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Tuesday, October 27, 2009

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का स्त्रोत क्या है, क्यों है, और कैसा है?

कल्पनाशीलता के साथ कर्म-स्वतंत्रता हर नर-नारी में, से, के लिए "स्वाभाविक रूप" में है। "स्वाभाविक" का मतलब - "नियति-सहजता" से है। "नियति-सहजता" का मतलब - सह-अस्तित्व में प्रकटन क्रम में जो विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति है उससे मानव-परम्परा धरती पर प्रकट हुई। मानव-परम्परा में शरीर-रचना की मौलिकता में यह पाया गया कि जीवन-सहज कल्पनाशीलता - शरीर और जीवन के संयुक्त स्वरूप में प्रकट होता हुआ देखने को मिलता है। मानव-परम्परा शरीर और जीवन के संयुक्त साकार रूप में प्रकट होता हुआ देखने को मिलता है। हर नर-नारी में, से, के लिए जीवन का स्वरूप, जीवन का कार्य, जीवन का प्रयोजन समान होना अध्ययन-गम्य है। यह अध्ययन "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" क्रम में प्रकट और प्रमाणित है।

मानव आदिकाल से - मैं कौन हूँ? कैसा हूँ? और क्यों हूँ? इन प्रश्नों के उत्तर पाने का इच्छुक रहा है। इन प्रश्नों का उत्तर "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" के प्रकट और प्रमाणित होने से स्पष्ट रूप में सूचित करना सम्भव हो गया है। मैं कौन हूँ? मैं कैसा हूँ? और मैं क्यों हूँ? - इन प्रश्नों को लेकर मानव निरुत्तरित होता हुआ देखा जाता है। इनका उत्तर प्रस्तुत करना अब सुलभ हो गया है।

कल्पनाशीलता का स्त्रोत "जीवन" है। जीवन कहाँ से आया? इस प्रश्न का उत्तर सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में परमाणु में विकास-क्रम, और विकास होना स्पष्टतः समझ में आया है। हर परमाणु एक निश्चित गठन होता है। हर गठन में दो या दो से अधिक परमाणु-अंशों का होना समझ में आता है। इसी क्रम में परमाणुओं का "भूखे" और "अजीर्ण" होना भी समझ में आता है। "भूखा" और "अजीर्ण" भाषा मानव-संवेदना से जुडी अवश्य है। मानव ही समझने वाला इकाई है, इसलिए मानव-संवेदना से जुडी भाषा है। परमाणुओं के गठन-क्रम में परमाणु का "तृप्त" होना या "गठन-पूर्णता" होना भी समझ में आता है। ऐसे "गठन-पूर्ण" परमाणु का चैतन्य इकाई के रूप में जीवन-पद प्रतिष्ठा में वैभवित होना, अथवा प्रभावित होना पाया गया। जीवन के "प्रभावित" होने का माध्यम शरीर ही रहा। इसका सिद्धांत यही है - "अधिक शक्ति और बल, कम शक्ति और बल के माध्यम से प्रमाणित होना पाया जाता है।" जीवन गठन-पूर्णता के आधार पर अक्षय-बल और अक्षय-शक्ति संपन्न है, "परिमाम का अमरत्व" सहज वैभव है। शरीर एक भौतिक-रासायनिक रचना है - जो सह-अस्तित्व में प्रकटन विधि से धरती पर प्रकट है। शरीर जीवन की तुलना में कम बल और शक्ति संपन्न है। इसलिए जीवन शरीर के माध्यम से प्रमाणित होता है।

