मानव में स्मृति और कल्पनाशीलता का स्त्रोत और प्रक्रिया को समझने के लिए अपेक्षा बनी रहती है। इसका मूल कारण हर मानव में - चाहे बच्चे हों, बूढे हों, नर हों, नारी हों - कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वर्तमान रहना पाया जाता है।
मानव अपने कल्पनाशीलता को कर्मस्वतंत्रता में परिवर्तित करता रहता है। मानव अपने शरीर के साथ ही कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता को प्रयोग करता दिखाई पड़ता है।
मानव के अध्ययन से पता चलता है - मानव अपनी आंखों से जो देखता है उससे अधिक समझता हुआ स्पष्ट आंकलित होता है। हर "रूप" में आकार, आयतन, घन समाहित रहता है। आंखों पर सामने वस्तु के रूप का १८० अंश तक ही आकार-आयतन प्रतिबिंबित होता है। शेष १८० अंश ओझिल रहता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आकार आयतन का पूरा स्वरूप आंखों में आता नहीं है। इसी के साथ "घन" का स्वरूप आंखों तक पहुँचता ही नहीं है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मानव का अध्ययन करते हैं तो हमको पता चलता है - समझने का पक्ष हर मानव में सक्रिय रहता ही है। इसी क्रम में मानव गणितीय विधि से आकार, आयतन, और घन को समझ पाता है। यह प्रक्रिया हर मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता की बदौलत है।
अब यह भी स्पष्ट होना आवश्यक है कि - समझने वाली चीज क्या है? पाँचों ज्ञान-इन्द्रियों में - यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों में - किसी एक वस्तु का "सम्पूर्णता" पहुँच नहीं पाता है। "सम्पूर्णता" को समझने की अपेक्षा मनुष्य में बना ही रहता है। सुदूर विगत से ही मानव घटनाओं को पहचानने का प्रयास करते ही आया है।
मनुष्य ने अपने इतिहास में - "कारण" के आधार पर, "गुण" के आधार पर, और "गणित" के आधार पर घटनाओं को पहचानने का प्रयास किया है। विगत में अध्यात्मवादियों ने ईश्वर को "मूल कारण" के रूप में भाषा में प्रस्तुत किया। उसके बाद अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए ईश्वर का बहुत-कुछ गुणगान किया। अभी तक आदर्शवादी लोग शिक्षा-जगत में ईश्वरीयता को अथवा ईश्वर को "मूल कारण" के रूप में पहचानने की व्यवस्था दे नहीं पाये। इस गवाही से यह स्पष्ट होता है, इस सोच-विचार का गम्य-स्थली अधूरा रहा।
दूसरा प्रयास इस रूप में हुआ - जिसमें कहा गया ईश्वर देवी-देवताओं के रूप में महिमा, लीला, और मर्यादाओं को प्रकट करते हैं, दुष्टों का नाश करते हैं, भक्तों का संरक्षण करते हैं। इस प्रकार की महिमा-संपन्न देवी-देवताओं को अपने ईष्ट के रूप में स्वीकारने के लिए बहुत सारे तौर-तरीके प्रस्तुत करते हुए, लोगों में ईश्वर और देवी-देवताओं के प्रति "आस्था" स्थापित करने के लिए अनेकानेक विधियों को सत्कथा, परीकथाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया। साथ ही "उपदेश" के रूप में उपासना, आराधना, ध्यान, पूजा-पाठ, प्रार्थना पूर्वक "ईश्वर-कृपा" और "देव-कृपा" पूर्वक शरीर-यात्रा या जन्म सार्थक होना - यह सब की स्वीकृति "भक्ति" के नाम से प्रचलित हुआ। भक्ति के लिए "गुणात्मक भाषा" का प्रयोग ज्यादा हुआ।
