित हो कर जीना। इसे "गुणात्मक परिवर्तन" कहा। यह गुणात्मक परिवर्तन नहीं होता है तो हम भ्रम-वश समुदाय-चेतना में ही रह जायेंगे, व्यक्तिवादी चेतना में ही रह जायेंगे।

व्यक्तिवादी चेतना का हसरत है - "भोग"!
समुदायवादी चेतना का हसरत है - "झगडा" या संघर्ष!

आज तक की व्यक्तिवादी/समुदायवादी चेतना का हसरत इतना ही है। हर समुदाय का हर व्यक्ति इस पर शोध करने के बाद, इसका मूल्यांकन करने के बाद, निर्णय लेने के बाद - यदि ऐसा ही पाता है तो सह-अस्तित्व स्वरूप में समाधान-समृद्धि पूर्वक जी कर उपकार करने की व्यवस्था बनी हुई है।

समाधान-समृद्धि पूर्वक जिए बिना मनुष्य उपकार करने वाला नहीं बन पायेगा। किसी के पास रोटी नहीं है, उसे रोटी दे दिया तो "उपकार" नहीं हो गया। रोटी दे देने से उसका पेट सदा के लिए तो भरता नहीं है। पुनः भूख लगता ही है। किसी के पास रोटी नहीं है, उसे नौकरी दे दिया तो भी "उपकार" नहीं हुआ। नौकरी से उसको हज़ार रोटी का पैसा दिया - जबकि उसको चाहिए थी तीन ही रोटी! उस पैसे से "भूख" तो नहीं मिटा। नौकरी से "सुविधा-संग्रह" का चक्कर शुरू हुआ। "सुविधा-संग्रह" का तृप्ति-बिन्दु मिलता नहीं है।

"सुविधा-संग्रह" से पहले लोग "भक्ति-विरक्ति" लक्ष्य पूर्वक जीने के पीछे भी गए। हमारे शास्त्रों में भक्ति-विरक्ति पूर्वक "साधना" करने की बात कही गयी है। ऐसे साधना करने वाले साधकों का संसार ने खूब सम्मान किया, पूजा किया, खाना खिलाया - सब कुछ किया। यह सब करने के बावजूद साधना से संसार को जो फल मिलना चाहिए था, वह मिला नहीं। साधना से संसार को जो फल मिलना चाहिए था, वह मिला नहीं! पुनः एक बार कहता हूँ - साधक संसार में हजारों हुए, लाखों हुए - पर उनकी साधना का फल संसार को मिला नहीं। इस बात पर अच्छे से शोध करना चाहिए - और शोध करके निर्णय लेना चाहिए। मैंने कह दिया और आप मान लें! - ऐसा मेरा मत नहीं है। मेरा मत है - मैंने जो अनुभव किया है उसको प्रस्तुत करना मेरा काम है। उसके बाद उसको शोध करना की उसकी उपयोगिता कितना है, प्रयोजन कितना है, कितना हमको करना है - यह हर व्यक्ति का काम है।

मानव-जाति ने सह-अस्तित्व में जीने से मुकर कर जीव-चेतना में जीकर सकल अपराधों को वैध माना। जिसके फलस्वरूप ही यह धरती बीमार हुई। धरती बीमार होने के बाद आदमी कहाँ रहेगा? इस स्थिति से निकलने के लिए आदमी का भ्रम-मुक्त और अपराध-मुक्त होना आवश्यक है।

भ्रम-मुक्त और अपराध-मुक्त होने की विधि क्या हो?

सह-अस्तित्व को भले प्रकार से अध्ययन किया जाए। सह-अस्तित्व में जीवन का अध्ययन किया जाए। सह-अस्तित्व में मानवीयता पूर्ण आचरण का भले प्रकार से अध्ययन किया जाए। मानवीयता पूर्ण आचरण के आधार पर हम "मानवीय आचार संहिता स्वरूपी संविधान" को पा सकते हैं। उसको मैं पूरा लिख चुका हूँ। उसको आप इच्छा हो तो देख सकते हैं।

मुझको समाधान पूर्वक सुख का अनुभव होता है - इसका मतलब मैं सत्य को समझा हूँ। इस प्रकार मैंने संसार को सत्य का प्रबोधन करना शुरू किया। इस पर कुछ लोग मुझे कहे - "तुम बहुत आशा-वादी हो!" इसके प्रतिवाद में मैंने उनसे पूछा - "आपने निराशावादी हो कर कौनसा पहाड़ तोड़ लिया?" इसका उनसे कोई उत्तर देना बना नहीं। अपने "आशावाद" के आधार पर जो प्रयत्न करना था - उसमें मैं लगा। इस प्रकार मेरे मार्ग में कई प्रकार के अवरोध, निंदा, स्तुति ये सब आते गए। मुझे न निंदा से मतलब है, न स्तुति से मतलब है। समझने से मतलब है, समझाने से मतलब है।

समझने-समझाने का मूल मुद्दा मैंने आपके सामने रखा। सह-अस्तित्व ज्ञान संपन्न हो कर सह-अस्तित्व में जीना ही हमारा लक्ष्य है। सह-अस्तित्व में पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था का इस धरती पर प्रकटन हुआ। ज्ञान-अवस्था में मानव ही है। सर्व-मानव ज्ञान-अवस्था में गण्य हैं। सर्व-मानव! कोई समुदाय-विशेष ही ज्ञान-अवस्था में हो - ऐसा नहीं है।

अनुसंधान पूर्वक जो पहचानना हुआ - उसको "शिक्षा विधि" से प्रस्तुत करने की कोशिश की। शिक्षा-विधि से प्रस्तुत करने के लिए एक "दर्शन" की आवश्यकता थी। जिसको "मध्यस्थ-दर्शन" नाम दिया। मध्यस्थ-दर्शन को विचार के स्तर पर "सह-अस्तित्व-वाद" कहा। सह-अस्तित्व-वाद के मूल में चिंतन को "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" कहा। इस ढंग से पूरी बात को प्रस्तुत किया है। यदि इच्छा हो तो आप इस प्रस्ताव को शैक्षणिक विधि से समझ सकते हैं। पूरा समझ कर - जीने दे कर जी सकते हैं।

पहले सूचना, फ़िर पठन, फ़िर अध्ययन, फ़िर जीने दे कर जी कर प्रमाणित करना - यही चरण हैं। "जीने दे कर जीना" - मानव, देव-मानव, दिव्य-मानव स्वरूप में जीना है। दिव्य-मानव स्वरूप में जीने से हम सर्वाधिक उपकारी होते हैं। समझे हुए को समझाना, सीखे हुए को सिखाना, करे हुए को कराना - उपकार है। समझना क्या है - सह-अस्तित्व को समझना है। फ़िर सह-अस्तित्व में जीने देना है और जीना है। किसे जीने देना है? - पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था को जीने देना है। अपने से पिछली अवस्थाओं को जीने दिए बिना हमारा जीना नहीं बनेगा। इस बात को मैंने अच्छी तरह से अनुभव किया है। इससे कम में आदमी का उपकार करना बनता नहीं है। इससे ज्यादा उपकार करना भी बनता नहीं है।

संबंधों की पहचान

सह-अस्तित्व में जीते समय संबंधों को पहचानने की बात होती है। मानव का मानव के साथ सम्बन्ध, और मानव का मानवेत्तर प्रकृति के साथ सम्बन्ध - इन दो तरह से संबंधों को पहचाना। मानवेत्तर प्रकृति के साथ सम्बन्ध को "उपयोगिता" और "कला" (सुन्दरता) मूल्य के आधार पर पहचानते हैं। मानव-मानव सम्बन्ध को जीवन-मूल्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) के आधार पर, मानव-मूल्य (धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करुणा) के आधार पर, स्थापित मूल्य (कृतज्ञता, गौरव, प्रेम, श्रद्धा, विश्वास, सम्मान, स्नेह, ममता, वात्सल्य) के आधार पर पहचानते हैं। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए हम सात मानव-संबंधों से पहचानते हैं। सातों संबंधों को इस प्रकार पहचान कर हम "समाज की रचना" को पहचानते हैं। इस पहचान के लिए यदि हम सटीक स्वरूप में अध्ययन करते हैं तो हम भागीदारी कर सकते हैं।

संबंधों को पहचानने का प्रयोजन है - सह-अस्तित्व में जीना। सह-अस्तित्व में जीने का अर्थ है - "जीने देना, जीना"। यह आवश्यक है या नहीं - आप सोचिये। हर व्यक्ति इस पर सोच सकता है, शोध कर सकता है। "जीने देना, जीना" विधि से हम अपराध-मुक्त हो सकते हैं - इस बात को मैंने अनुभव किया। यदि "जीने देना, जीना" में हस्तक्षेप करते हैं तो हिंसा के अलावा और कुछ होता नहीं है।