मानव अपने कल्पनाशीलता को कर्म-स्वतंत्रता में परिवर्तित करता रहता है। कर्म-स्वतंत्रता मानव-परम्परा में प्रमाणित होती है। मानव-चेतना पूर्वक जीवन-सहज कल्पनाशीलता और मानव-सहज कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु स्पष्ट होता है। जीवन-सहज कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिन्दु जीवन-लक्ष्य - सुख, शान्ति, संतोष, आनंद - के स्वरूप में है। मानव-सहज कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु मानव-लक्ष्य - समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व - के स्वरूप में है। मानव-लक्ष्य प्रमाणित होता है तो जीवन-लक्ष्य भी प्रमाणित होता है। जीवन-लक्ष्य प्रमाणित होता है तो मानव-लक्ष्य भी प्रमाणित होता है। जीवन-लक्ष्य मानव-परम्परा में प्रमाणित होना अवश्यम्भावी है, क्योंकि मानव-परम्परा जीव-चेतना वश अनेक प्रकार से अपराध करने में प्रवृत्त हो चुका है। इसकी गवाही धरती के बीमार होने के रूप में प्रस्तुत है। जीवन-सहज जागृति मानव-परम्परा में ही प्रमाणित होती है। जिसके फलन में मानव का चारों अवस्थाओं के साथ संतुलन पूर्वक जीना, न्याय-धर्म-सत्य का प्रमाणित हो पाना, मानव-परम्परा में, से, के लिए एक महिमा-संपन्न वैभव है। महिमा-सम्पन्नता का तात्पर्य "अपराध मुक्त परम्परा" से है। यह सब कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु को पाने के क्रम में शोध और अनुसंधान पूर्वक अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुआ।

अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व स्वरूप में होना, सह-अस्तित्व स्वयं व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तु के रूप में होना स्पष्ट हुआ है। यह समाधि-संयम विधि से अनुसंधानित एवं प्रकाशित तथ्य है। समाधि-संयम का एक झलक ऋषि-कुल परम्परा में "वेद" और "वेदान्त" नाम से श्रुति और स्मृति के रूप में वांग्मय प्रस्तुत है। जिसके कथन के अनुसार - "ज्ञान सर्वोपरि सम्पदा है।" साथ में यह भी प्रतिपादित है - "ज्ञान ही ज्ञाता भी है।" और "ज्ञान ही ज्ञेय भी है।" ऐसा इन ग्रंथों में कहा गया है। ऐसे गहन, गूढ़, और गंभीर रहस्यमय शब्दों के साथ उपदेश-परम्परा में यह इंगित किया गया है - धारणा, ध्यान, और समाधि पूर्वक ही अज्ञात ज्ञात होना बताया गया है। इस उपदेश को साधना-विधि से अन्तिम-निर्णय पाने के उद्देश्य से लेखक स्वयं उद्यत हुए, और उसमें सफल हो गए। इस क्रम में सत्यापन यही है - "समाधि में कोई ज्ञान नहीं हुआ।" संयम विधि से सम्पूर्ण अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूप में अनुभव हुआ, फल-स्वरूप उसका व्याख्या करना सुगम हो गया।

इस प्रकार कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का स्त्रोत समझने के साथ-साथ इनकी "सार्थकता" भी समझ में आया। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता की सार्थकता मानव-चेतना पूर्वक मनः-स्वस्थता को प्रमाणित करने में है। मनः स्वस्थता अभ्युदय या सर्वतोमुखी-समाधान के स्वरूप में है। इसके फलन में सम्पूर्ण मानव जाति को "अखंड-समाज" के रूप में पहचानना बनता है। इसी विधि से "सार्वभौम व्यवस्था" का स्वरूप स्पष्ट है। यह इस बात का उत्तर है - कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता "क्यों" है? "अखंड-समाज" और "सार्वभौम-व्यवस्था" को प्रमाणित करने के लिए कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है।

परिवार में हर सदस्य का समझदार होना, फलस्वरूप समाधान-संपन्न होना, और श्रम-पूर्वक समृद्धि-संपन्न होना आवश्यक है। समाधान-समृद्धि पूर्वक ही हर परिवार "उपकार प्रवृत्ति" में होना पाया जाता है। इस प्रकार "सार्वभौम व्यवस्था" का १० सोपानीय स्वरूप निकलता है। इस तरह "कैसा" प्रश्न का उत्तर मिलता है। सार्वभौम व्यवस्था के १० सोपानीय स्वरूप को हम अगले प्रसंग में देखेंगे।

- बाबा श्री नागराज शर्मा, अप्रैल २००६, अमरकंटक

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