ईश्वरवाद (अर्थात विरक्तिवाद) और भक्तिवाद दोनों प्रचलित हुआ। उसके बाद भौतिकवाद शुरू होने के साथ भक्ति-विरक्ति विचाराधीन होता गया। दूसरी भाषा में "अनास्था" की ओर मानव-मानसिकता परिवर्तित होता हुआ, और सुविधा-संग्रह प्रवृत्ति बढ़ता हुआ देखा गया। भौतिकवाद में "गणितात्मक भाषा" का प्रयोग हुआ। गणितीय भाषा विधि से भी मनुष्य का अध्ययन नहीं हुआ। भौतिकवादी महिमा प्रौद्योगिकी विधि से जो प्रकट हुआ - उससे जन-मानस "सुविधा-संग्रह" के वश में आ गया। इसके बावजूद भक्ति-विरक्ति सर्वथा लुप्त हो गयी - ऐसा नहीं हुआ।
ईश्वरवाद अथवा आदर्शवाद "कारणात्मक सोच-विचार" की सम्प्रेष्णा में पहुँचा, जबकि गुणात्मक और गनितात्मक भाषा गौण रहा। भक्तिवाद में गुणात्मक भाषा प्रधानतः मानसिकता में रहा तथा अन्य दोनों गौण रहा। भौतिकवाद में गणितात्मक भाषा प्रबल रहा, गुण और कारणात्मक भाषा गौण रहा। इस विधि से यह समझ में आता है - मानव-भाषा अभी तक पूर्णतया प्रयोग नहीं हो पाया। इसी के साथ यह भी समझ में आता है - सच्चाई को समझने के लिए मानव-भाषा के रूप में कारण, गुण, और गणित को संयुक्त रूप में स्वीकारना ही होगा।
"सुख-शान्ति पूर्वक जीना" - सामान्य व्यक्ति में यह सहज-अपेक्षा पायी जाती है। इस अपेक्षा के लिए स्मृति के साथ कल्पनाशीलता को जोड़ कर मानव-जाति सोचता आया, प्रयोग करता आया। इससे यह हमको पता चलता है - हर मानव सोचने वाला है, हर मानव में सोच-विचार की आवश्यकता बनी हुई है। साथ ही - सोच-विचार में "सुख-शान्ति पूर्वक जीना" की स्थिति-गति को पहचानने की आवश्यकता बनी हुई है। मानव कल्पनाशील है, विचारशील है, और इस कल्पना और विचार का मुद्दा है - सुख-शान्ति पूर्वक जीना।
मानव के अध्ययन से पता चलता है - हर मानव समझने-समझाने वाला भी है। और शरीर द्वारा सोच-विचार को प्रस्तुत करता है। इस तरह से विचार मानव-परम्परा में "अनुकरणीय विधि से" पीढी से पीढी पहुँचता हुआ देखने को मिलता है। जो विचार नहीं पहुँच पाता है, उसके स्थान पर परिवर्तित रूप में और कोई चीज स्थापित हो जाती है।
इसी के साथ मानव के अध्ययन में यह भी स्पष्ट होता है - समझ, सोच-विचार, और कल्पनाशीलता शरीर से भिन्न है। ऐसे शरीर से भिन्न वस्तु को पहचानने के क्रम में पता चला कि यह "जीवन" है। जीवन अपने में "अमर" और "नित्य" रहता है। शरीर गर्भाशय में तैयार होता है। ऐसे शरीर को जीवन पहचानता है और संचालित करता है। हर जीवन एक शरीर को संचालित करता है। जीवन का प्रकाशन समझ, सोच-विचार, और कल्पना के रूप में है। उसका प्रमाण मानव-परम्परा में है। शरीर के द्वारा जीवन व्यक्त होना पाया जाता है। इस प्रकार मानव को जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में पहचानना सुलभ हो गया है।
जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव को पहचानने के उपरांत ही कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन स्पष्ट होता है। सोच-विचार में "सुख-शान्ति पूर्वक जीने की इच्छा" भी जीवन के स्वत्व रूप में होना समझ में आता है। स्मृतियाँ जीवन में विद्यमान होना स्पष्ट होता है। स्मृतियाँ जीवन का स्वत्व होना समझ में आता है। जीवन ही कल्पनाशीलता और स्मृति का स्त्रोत है।
समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की इच्छा भी जीवन में प्रकाशित होने वाली प्रक्रिया है। सुख-शान्ति पूर्वक जीने के लिए समाधान-समृद्धि आवश्यक है। समाधान हर नर-नारी में होता है। समृद्धि हर परिवार में होता है। समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि होना पाया जाता है।