"सम्बन्ध" का परिभाषा दिया - पूर्णता के अर्थ में प्रतिज्ञा। पूर्णता के अर्थ में निर्वाह करने का नाम है - सम्बन्ध! पूर्णता क्या है - "क्रिया-पूर्णता" और "आचरण-पूर्णता"। इन दो पूर्णताओं की बात कही। इसके पहले गठन-पूर्णता पहले से जीवन में है ही। गठन-पूर्णता के आधार पर ही जीवन "अमर" है। जीवन-परमाणु में से कोई प्रस्थापन-विस्थापन होता नहीं है। परमाणु गठन-पूर्ण होने पर "जीवन-पद" में संक्रमित होता है। जीवन पद में संक्रमित होने पर - मध्य में एक क्रिया, प्रथम परिवेश में २ क्रिया, द्वितीय परिवेश में ८ क्रिया, तृतीय परिवेश में १८ क्रिया, और चतुर्थ परिवेश में ३२ क्रियाएं होती हैं। इसको अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। इसको जो समझना चाहें - वे अच्छी तरह से समझ सकते हैं।

क्रिया-पूर्णता होने पर मनुष्य का सह-अस्तित्व में जीना बनता है। जीने देकर जीना बनता है। इस तरह मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक जीना बनता है। मानव के साथ न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीना बनता है। इन ६ आयामों में जीने से हम "सामाजिक" हो पाते हैं। इससे कम में कोई सामाजिक होता ही नहीं है।

इस प्रकार हम "सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी, और सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान" के बारे में स्पष्ट होते हैं। इस स्पष्टता के अभाव में व्यक्तिवाद, समुदायवाद ही रहेगा। व्यक्तिवाद और समुदायवाद भोग के लिए, संघर्ष के लिए, और युद्ध के लिए ही है। इससे ज्यादा इनसे कुछ होता नहीं है। संघर्ष के साथ शोषण निश्चित है। आज जैसे एक देश दूसरे देश का शोषण करने का सोचता है, एक परिवार दूसरे परिवार का शोषण करने का सोचता है, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण करने का सोचता है - वह सब इस समझ से हर व्यक्ति में समाप्त हो जाता है। इस समझ के साथ "समाधान-समृद्धि" पूर्वक जीना बन जाता है।

समझदारी से समाधान मिलता है।
श्रम से समृद्धि मिलता है।

समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने के क्रम में हम व्यवस्था में जी पाते हैं।

सह-अस्तित्व में ही हम "अखंडता" और "सार्वभौमता" को अनुभव करते हैं।

अखंडता को अनुभव करने का मतलब है - "सर्व-मानव एक ही जाति है, सर्व-मानव एक ही धर्मी है" - इसको अनुभव करना।

जीवन में धर्म का व्यवस्था है। शरीर में रचना का व्यवस्था है।

जीवन के आधार पर "धर्म" की पहचान है। सर्व-मानव का एक ही धर्म है। मानव धर्म सुख है। सुख की चाहत से मनुष्य को अलग नहीं किया जा सकता। जीवन में जागृति पूर्वक सुख होता है।

शरीर-रचना के आधार पर "जाति" की पहचान है। सर्व-मानव एक ही जाति है। सभी मानवों में - चाहे वे गोरे हों, काले हों, भूरे हों - सभी में शरीर-रचना की वस्तुएं एक ही हैं। खून की प्रजातियाँ एक ही हैं। हड्डियों की रचना एक ही है। मांस-पेशियों की रचना एक सी हैं। रसों की व्यवस्था एक सी है। इन सब आधारों पर हम मानव को "एक जाति" के रूप में पहचान सकते हैं।

मानव के आहार, विहार, और व्यवहार को सुसंगत स्वरूप को इस तरह पहचाना जा सकता है, फ़िर जिया जा सकता है। इससे पहले आदर्शवाद और भौतिकवाद द्वारा मानव का अध्ययन नहीं हो पाया था। मानव का अध्ययन न हो पाने के कारण मानव मनमानी विधि से जीता रहा। मनमानी विधि से जीते हुए अपने संरक्षण के लिए समुदाय-रचना आवश्यक हो गयी। इस ढंग से हम फंस गए। सभी अपराधों को "विधि" मान लिए। अंततोगत्वा धरती बीमार होने पर हम पुनर्विचार के लिए बाध्य हो गए हैं।

"सार्वभौमता" से आशय है - चारों अवस्थाओं में संतुलन।

पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था में यदि निरंतर संतुलन बना रहता है - तो वह "सार्वभौमता" है। यदि इनमें संतुलन बना नहीं रहता है तो वह व्यवस्था नहीं है। यह आपको स्वीकार होता है या नहीं - मैं नहीं कह सकता। यह समझ में आता है तो यह मनुष्य को स्वीकार होता है - संतुलन के लिए मनुष्य को नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक ही जीना पड़ेगा। मनुष्येत्तर प्रकृति का "त्व सहित व्यवस्था" का स्वरूप जो बना हुआ है, वह मनुष्य ने नहीं बनाया है, वह सह-अस्तित्व स्वयं प्रकटनशील होने की विधि से बना हुआ है। मानव के नियम-नियंत्रण-संतुलन विधि से जीने से मनुष्येत्तर प्रकृति संतुलित रहता है। मानव के न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जीने से मानव-प्रकृति संतुलित रहता है। ऐसी सार्वभौमता की आवश्यकता है या नहीं - इसको हमें देखना होगा। इसके बाद इस प्रस्ताव के अध्ययन/शोध पूर्वक हम "उपकार" करने की स्थिति में आ जाते हैं।

मानव के सह-अस्तित्व में जीने के लिए "मानसिकता" में परिवर्तन एक मात्र आशा है। सह-अस्तित्व में जीना केवल "कार्य" में परिवर्तन-पूर्वक नहीं है। कोई यंत्र सह-अस्तित्व को प्रमाणित नहीं करेगा। सह-अस्तित्व को मनुष्य ही जागृति पूर्वक प्रमाणित कर सकता है।

सह-अस्तित्व में जीना नितांत आवश्यक है। सह-अस्तित्व में जीने के लिए पूरा समझना आवश्यक है। पूरा समझने की वस्तु सह-अस्तित्व ही है। सह-अस्तित्व में ही जीवन है। सह-अस्तित्व में ही मानवीयता पूर्ण आचरण है। सह-अस्तित्व में ही विवेक है। सह-अस्तित्व में ही विज्ञान है। सह-अस्तित्व को छोड़ कर हम कुछ भी सोच नहीं सकते।

यह सब मुझसे सुनने के बाद आपको जो कोई भी शंका हो, उसको आप मुझसे पूछ सकते हैं।

प्रश्न: मानव "सह-अस्तित्व का प्रतिरूप" हो जाए - इसका क्या अर्थ है?

उत्तर: "सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है" - यह ज्ञान होने पर मानव सह-अस्तित्व में जी सकता है। वही "सह-अस्तित्व का प्रतिरूप" का अर्थ है। सह-अस्तित्व ज्ञान से संपन्न होने का "अधिकार" मानव को है। मानव जब उस अधिकार का प्रयोग करता है, सह-अस्तित्व की प्रकटनशीलता को समझता है, तो उसके प्रमाण में सह-अस्तित्व में जीता है।

प्रश्न: "गरीबी-अमीरी में संतुलन" से क्या अर्थ है?

उत्तर: गरीबी-अमीरी में संतुलन समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने वाली परिवार-मूलक विधि से होता है। समझदारी से समाधान होता है। श्रम से समृद्धि होती है।

प्रश्न: अध्ययन के साथ "अनुकरण" की क्या भूमिका है?

उत्तर: प्रौढ़ व्यक्तियों को अनुकरण करने को कम कहा है। बच्चों के लिए ज्यादा कहा है। एक आयु के बाद व्यक्ति अपने को समझा हुआ मान लेता है। ऐसे व्यक्ति को समझाने के लिए यह मान कर चलते हैं - "थोड़ा समझाने के बाद वे विचार पूर्वक समझ जायेंगे"। उनका "सम्मान" यही है। यही "गंभीरता" भी है। "न्याय" भी यहाँ यही है।

बच्चों में अपने अभिभावकों का अनुकरण की बात सर्वाधिक है। भाषा का अनुकरण बच्चे करते ही हैं। कार्य, व्यवहार, और रहन-सहन का अनुकरण बच्चे करते ही हैं। अभी की स्थिति में "समझदारी" को लेकर अभिभावक अनुकरणीय नहीं बन पा रहे हैं। अभिभावकों को स्वयं समझदारी का पता नहीं है तो बच्चों को क्या अनुकरण करायेंगे। इसकी पूर्ति के लिए अभिभावकों को समझदार होना ही पड़ेगा।

किसका अनुकरण किया जाए? इसका उत्तर है - "मानवीयता पूर्ण आचरण" को प्रमाणित करने वाले व्यक्ति का (समाधान-समृद्धि पूर्वक जीते हुए व्यक्ति का) का अनुकरण किया जाए।

कब तक अनुकरण किया जाए? इसका उत्तर है - पूरा समझने तक, पूरा हृदयंगम होने तक, पूरा प्रमाणित होने तक। ऐसे अनुकरण करने से अध्ययन में मदद मिलती है।

अनुकरण करने का मतलब है - "मजबूरन" कुछ करना। "सही" को हम सहमति पूर्वक स्वीकार के अनुकरण कर सकते हैं। यदि हम "अपराध" के लिए सहमत हो कर उसका अनुकरण कर सकते हैं, तो "सही" के लिए सहमत हो कर अनुकरण करने में क्या तकलीफ है?

प्रश्न: समझने के लिए सुगमता का "आयु" से कोई सम्बन्ध है?

उत्तर: मेरे सर्वेक्षण के अनुसार - जागृति आगे की पीढी (बच्चे) के लिए बहुत सुगम है। युवा पीढी को उसकी तुलना में थोड़ा मुश्किल है। प्रौढ़ पीढी को काफी तकलीफ है। वृद्ध पीढी को महा-तकलीफ है। किसी आयु के बाद हम अपने को समझदार "मान" लेते हैं - इसलिए यह तकलीफ है।

प्रश्न: अध्यापक में क्या योग्यताएं आवश्यक हैं?

उत्तर: अध्यापक समझा हुआ, और समझदारी को प्रमाणित किया हुआ व्यक्ति होता है। समझदारी को मानव-चेतना विधि से प्रमाणित करता है। ऐसा व्यक्ति हर मानव-संतान को स्वीकार होता है। समझदारी से कम में कोई "अध्यापक" होता नहीं है। उससे पहले होता है वही - समस्या पैदा करने वाला। जीव-चेतना में जीने वाला अध्यापक समस्या के लिए ही आधार बनेगा, दूसरा कुछ भी नहीं। मानव-चेतना में जीने वाला अध्यापक समाधान का ही आधार बनेगा, दूसरा कुछ भी नहीं। जो आपकी इच्छा हो वही करिए।

मैंने आपको एक उदाहरण बिजनौर के एक स्कूल का दिया था। वहाँ पर विद्यार्थियों में जो मुखरण हुआ, उससे उनके माता-पिता और आगंतुक दोनों चकराए थे। उसके बाद अछोटी (रायपुर) के पास मुरमुंदा गाँव में भी वैसा ही हुआ था। उसके बारे में मैं थोड़ा और बताना चाहूंगा। मुरमुंदा गाँव के सरकारी स्कूल के अध्यापक - साहू जी - यहाँ हमारे बीच बैठे हुए हैं। वहाँ के बच्चों को यहाँ बैठे अंजनी अग्रवाल की पत्नी मीना जाकर संबोधित करती हैं। वह स्कूल शुरू होने के एक घंटा पहले वहाँ जाती हैं। जब वह वहाँ पहुँचती हैं तो बच्चे उनके लिए अघोरते हुए ही मिलते हैं। वहाँ एक दिन सरकारी अफसर ADI पहुँचा। उसने बच्चों से पूछा - "तुम हमसे क्या सीखना चाहते हो?" बच्चों ने कहा - हमको न्याय सिखाओ! यह सुन कर ADI चकराया। सुप्रीम कोर्ट तक में न्याय का अता-पता नहीं है! उसने वापस जा कर अपने अफसर को बताया, और बात कलेक्टर तक पहुँची। कलेक्टर ने स्वयं स्कूल आ कर देखा। उसने भी "न्याय" को लेकर बच्चों से वह प्रश्न सुना। उसने बच्चों से पूछा - "क्या तुम न्याय जानते हो?" बच्चों ने कहा - "हाँ, हम न्याय जानते हैं।" उसने फ़िर पूछा - "तुम किसके साथ न्याय करते हो?" बच्चों से उत्तर मिला - "हम अपने भाई-बहन, मित्रों, माता-पिता, और अध्यापकों के साथ न्याय करते हैं।" चक्रित हो कर उसने पूछा - "बाकी सब के साथ क्यों न्याय नहीं करते हो?" बच्चों ने कहा - "वह अभी हम सीखे नहीं हैं न! तुमको सीखना हो तो तुम अछोटी जा कर सीख लेना!" यह सुन कर कलेक्टर काफी प्रभावित हुआ - और तीन-हजार अध्यापकों को जीवन-विद्या का शिविर कराया। यह वहाँ की घटित घटना है।

प्रश्न: अध्यापक की भौतिक आवश्यकताएं कैसे पूरी होंगी?

उत्तर: समाधान पूर्वक जीने के क्रम में "समृद्धि" का उपाय निकलता है। मैं एक सामान्य परिवार का आदमी हूँ। मैं जब समाधान पा गया तो मुझसे समृद्धि का उपाय निकल गया। कृषि करता हूँ, गो-पालन करता हूँ, आयुर्वेद को मैं जानता हूँ, सामान्य औषधियों को पहचानता हूँ - उसके आधार पर चिकित्सा करता हूँ। इन तीन कामों को मैं करता हूँ। इनके चलते मेरा कोई काम रुका नहीं है। मैं हर जगह अपने हाथ पैरों से पहुँचता हूँ। मैं पराधीन नहीं हूँ।

भौतिक वस्तुओं के प्रयोजन को मैं इस तरह पहचाना हूँ - परिवार में जितने भी लोग रहते हैं, उनके शरीरों का पोषण, और संरक्षण (घर-बार), और उसके साथ 'समाज-गति' में भागीदारी करने के लिए भौतिक-साधनों की आवश्यकता होती है। समझदारी पूर्वक इस आवश्यकता का निश्चयन होता है। उस "निश्चित आवश्यकता" से अधिक उत्पादन कर लेने से मैं समृद्धि का अनुभव करता हूँ।

अभी पैसा इकठ्ठा करके आदमी क्या करता है, आप सब लोग वह जानते ही हैं। कुल मिला कर "भोग" और "संघर्ष" के लिए पैसा इकठ्ठा करता है। "स्वस्थ रहना चाहिए" - इस बात को अभी के समय में कहा जाता है। स्वस्थ क्यों रहना है? इसका उत्तर तलाशने जाते हैं तो वही है - "भोग" के लिए स्वस्थ रहना है, या "संघर्ष" के लिए स्वस्थ रहना है।

भोग और संघर्ष के लिए "पैसा इकठ्ठा करना" और "स्वस्थ रहना" सही है - या - "शरीर-पोषण, संरक्षण, समाज-गति के लिए श्रम पूर्वक उत्पादन करना" और "समाधानित रहना" सही है? - आप ही सोचिये! आप सोच कर अपने आप निर्णय लीजिये।

प्रश्न: समझदारी को प्रमाणित कौन करेगा? समाज या व्यक्ति?

उत्तर: समझदारी के बाद हर व्यक्ति - परिवार के रूप में "संस्कृति" और "सभ्यता" को वहन करता है; तथा सभा के रूप में "विधि" और "व्यवस्था" को वहन करता है। उसी के आधार पर "परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था" का प्रगटन है। "समझदार-परिवार" मानवीय सभ्यता और संस्कृति का वहन करता है। "समझदार परिवार-सभा" मानवीय विधि और व्यवस्था का वहन करता है।

परिवार ही पूरा प्रमाण का आधार है।


परिवार में प्रमाणित होने के बाद ही हम संसार में प्रमाणित होते हैं। इस तरह प्रमाणित होना हर समझदार-व्यक्ति का माद्दा है, अधिकार है, प्रवृत्ति है।

प्रश्न: अभी इतनी गरीबी, सामाजिक-असंतुलन के बीच खड़ा आदमी "स्वावलंबन" के बारे में कैसे काम करे?

उत्तर: आपकी बात को स्वीकारा जा सकता है। यह स्थिति व्यक्ति के साथ कब तक रहेगा? इसका उत्तर है - जब तक समझदार नहीं बनेगा, तब तक रहेगा। समझदार होने के बाद स्वावलंबी होने के लिए अपने आप जगह बनता है। मैंने आपको अपना उदाहरण बताया था। मैं कोई बहुत धनाढ्य व्यक्ति नहीं हूँ। भक्ति-विरक्ति विधि से मैंने साधना किया। भक्ति-विरक्ति में कोई संग्रह होता नहीं है। समाधान संपन्न होने के बाद मैंने तीन उपायों (कृषि, गो-पालन, और आयुर्वेद-चिकित्सा) को समृद्धि के लिए अपनाया। इन तीन के अलावा तीस और उपाय मेरे पास हैं, जिनको मैं क्रियान्वयन कर सकता हूँ। समाधान के बाद समृद्धि संपन्न होने का उपाय निकाल लेना हर व्यक्ति के माद्दे की बात है। बिना "समझ" के किसी के पास न साधन अनुकूल होता है, न परिस्थितयां। समझ या समाधान के बाद सारी परिस्थितयां अनुकूल होती हैं, जितना साधन होता है - वह आवश्यकता से अधिक होता है।

श्रम-शीलता हमारा प्रधान साधन है। अभी पैसे को "प्रधान साधन" मान रहे हैं। उसके स्थान पर यहाँ कह रहे हैं - हमारी श्रम-शीलता ही हमारा प्रधान साधन है। श्रम-शीलता सबके पास है। एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो श्रम-शीलता से रिक्त हो। गूंगे, लूले, लंगडे - सभी के पास श्रमशीलता रहता है।

देखिये - "बातें करने" से कुछ नहीं होता। "जीने" से होता है। बातें हम गाढा भर के कर सकते हैं - उससे कोई फायदा नहीं है। "जीने" से फायदा है। "जीना" समाधान के बिना होता नहीं! समाधान के बिना कोई "जी" ही नहीं सकता! यह मैंने देख लिया। अपराध कोई "जीना" नहीं है। अनर्थ कोई "जीना" नहीं है। झूठ बोलना कोई "जीना" नहीं है।

समाधान पूर्वक "जीना" है।
समृद्धि पूर्वक "जीना" है।
न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक "जीना" है।
नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक "जीना" है।

ऐसे जीने के लिए समझना ही पड़ेगा। मैंने समझने में २५-३० वर्ष लगाए। आप इसको समझने के लिए २५ हफ्ते तो लगाइए! २५ महीने तो लगाइए! २५ महीना तो आप लगा सकते हैं न? यदि लगायेंगे तो आप समझ जायेंगे। समझाने की व्यवस्था हमने कर दिया है।

प्रश्न: "मोक्ष" क्या है?

उत्तर: भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है। भ्रम मूलतः शरीर को जीवन मानना है। शरीर को जीवन मानने वाला जीवन ही है। जीवन ही जीवंत-शरीर में होने वाली संवेदनाओं के आधार पर ऐसा मान बैठता है। जीवन ही ऐसे बुद्धू बनता है। फलस्वरूप दुःख भोगता है। शरीर को जीवन मान लेना ही "भ्रम" है। भ्रम से मुक्त होना ही "मोक्ष" है। भ्रम मुक्ति = अतिव्याप्ति, अनाव्यप्ति, अव्याप्ति दोषों से मुक्त होना।

सबको धन्यवाद! शुभाशीष! प्रणाम! और नमन!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित (३ अक्टूबर २००९, हैदराबाद)

Tuesday, October 13, 2009

विकल्पात्मक अनुसन्धान से प्राप्त ज्ञान का शिक्षा में समावेश - सम्मलेन २००९, हैदराबाद

मेरे बंधुओं!

मैं स्वयं को आप सभी के बीच पा करके सुख का अनुभव कर रहा हूँ। बहुत दूर-दूर से आप आए हैं। बहुत ध्यान लगा कर एक दूसरे की बात समझ रहे हैं। कहीं न कहीं अन्तिम निष्कर्ष निकलेगा ही, ऐसा विश्वास करके मैं उत्सवित हूँ।

विकल्पात्मक अनुसंधान से प्राप्त ज्ञान शिक्षा में किस प्रकार पहुंचेगा? - उसको सुनने के लिए यहाँ इच्छा व्यक्त किया गया है। आप सब बहुत जिज्ञासा से इस बात को सुनना चाह रहे हैं, ऐसा मेरा स्वीकृति है।

मैं इस बात को बहुत अच्छी तरह से परखा हूँ, किसी आयु के बाद हर व्यक्ति - चाहे नर हो या नारी हो - अपने आप को "समझदार" मानता ही है। अभी तक की सोच से कुछ ऐसा निकलता है - "पैसा पैदा कर सकने वाला समझदार है। पैसा पैदा नहीं कर सकने वाला समझदार नहीं है।" इसके पहले "बलशाली" को समझदार मानते रहे। उसके पहले "रूपवान" को समझदार मानते रहे। "बल" और "रूप" के आधार पर समझदारी को पहचानने की कोशिशों को आदमी नकार चुका है। लेकिन ज्यादा "धन"और "पद" अर्जन करने वाले को ज्यादा समझदार आज भी मानते रहे हैं। "धन" और "पद" एक दूसरे के पूरक हो गए। पद से धन, और धन से पद मिलने की बात हो गयी। रूप, बल, पद, और धन के आधार पर हम समझदारी को पहचान नहीं पायेंगे। यह हमारा निष्कर्ष निकला। मानव-चेतना पूर्वक जीना समझदारी है - यह निष्कर्ष निकला।

मानव-चेतना को मानव-परम्परा में लाने के लिए मैंने शिक्षा विधि को शोध किया। शिक्षाविदों को समझाने का कोशिश किया। वह कोशिश होते-होते आज छत्तीसगढ़ राज्य शिक्षा संस्थान इस प्रस्ताव को अध्ययन करने के लिए तैयार हो गया। वह बुद्धि, समय, और साधन लगा कर अध्ययन कर रहा है। यह आपको सूचना देना चाहा।

इस अध्ययन की क्या वस्तु है?

इस अनुसंधान के फलस्वरूप "मानव व्यवहार दर्शन" नामक पुस्तिका तैयार हुआ - जिसको "शोध-ग्रन्थ" भी कह सकते हैं। मानव-व्यव्हार-दर्शन में मानव-चेतना विधि से व्यव्हार का क्या स्वरूप होता है? न्याय का क्या स्वरूप होता है? इसका वर्णन है। उसको अध्ययन कराते हैं। "मानव व्यवहार दर्शन" में मानव के कर्तव्य और दायित्व को तय किया। मानव का कर्तव्य और दायित्व तय होना ज़रूरी है या नहीं है - इस पर आप ही निर्णय लीजिये। यह निर्णय लेना हर व्यक्ति का अधिकार है।

"मानव कर्म दर्शन" में मानव के करने-योग्य और न करने-योग्य कर्मो का विभाजन होता है। इसकी भी आवश्यकता या अनावश्यकता पर आप अच्छे से विचार कर सकते हैं। यदि यह हमारी आवश्यकता बनता है तो उसके लिए हम तत्पर हो ही जाते हैं। जिसकी आवश्यकता हम स्वीकार नहीं करते, उसके लिए हम तत्पर नहीं हो पाते हैं।

"मानव अभ्यास दर्शन" में व्यवहार और व्यवसाय में अभ्यास कैसे करेंगे - इसका निर्धारण किया गया है।

"अनुभव दर्शन" में प्रमाणित होने के अधिकार को ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट किया गया है।

इन चारों भागों की आवश्यकता है या नहीं है - इसको सभी परिशीलन कर सकते हैं, समझ सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं।

दर्शन के बाद आता है - वाद। वाद में चारों अवस्थाओं के साथ कैसे हम जी पायेंगे - यह वर्णन किया है।

पहला - समाधानात्मक भौतिकवाद। भौतिक वस्तुएं कैसे समाधान के अर्थ में काम कर रहे हैं, इसका बोध कराते हैं।

दूसरा - व्यवहारात्मक जनवाद। मानव व्यव्हार में जागृति को कैसे प्रमाणित करता है, इसका बोध कराते हैं। मानव का व्यवहार मानव के साथ न्याय, धर्म, और सत्य पूर्वक होता है। मानव का व्यव्हार मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक होता है। इसको स्पष्ट किया है।

अनुभवात्मक अध्यात्मवाद में - अध्यात्म (व्यापक) में समाई सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति का हमको अनुभव होता है। फलस्वरूप मानव सह-अस्तित्व में सह-अस्तित्व को प्रमाणित करने वाला हो जाता है। पदार्थ न हो, केवल व्यापक वस्तु हो - उसका कोई अनुभव नहीं है। केवल पदार्थ हो, व्यापक न हो - तब भी मानव के अनुभव करने का कोई रास्ता नहीं है।

अनुभव के लिए प्रकृति और व्यापक वस्तु साथ-साथ में होना आवश्यक है। ज्ञान-अवस्था की प्रकृति ही व्यापक वस्तु को अनुभव करता है। फलस्वरूप परम-सत्य को प्रमाणित करता है। इसीको मैंने अनुभव किया है। उसी अनुभव के आधार पर ही पूरे बात को प्रस्तुत किया है।

उसके बाद आते हैं - "शास्त्र"। शास्त्र में पहला है - मानव संचेत्नावादी मनोविज्ञान। "चेतना" का मतलब है - ज्ञान। "संचेतना" का मतलब है - सत्य को प्रकट करने वाला ज्ञान। मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान में मानवीयता पूर्वक प्रमाणित होने वाले १२२ आचरणों को बताया गया है। इन आचरणों के आधार पर मानव व्यवस्था में जी पाता है।

व्यवहारवादी समाजशास्त्र में मानव-संचेतना के व्यव्हार में प्रमाणित होने की बात है।

आवर्तनशील अर्थशास्त्र में उत्पादन के लिए नियोजित होने वाले प्राकृतिक-ऐश्वर्य के स्त्रोत को बनाए रखते हुए उत्पादन और विनिमय व्यवस्था के स्वरूप को बताया गया है।

इन सब की आवश्यकता है या नहीं - इसको आप शोध कर सकते हैं, समझ सकते हैं, स्वीकार सकते हैं, नकार भी सकते हैं। जो आपकी "इच्छा" हो - आप वही करिए। आप यही स्वीकारो - ऐसा मेरा कोई "आग्रह" नहीं है। किंतु है ऐसा ही! - ऐसा बताने की "धृष्ठता" कर रहे हैं। या "साहस" कर रहे हैं। या "अनुग्रह" कर रहे हैं। इन तीन में से जो आप स्वीकारें - वही ठीक है।

इस ढंग से दर्शन, वाद, और शास्त्र का प्रयोजन स्पष्ट हुआ। अभी तक हमारे साथ जितने भी लोग अध्ययन किए हैं - इसकी अत्यन्त आवश्यकता है, ऐसा मान कर स्वीकारे हैं। आगे यहाँ कैसे होगा, और जगहों पर कैसे होगा, धरती पर और राज्यों पर कैसा होगा - इसको आगे भविष्य बतायेगा। अभी छत्तीसगढ़ राज्य में जो स्वीकृति बनी है, वहाँ कहने लगे हैं - "इस प्रस्ताव को समझे बिना कोई आदमी के स्वरूप में जी नहीं सकता।" इसको लेकर यहाँ भी प्रयोग हो सकता है। और जगह में भी प्रयोग हो सकता है।

मानव-संचेतना पूर्वक मानव मानव के साथ न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक प्रकट होता है और मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक प्रकट होता है। नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य - इन ६ भागों में हर समझदार व्यक्ति प्रकट होता है। इसमें कोई "झगडा" करने की जगह है या नहीं - इसको हर व्यक्ति शोध कर सकता है, हर व्यक्ति समझ सकता है, हर व्यक्ति जी सकता है, हर व्यक्ति प्रमाणित हो सकता है। यह ऐसा "इच्छा" होने पर ही सम्भव है। जीव-चेतना में ही जिसके जीने की इच्छा हो - तो वह इस बात पर ध्यान भी नहीं देगा, इसको करेगा भी नहीं। "इच्छा" हो तो - हर व्यक्ति इस प्रस्ताव को समझ कर, जी कर प्रमाणित कर सकते हैं। "इच्छा" हो तो - आप इसको देख सकते हैं, अध्ययन कर सकते हैं। मेरी स्वीकृति है - यहाँ हम जितने भी लोग हैं, वे समझने के अर्थ में ही एकत्र हुए हैं, समझा हुआ को प्रकट करने के अर्थ में ही एकत्र हुए हैं।

इस प्रकार दर्शन, विचार, और शास्त्र जो तैयार हुए उसको शिक्षा में देने का स्वरूप दिया - "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा"।

दर्शन, विचार, शास्त्र के साथ "मानवीय आचार संहिता स्वरूपी संविधान" लिख कर दिया। "मानवीयता पूर्ण आचरण" के स्वरूप के आधार पर यह संविधान लिखा। उसको भी आप लोग देख सकते हैं।

शिक्षा में इस विकल्पात्मक प्रस्ताव के "अध्ययन" की बात रहेगी।

अध्ययन का मतलब है - अधिष्ठान के साक्षी में, अर्थात अनुभव के साक्षी में स्मरण पूर्वक हम जो कुछ भी क्रिया करते हैं - वह सब का सब अध्ययन है।

अनुभव कहाँ रहता है? अध्ययन कराने वाले के पास रहता है। अध्ययन कराने वाले के अनुभव की रोशनी में हम जो कुछ भी सोचते हैं, समझते हैं, स्वीकारते हैं - वह सब का सब अध्ययन है।

अध्ययन कैसे कराते हैं?

यहाँ जितने भी लोग बैठे हैं, सभी को "पठन" करना आता है - ऐसा मैं मानता हूँ। पठन भर करने से काम नहीं चलता है। अध्ययन करना ज़रूरी है। अध्ययन के लिए प्रस्तावित किया है - हर शब्द का अर्थ होता है। अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। अस्तित्व में वस्तु को हम समझ लेते हैं, तो हमने अध्ययन किया। वस्तु का साक्षात्कार होने से हम अध्ययन किया। यदि वस्तु का साक्षात्कार नहीं हुआ - मतलब हमने अध्ययन नहीं किया। यह बात स्पष्ट हुआ। इस प्रकार हमने अध्ययन किया या नहीं किया - उसको हर दिन हम सोच सकते हैं, समझ सकते हैं, स्वीकार सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं।

यह कैसे होता है? कहाँ पर होता है? इसका उत्तर है - यह कल्पनाशीलता से होता है। हर व्यक्ति में - बच्चे से बूढे में कल्पनाशीलता समाई है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के योगफल में "तदाकार-तद्रूप विधि" आती है। तदाकार-तद्रूप विधि से मनुष्य द्वारा अस्तित्व में वस्तु को पहचानना बनता है। तदाकार विधि से मनुष्य में वस्तु की पहचान होती है। तद्रूप विधि से मनुष्य प्रमाणित होता है। तद्रूप विधि से प्रमाण आत्मा (गठन-पूर्ण परमाणु का मध्यांश) में अनुभव होने के बाद है। इस विधि से अध्ययन कराते हैं।

यह अध्ययन हर मानव-संतान को स्वीकार होता है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग बिजनौर में हुआ। वहाँ पाया - यह बात मानव-संतान को स्वीकार होता है। वहाँ अभिभावकों से हमने पूछा - "आप क्या चाहते हो, आपके बच्चे समझदार बन कर समझदारी पूर्वक जियें या नौकरी करें?" उसके उत्तर में ९०% अभिभावक कहे - "नौकरी करना चाहिए!" १०% लोग कहे - "नौकरी भी करना चाहिए, समझना भी चाहिए।"

उसके बाद अभी छत्तीसगढ़ में राज्य-शिक्षा के अधिकारियों और अध्यापकों के साथ हम एक कार्य-गोष्ठी किए। उस कार्य-गोष्ठी का मूल मुद्दा था - "वेतन-भोगी क्या वास्तविक रूप में प्रमाणित हो सकता है या नहीं?" इसका उत्तर मैंने दिया - वेतन-भोगी "प्रमाण" नहीं हो सकता। वेतन-भोगी दूसरा वेतन-भोगी को ही तैयार करेगा - दूसरा कुछ भी नहीं करेगा। प्रमाणित व्यक्ति ही प्रमाणित-व्यक्ति को तैयार करेगा। वेतन-भोगी "प्रेरक" हो सकता है। उस आधार पर वे लगभग १०० अध्यापक-गण वहाँ अध्ययन कर रहे हैं। उनको अध्ययन करते हुए २ महीना हो चुका है, तीसरा महीना पूरा होने वाला है। उनको अध्ययन कराने वाले दो व्यक्ति यहाँ इस सभा में ही बैठे हुए हैं।

मध्यस्थ-दर्शन के वांग्मय के मूल-प्रबंधों (दर्शन, वाद, शास्त्र) को स्नातक-कक्षा में पढाने का सोचा जा रहा है। उसके पहले दसवीं कक्षा तक पाठ्य-पुस्तकों को तैयार किया जा रहा है। कक्षा-१ से कक्षा-५ तक की पाठ्य-पुस्तकों को तैयार करके राज्य-शिक्षा को दे दिया है - जिसको वे छपवाने के काम में लगे हैं। अगले वर्ष तक वह प्रभाव-शील हो जायेगी। इस ढंग से इस प्रस्ताव को शिक्षा में समावेश करने की एक प्रक्रिया चल रही है, अध्ययन चल रहा है, कार्य चल रहा है, प्रयत्न चल रहा है।

यह तो बच्चों तक इस बात को पहुंचाने की बात थी। अब सवाल आता है - बड़े-बुजुर्गों का क्या करोगे? उनको भी तो इस शिक्षा की जरूरत है। उसका उत्तर है - "लोक शिक्षा"। इस पूरी बात को "लोक-शिक्षा" विधि से हम बड़े-बुजुर्गों को विदित करायेंगे। विदित कराने का कार्यक्रम अभी शुरू नहीं किए हैं। वह एक आवश्यकता है।

अभी जितना बात आपको बताया, उसमें कोई शंका हो - तो आप मुझसे पूछ सकते हैं। मध्यस्थ-दर्शन को शिक्षा के स्वरूप में प्रस्तुत करने की विधि के बारे में जो कुछ भी मैंने बताया - उसको लेकर कुछ भी शंका हो तो आप मुझसे पूछ सकते हैं।

प्रश्न: इस ज्ञान के अर्थ में शिक्षा कब तक सम्भव हो पायेगी?

उत्तर: समझने पर सम्भव हो पायेगी। ज्ञान के आधार पर हमको जीना है या नहीं जीना है - उसको तय करिए। जीव-चेतना में समस्या पूर्वक जीना होता है। मानव-चेतना में समाधान-पूर्वक जीना होता है। आपको कैसे जीना है? - आप सोचिये। जीव-चेतना में समस्या के अलावा कुछ होता नहीं। मानव-चेतना में समाधान के अलावा कुछ होता नहीं। जो करना है, वही करिए।

धरती का बीमार होना मानव की करतूत से हुआ या और कोई भूत किया? इसको भी सोचिये। यदि आपको यह स्वीकार होता है यह मानव ने किया - तो आप यह भी स्वीकार सकते हैं कि मानव ने जीव-चेतना वश यह अपराध किया। इस बात को स्वीकारना या नहीं स्वीकारना आपके हाथ में है। इसमें मेरा कोई "आग्रह" नहीं है। जैसा आपका विचार हो - वैसा ही करिए।

"कब तक, कितनी देर में समझेंगे" वाली बात के उत्तर में - यह सब सकल कुकर्म करने में जिसमें धरती को बरबाद किया, उसमें इतना दिन लगा है। अब इस प्रस्ताव को पूरी शिक्षा में समावेश होने में भी कुछ समय तो लगेगा।

प्रश्न: "अध्ययन" और "अध्यापन" को समझाइये।

उत्तर: अध्ययन और अध्यापन संयुक्त रूप में होता है। अध्ययन करने वाले और अध्यापन कराने वाले के योग में अध्ययन होता है। (अध्यापक के) अनुभव की रोशनी में विद्यार्थी जितनी भी समझने की प्रक्रिया करते हैं - उसका नाम है "अध्ययन"। उसके समर्थन में बताया - हर शब्द का अर्थ होता है। अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु का साक्षात्कार होने से हम अध्ययन किए।

अध्ययन "तदाकार-विधि" से होता है। तदाकार कैसे होता है? हर व्यक्ति के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता स्वत्व के रूप में रखा है। आज पैदा होने वाले बच्चे में भी, कल मरने वाले वृद्ध में भी। कल्पनाशीलता के प्रयोग से तदाकार होता है। चाहे जीव-चेतना में चोरी-डकैती का काम सिखाना हो - वह भी तदाकार विधि से सम्भव होता है। मानव-चेतना का न्याय-धर्म-सत्य समझाना हो - वह भी तदाकार-विधि से सम्भव होता है।

- बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित (२ अक्टूबर २००९, हैदराबाद)

Friday, October 9, 2009

अनुसन्धान क्यों, कैसे? - जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, २००९, हैदराबाद


मेरे बंधुओं!

सबको नमन, प्रणाम, आर्शीवाद देते हुए मैं आपसे अनुरोध करना चाह रहा हूँ - यह अनुसंधान क्यों और कैसे हुआ? उसके पहले मुझे यह भी बताने को कहा गया है - यथास्थिति से मुझे क्या परेशानी थी? मैं मानता हूँ, यहाँ पर जितने भी बंधू-जन उपस्थित हैं, वे ध्यान से सुनेंगे, और फ़िर अपने विचार व्यक्त करेंगे।

यथास्थिति यह है - "हम इस धरती पर जो आदमी-जात हैं, वे ज्ञानी, विज्ञानी, अथवा अज्ञानी में गण्य हैं।" यह मेरा कथन आप लोगों को कितना अनुकूल है, या प्रतिकूल है - यह आप आगे बताएँगे। हम ज्ञानी, विज्ञानी, और अज्ञानी मिल कर इस धरती पर जो कुछ भी किए - उसके फलन में पहले वन-सम्पदा समाप्त हो गयी, दूसरे - खनिज-सम्पदा समाप्त हो गयी। इन दोनों के समाप्त होने से यह धरती रहने योग्य नहीं बची - ऐसा विज्ञानी लोग कह रहे हैं। ये सब बात हम लोग सुनते ही हैं। इस पर आगे सोचने पर स्वयं-स्फूर्त रूप में यह बात आती है - हमने जो कुछ भी किए उससे यह धरती रहने-योग्य नहीं बची, अब यह रहने-योग्य बने उसके लिए भी कुछ सोचें!

धरती पर मनुष्य रहने योग्य कैसे बने - उसके लिए मैं अनुसंधान किया हूँ। मेरे अनुसंधान का उद्देश्य इतना ही है। इस अनुसंधान पूर्वक मैंने जो पाया, उसको स्पष्ट करने का कोशिश किया है। यह स्पष्ट हुआ या नहीं हुआ - यह आप ही लोग शोध करके बताएँगे। हर व्यक्ति को शोध करने का अधिकार है, समझने का अधिकार है, उस पर अपने विचारों को व्यक्त करने का अधिकार है। आज पैदा हुए बच्चे में यह अधिकार है, कल मरने वाले वृद्ध में भी यह अधिकार है।

प्रकारांतर से चलते हुए वर्तमान में हम मानव-जाति अपराध में फंस गए हैं। इससे पहले हमारे बुजुर्गों ने वेद-विचार में लिख कर दिया है - "भक्ति-विरक्ति में कल्याण है।" भौतिकवाद जब आया तो पहले से ही प्रलोभन से ग्रसित मनुष्य-जात "सुविधा-संग्रह" में फंस गया। सुविधा-संग्रह के चलते इस धरती से वन और खनिज दोनों समाप्त होते गए। वन और खनिज समाप्त होने से ऋतु-संतुलन प्रतिकूल होता गया। और धीरे-धीरे धरती बीमार हो गयी।

विज्ञानी यह बता रहे हैं - धरती का तापमान कुछ अंश और बढ़ जाने पर इस धरती पर आदमी रहेगा नहीं। सन १९५० से पहले यही विज्ञानी बताते रहे - यह धरती ठंडा हो रहा है। सन १९५० के बाद बताना शुरू किए - यह धरती गर्म हो रहा है। यह कैसे हो गया? इसका शोध करने पर पता चला - इस धरती पर सब देश मिल कर २००० से ३००० बार nuclear tests किए हैं। ये test इस धरती पर ही हुए हैं। इन tests से जो ऊष्मा जनित होते है - उसको नापा जाता है। यह जो ऊष्मा जनित हुआ, वह धरती में ही समाया या कहीं उड़ गया? यह पूछने पर पता चलता है - यह ऊष्मा धरती में ही समाया - जिससे धरती का ताप बढ़ गया। धरती को बुखार हो गया है। अब और कितना ताप बढेगा उसका प्रतीक्षा करने में विज्ञानी लगे हैं। इसके साथ एक और विपदा हुआ - प्रदूषण का छा जाना। ईंधन-अवशेष से प्रदूषण हुआ। इन दोनों विपदाओं से धरती पर मनुष्य रहेगा या नहीं - इस पर प्रश्न-चिन्ह लग गया है।

धरती को मनुष्य ने अपने न रहने योग्य बना दिया। मनुष्य को धरती पर रहने योग्य बनाने के लिए यह अनुसंधान है।

"न्याय पूर्वक जीने" की प्रवृत्ति मनुष्य में कैसे स्थापित हो - उसको मैंने अनुसंधान किया है। न्याय पूर्वक जीने में मैं स्वयं प्रवृत्त हूँ। न्याय किसके साथ होना है? मनुष्य के साथ होना है, और मनुष्येत्तर-प्रकृति के साथ होना है। इसके बारे में हम थोड़ा यहाँ बात-चीत करेंगे।

मैं स्वयं एक वेद-मूर्ति परिवार से हूँ। मेरे शरीर का आयु इस समय ९० वर्ष है। इन ९० वर्ष में से पहले ३० वर्ष मैंने अपने घर-परिवार की परम्परा के अनुसार ही काम किया। ३० वर्ष के बाद के ६० वर्ष मैं इस अनुसंधान को करने और उससे प्राप्त फल को मानव-जाति को अर्पित करने में लगाया हूँ।

यह अनुसंधान कैसे किया? - यह बात आती है। हमारे शास्त्रों में लिखा है - अज्ञात को ज्ञात करने के लिए समाधि एक मात्र स्थान है। उस पर विश्वास करते हुए, अमरकंटक को अनुकूल स्थान मानते हुए, मैं १९५० में अमरकंटक पहुँचा। अमरकंटक में मैंने साधना किया, और समाधि को देखा। समाधि को देखने पर पता चला - समाधि में कोई ज्ञान नहीं होता। समाधि में मैंने अपनी आशा, विचार, और इच्छा को चुप होते हुए देखा। एक-दो वर्ष तक मैंने समाधि की स्थिति को देखा - पर समाधि में ज्ञान नहीं हुआ।

उसके बाद समाधि का मूल्यांकन करने के क्रम में मैंने संयम किया - जिससे प्रकृति की हर वस्तु मेरे अध्ययन में आयी। अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व स्वरूप में है - यह बात मुझको बोध हुआ, ज्ञान हुआ, उसको जी कर के प्रमाणित करने की अर्हता आयी। ऐसे ज्ञान को जी कर के प्रमाणित करने में परस्परता में विश्वास होता है। जीने में ही विश्वास होता है, बस कहने मात्र से विश्वास नहीं होता। ऐसा मैंने स्वीकार किया। इस प्रकार जीते हुए लोगों तक इस बात को कैसे पहुंचाया जाए? इस पर सोचने पर शिक्षा-विधि द्वारा इसे प्रवाहित करने के उद्देश्य से वांग्मय तैयार किया।

अनुसंधान पूर्वक क्या उपलब्धि हुई? अनुसंधान की उपलब्धि है - समाधान। सभी आयामों, कोणों, परिपेक्ष्यों के लिए समाधान उपलब्ध हुआ। अनुसंधान पूर्वक मेरा स्वयं का अच्छी तरह समाधान-पूर्वक जीना बन गया। समाधान को जब प्रकाशित करने लगे तो लोगों को लगने लगा - हमको भी चाहिए, हमको भी चाहिए... ऐसा होते-होते हम यहाँ तक पहुंचे हैं।

समाधान के साथ यदि "समृद्धि" नहीं है तो हम प्रमाणित नहीं हो सकते - यह भी बात आया। समृद्धि का प्रयोजन है - शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज-गति। सम्पूर्ण भौतिक-वस्तुओं का मानवीयता पूर्वक नियोजन इन्ही तीन स्थितियों में है। विज्ञानं द्वारा हम दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन संबन्धी वस्तुओं को जो हम पाये - उनसे अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति दोष हो गया। जिस के पास नहीं है - उसके पास नहीं ही रहा। जिसके पास है - उसके पास बहुत ज्यादा हो गया। इसके रहते उत्पादन-कार्य का नियंत्रण नहीं रहा। उत्पादन अनियंत्रित होने के फलन में धरती बीमार हो गयी। आदमी के बने रहने पर प्रश्न-चिन्ह लग गया। धरती बीमार हो गयी तो आदमी कहाँ रहेगा? आगे पीढी कहाँ रहेगा? यह भी सोचने का मुद्दा है। केवल आदमी को ही अपराध-मुक्त होने की आवश्यकता है। अपराध-मुक्त होने के लिए आदमी को सह-अस्तित्व में जीने की आवश्यकता है। आदमी को तीनो अवस्थाओं के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक जीने की आवश्यकता है।

स्वयं में जो बोध हुआ, अनुभव हुआ - उसको जीने के क्रम में हम दूसरों को बोध कराते हैं। इसका हमने काफी अभ्यास किया - जिसके फलस्वरूप देश में दूर-दूर तक एक आवाज सुनाने योग्य तो हुए। इस बात की आवाज तो सुनने में आया है - इसमें तो कोई दो राय नहीं है। इसके बाद कुछ लोगों में इसको अध्ययन करने की इच्छा भी हुई है। अभी इस प्रस्ताव के अध्ययन में लगे ज्यादा से ज्यादा लोग रायपुर में हैं। छत्तीसगढ़ राज्य-शिक्षा के तीनो विभाग - व्यवस्था, प्रशिक्षण, और शोध - ये तीनो मिल कर अध्ययन कर रहे हैं। करीब १०० लोग अध्ययन कर रहे हैं। हर आदमी स्वयं को प्रमाणित करने का अधिकार रखता है। हर बच्चे, बड़े, बुजुर्ग - स्वयं को प्रमाणित करने के अधिकार से संपन्न हैं। यह स्वीकारते हुए इस प्रस्ताव की शिक्षा-पद्दति को हमने नाम दिया - "चेतना-विकास - मूल्य-शिक्षा"। "चेतना-विकास - मूल्य-शिक्षा" के लिए ये लोग अध्ययन कर रहे हैं, और स्वयं को प्रमाणित करने के लिए कटि-बद्ध हैं। यहाँ हैदराबाद में भी काफी विद्वान ऐसा सोचते होंगे। इन सबको ध्यान में रखते हुए इस प्रस्ताव की उपयोगिता हमको समझ आता गया। जैसे-जैसे उपयोगिता समझ आता गया - हमारा उत्साह भी बढ़ता गया! उत्साह बढ़ता गया तो मेरा स्वस्थ रहना भी बन गया। जल्दी शरीर त्यागने की आवश्यकता नहीं है, कुछ दिन और देख लें इसका क्या फल-परिणाम होता है। इस तरह ९० वर्ष व्यय्तीत हुए हैं। जब तक साँस चलती है, इस प्रस्ताव का क्या प्रयोजन सिद्ध होता है - यह देखा जा सकता है। आगे आप सब प्रयोजनों को देखने के लिए उम्मीदवार हो ही सकते हैं, प्रयत्नशील हो सकते हैं, प्रयोजनों को प्रमाणित कर सकते हैं।

इस अनुसंधान को करने में (समाधि-संयम में) हमने २५ वर्ष लगाए। अनुसंधान की उपलब्धि के अनुरूप अपने जीने के तौर-तरीके को बनाने में १० वर्ष लगाए। उसके बाद संसार को इस प्रस्ताव की ज़रूरत है या नहीं - इसका सर्वेक्षण करने में १० वर्ष लगाए। संसार को इस प्रस्ताव की ज़रूरत है - यह निर्णय होने पर सन २००० से इसको लोगों तक पहुँचाना शुरू किए। सन २००० से अभी तक कितना काम हुआ है - यह अभी आप इस सम्मलेन में देख ही रहे हैं।

मेरे अनुसंधान की उपयोगिता समझ आने पर मेरी आवाज में भी थोड़ा बल आया। इससे यह कहना बना - "अपराधों से सहमत हो कर हम इस धरती पर ज्यादा दिन रह नहीं पायेंगे।" दूसरी बात - "समझदारी से समाधान-संपन्न हो कर हम इस धरती पर चिरकाल तक रह सकते हैं।"
समझदारी के लिए अध्ययन के स्वरूप को हमने शिक्षा-विधि से प्रस्तुत किया है। इस प्रस्ताव के लोकव्यापीकरण में संलग्न विभूतियों का यह सोचना है - "जीवन-विद्या से शुरू किया जाए - और अध्ययन में प्रवृत्ति पैदा किया जाए।" जीवन-विद्या की भनक तो देश के सभी प्रान्तों में करीब-करीब पहुँच गया है। इस सम्मलेन में यह पता चलता है - किस प्रांत में कितनी भनक पडी। इस बात को हम दूर-दूर तक पहुंचाने के योग्य हुए। लोगों तक पहुंचाने के क्रम में हममें संतुष्टि बनी हुई है। इस संतुष्टि को व्यक्त करने के क्रम में यह सम्मलेन है। सम्मलेन में परस्पर-चर्चा से पता चलता है - संसार में इस अनुसंधान की ज़रूरत है, समझदारी की ज़रूरत है, समाधान की ज़रूरत है, समृद्धि की ज़रूरत है।

अब हम इस अनुसन्धान के प्रयोजन की बात करेंगे।

हर मनुष्य के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता पूंजी के रूप में है। हर बच्चे के पास है, हर बड़े के पास है, हर बुड्ढे के पास है - उसका वह प्रयोग कर सकता है। कल्पनाशीलता के आधार पर कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग मनुष्य ने आज तक किया है। इस कमरे का छत जो बना है - वह कल्पनाशीलता के आधार पर बना है। जहाँ हम बैठे हैं - वह स्थान कल्पनाशीलता के आधार पर बना है। जो गाडी में हम घुमते हैं, हवाई-जहाज से आकाश में घूमते हैं - वह कल्पनाशीलता के आधार पर बना है। कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम "सुविधा-संग्रह" को अपनाए हैं। हर मनुष्य पास यह कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता उपलब्ध है। जीवन और शरीर के योगफल में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होती है। मरे हुए आदमी में यह प्रकट नहीं होती है। जीवन हो पर शरीर न हो - तब भी यह प्रकट नहीं होगी। शरीर हो पर जीवन न हो - तब भी यह प्रकट नहीं होगी।
कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता कैसे आ गया? "सह-अस्तित्व नित्य प्रकटन-शील है" - इस सिद्धांत पर यह आधारित है। सह-अस्तित्व नित्य प्रकटन-शील होने से अपने प्रतिरूप को मानव-स्वरूप में प्रस्तुत कर दिया। धरती पर प्रकट होने के बाद मानव अपराधी हो गया। मुख्य बात इतना ही है। चोट की बात इतना ही है। इस चोट की बात को ध्यान में लाने पर हम अच्छी तरह से समझ सकते हैं - मानव-जाति का अपराध-मुक्त होना नितांत आवश्यक है।

यह बात बच्चे भी समझ सकते हैं, बड़े भी समझ सकते हैं। बिजनौर में एक स्कूल में इस बात को लेकर हमने एक प्रयोग किया - जिससे बच्चों में जो गुण प्रकट हुए, उससे बड़े-बुजुर्ग भी अपनी आदतों को सुधारने लगे। बच्चों के मुखरण से वहाँ के आगंतुक भी बहुत विस्मित हुए। वह स्कूल आगे चल नहीं पाया - क्योंकि जिस व्यक्ति ने जमीन दी थी, उसने वापिस ले ली। उसके बाद अछोटी के पास गाँव के स्कूल में प्रयोग किया तो वैसे ही विद्यार्थियों में मुखरण हुआ। वह मुखरण छत्तीसगढ़ शासन की दृष्टि में आ गया। यह शासन के ध्यान-आकर्षण होने का आधार बन गया। जिसके फलस्वरूप ३०००-४००० अध्यापकों के लिए ३ दिन का गोष्ठी हुआ। यह घटना आप के दृष्टिकोण के लिए ध्यान में ला सकते हैं। इतना दूर तो हम आ चुके हैं। पर आगे इसकी सम्भावना बहुत लम्बी-चौड़ी हैं।

"हर मानव सुधर सकता है." - यह इस बात से पहली सम्भावना है। हर मानव सुधर कर अपने सुधार को प्रमाणित कर सकता है। इस सम्भावना के विस्तार को क्या नापा जा सकता है? हर मनुष्य के सुधरने पर क्या होगा? जैसे हर गाय अपने वंश के अनुसार गायत्व के साथ व्यवस्था में जीता है... जैसे हर वृक्ष अपने बीज के अनुसार वृक्षत्व के साथ व्यवस्था में रहता है... उसके पूर्व जैसे हर पदार्थ परिणाम के अनुसार अपने त्व सहित व्यवस्था में रहता है... उसी प्रकार मानव सुधरने के बाद मानवत्व सहित व्यवस्था में जी सकता है।

इस अनुसंधान पूर्वक "मानव का अध्ययन" सम्भव हो गया है। अभी तक "मानव का अध्ययन" शून्य था। "मानव का अध्ययन" छोड़ कर आदर्शवाद भागा, और भौतिकवाद भी भाग ही रहा है। आदर्शवाद और भौतिकवाद मानव का अध्ययन नहीं करा पाये। यह अभिशाप मानव-जाति पर लगा हुआ है। मानव का अध्ययन न होने से मनमानी विचार-धाराएं निकली, मनमानी व्यवस्थाएं निकली। एक ही परिवार में बीस मतभेद निकले। इस तरह नर-नारियों में समानता का रास्ता नहीं निकला, दूसरे - अमीरी-गरीबी में संतुलन नहीं बन पाया। गरीब और ज्यादा गरीब होते गए। अमीर और अमीर होते गए। नर-नारियों में समानता और अमीरी-गरीबी में संतुलन के लिए "अच्छे" ढंग से भी जो प्रयोग हुए, "बुरे" ढंग से भी जो प्रयोग हुए - दोनों बुरे में ही अंत हुए। इस तरह मानव-जाति के उद्धार का रास्ता बना नहीं। अब इस अनुसन्धान पूर्वक नर-नारियों में समानता का भी सूत्र निकलता है, अमीरी-गरीबी में संतुलन का भी सूत्र निकलता है।

नर-नारियों में समानता समझदारी के आधार पर आता है। हर नर-नारी में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता रखा हुआ है, उसके आधार पर हर नर-नारी समझदारी को अपना सकते हैं। शरीर (रूप) के आधार पर नर-नारी में समानता होगा नहीं। रूप शरीर के साथ है, समझदारी जीवन के साथ है। धन सबके पास समान रूप में हो नहीं सकता। धन के आधार पर नर-नारियों में समानता होगा नहीं। पद सबको मिल नहीं सकता। पद के आधार पर नर-नारियों में समानता होगा नहीं। तलवार और बन्दूक (बल) के आधार पर नर-नारियो में समानता होगा नहीं। तलवार और बन्दूक सभी चला नहीं सकते। नर-नारियो में समानता समझदारी के आधार पर ही सम्भव है। हर नर-नारी समझदार हो सकते हैं।

हमारे देश में आदर्शवादी ज्ञान को स्पष्ट करना चाहते रहे - पर वह स्पष्ट नहीं हो पाया। या कहीं न कहीं उनका पतन हुआ है। या तो वे पूरी बात पाये नहीं, या बीच में पंडितों पुरोहितों के हाथ विकृत हो गया हो - यह हो सकता है। दोनों में से कुछ भी हुआ हो - समझदारी मानव-परम्परा में आया नहीं है। मनुष्य में चाहत समझदारी का ही रहा है। अभी यहाँ जितने भी लोग बैठे हैं, नहीं बैठे हैं - सबमें समझदारी की चाहत बनी हुई है। मेरे अनुसार हर व्यक्ति समझदार होना चाहता है - उसके लिए अवसर पैदा किया जाए। वस्तु से समृद्ध होने के लिए अवसर पैदा किया जाए।

"नर नारियों में समानता" और "अमीरी गरीबी में संतुलन" होने पर हम इस धरती पर अनादि काल तक रह सकते हैं।

मानव द्वारा धरती के साथ अपराध प्रधान रूप से खनिज-कोयला, खनिज-तेल, और विकीरणीय धातुओं का अपहरण करने से हुआ है। इन तीन वस्तुओं के अपहरण करने से धरती असंतुलित हुई है। विकीरणीय धातुओं का प्रयोग ही ३००० बार nuclear tests करने में किया गया है। उससे जनित भीषण ताप धरती में ही समाया है। फलस्वरूप धरती बीमार हो गयी। धरती यदि स्वस्थ रहेगा तभी मानव स्वस्थ रूप में कुछ कर सकता है। धरती ही स्वस्थ नहीं रहेगा तो मानव क्या कर लेगा? कहाँ करेगा? इसको सोच कर के तय करना पड़ेगा। हमको धरती को संतुलित रख कर जीना है या नहीं? यदि जीना है तो अपराध-प्रवृत्ति से मुक्त होना आवश्यक है।

संवेदनाओं के पीछे पागल होना ही अपराध-प्रवृत्ति में फँसना है। संवेदनाओं को संतुष्टि देने के पीछे हम दौड़ते हैं तो अपराध के अलावा कुछ होगा नहीं। समझदारी पूर्वक यदि दौड़ते हैं तो समाधान के अलावा कुछ होगा नहीं।

रायपुर में २०-२५ धनाढ्य परिवारों की नारियों की सभा में पूछा गया - नर-नारियों को संवेदनाओं को तृप्त करने के लिए दौड़ना जरूरी है - या संवेदनाओं को नियंत्रित करना जरूरी है? ढाई घंटा चर्चा करने पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला - "यदि संवेदनाओं के पीछे ही हम दौड़ते हैं तो हम जानवरों से अधिक कुछ नहीं हैं। संवेदनाओं को नियंत्रित करके ही हम मानव बन सकते हैं।" यह हर व्यक्ति स्वयं में निरीक्षण कर सकता है - हम कितना संवेदनाओं के पीछे लट्टू हैं, हमारी संवेदनाएं कितनी नियंत्रित हैं। हर नर-नारी यह परीक्षण कर सकते हैं, और उसके आधार पर अपने बच्चों को उदबोधन कर सकते हैं।

संवेदनाओं को तृप्त करने के लिए हम कितना भी काम करें - वे तृप्त होती नहीं हैं। इस तरह काम करने से केवल अपराध होता है। मनुष्य स्वयं में तृप्ति पूर्वक समाधान को प्रमाणित करता है। मनुष्य स्वयं में अतृप्ति पूर्वक अपराध को प्रमाणित करता है।
हमको तृप्त रहना है, या अतृप्त रहना है - इसको हमें तय करना है। हम सब यही तय करने के लिए यहाँ एकत्र हुए हैं। संवेदनाओं को तृप्त करने में लगे रहना है, या संवेदनाओं को नियंत्रित करना है? इसको तय करने के लिए हम यहाँ हैं।

"संवेदनाओं को नियंत्रित करना है" - वहीं से "विकल्प" के अध्ययन की ज़रूरत पड़ती है।

यह प्रस्ताव आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों का "विकल्प" है।

आदर्शवाद शुरू भी "रहस्य" से करता है, और उसका अंत भी "रहस्य" में ही है। दूसरे - भौतिकवाद से "सुविधा-संग्रह" ही जीने का लक्ष्य बनता है। सुविधा-संग्रह का कोई तृप्ति बिन्दु होता नहीं है। कितनी भी सुविधा पैदा करें, और सुविधा पैदा करने की जगह बना ही रहता है। कितना भी संग्रह करें, और आगे की संख्या रखा ही रहता है।

विकल्प विधि से सोचने पर यह निकलता है - "मानव-लक्ष्य समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व है।"

हमें "सुविधा-संग्रह" के पीछे ही लगे रहना है, या "समाधान-समृद्धि" की ओर चलना है - यह हमको निर्णय करना है।

संवेदनाओं को तृप्त करने के लिए दौड़ते ही रहना है, या संवेदनाओं को नियंत्रित रखना है - यह हमको निर्णय करना है।

समाधान-समृद्धि की ओर चलना है, और संवेदनाओं को नियंत्रित रखना है तो उसके लिए "समझदारी" अवश्यम्भावी है। "समझदारी" का मतलब है - सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व को समझना और सह-अस्तित्व स्वरूप में जीना।

सह-अस्तित्व स्वरूप में जीने में हमारे न्याय-पूर्वक जीने की बात बनती है। न्याय पूर्वक जीने में किसी का किसी पर "आरोप", किसी की किसी से "शिकायत", किसी की किसी पर "आपत्ति" बनता नहीं है। सह-अस्तित्व विधि को छोड़ कर यदि हम व्यक्तिवादी/समुदायावादी विधि से जीने के बारे में सोचते हैं, तो समस्याएं तैयार हो जाती हैं। मानव मानवीयता पूर्वक जीने से व्यक्तिवादिता से मुक्त होता है। चेतना-विकास को जब समझते हैं, जीते हैं तो व्यक्तिवाद/समुदायवाद दोनों से मुक्त हो जाते हैं। चेतना-विकास को समझने और जीने का प्रमाण मैं स्वयं हूँ। ऐसे प्रमाणों का जो सत्यापन प्रस्तुत करेंगे - उन पर आप विश्वास कर सकते हैं।

इतना कह कर मैं आपको आर्शीवाद और नमन करूंगा। आप सभी शुभ चाहते हैं - इसलिए आपको नमन! आप सभी का शुभ के लिए प्रण सफल हो - उसके लिए आर्शीवाद! इतना सब कहने के बाद इस कहे पर आपको जो भी पूछना है - उसका मैं स्वागत करूंगा। आपके प्रश्नों का उत्तर मेरे पास है। धरती पर जो कुछ भी समस्या है - उसका उत्तर मेरे पास है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा का उदबोधन (१ अक्टूबर २००९, हैदराबाद)