समझदारी का स्त्रोत सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व है। सह-अस्तित्व अपने स्वरूप में व्यापक वस्तु में समाई हुई एक-एक वस्तुएं हैं, जो जड़-चैतन्य रूप में अध्ययन-गम्य हैं। भौतिक और रासायनिक संसार को "जड़ प्रकृति" नाम है। रसायन-संसार में सम्पूर्ण अन्न-वनस्पति, झाड़, जंगल प्रकट हो चुकी है। इसके मूल में रसायन द्रव्यों में उत्सव, प्राण-सूत्र, प्राण-सूत्रों में रचना-विधि, हर रचना "बीज-वृक्ष न्याय विधि" से आवर्तनशील व्यवस्था में होना - इसी क्रम में अनेकानेक रचनाएँ प्रकट हो चुकी हैं।
इसके बाद जीव-संसार अंडज और पिंडज विधि से जलचर, भूचर, और खेचर रूप में विद्यमान है। इसके पश्चात मानव का प्रकटन इस धरती पर होना, और परम्परा रूप में पीढी से पीढी के रूप में विद्यमान है।
ये पूरी बात समझ में आना "समझदारी" है। ऐसे समझदारी से हर वस्तु का त्व सहित व्यवस्था में होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना स्पष्ट स्वीकार होता है। फलस्वरूप मानव अपने मानवत्व सहित व्यवस्था होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति से संपन्न होना पाया जाता है। यही "समाधान" का स्त्रोत है।
समाधान-समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना, और 'परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था' में भागीदारी करना समझदारी से परिपूर्ण परम्परा है। यही "अखंड समाज" और "सार्वभौम व्यवस्था" का स्वरूप है।
समझदार व्यक्तियों के परिवार में आवश्यकताएं "निश्चित" होती हैं - जो शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में स्पष्ट होती हैं। निश्चित आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन करना सहज है। फलन में समृद्धि सहज है। इस प्रकार हर परिवार-जन का समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना सहज है। पुनर्विचार करने का यही उद्देश्य है।
स्मृतियाँ घटना और भाषा के रूप में रहता है। कल्पनाएँ अपेक्षा के रूप में होती हैं। अपेक्षाएं निश्चित होने के क्रम में समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व पूर्वक जीना बनता है। यह कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का सार्थक स्वरूप और प्रयोजन है।
"सदा सर्व-शुभ हो!"
- बाबा श्री ए नागराज के साथ सम्वाद पर आधारित, अप्रैल २००६ - अमरकंटक
मानव अपने कल्पनाशीलता को कर्मस्वतंत्रता में परिवर्तित करता रहता है। मानव अपने शरीर के साथ ही कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता को प्रयोग करता दिखाई पड़ता है।
मानव के अध्ययन से पता चलता है - मानव अपनी आंखों से जो देखता है उससे अधिक समझता हुआ स्पष्ट आंकलित होता है। हर "रूप" में आकार, आयतन, घन समाहित रहता है। आंखों पर सामने वस्तु के रूप का १८० अंश तक ही आकार-आयतन प्रतिबिंबित होता है। शेष १८० अंश ओझिल रहता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आकार आयतन का पूरा स्वरूप आंखों में आता नहीं है। इसी के साथ "घन" का स्वरूप आंखों तक पहुँचता ही नहीं है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मानव का अध्ययन करते हैं तो हमको पता चलता है - समझने का पक्ष हर मानव में सक्रिय रहता ही है। इसी क्रम में मानव गणितीय विधि से आकार, आयतन, और घन को समझ पाता है। यह प्रक्रिया हर मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता की बदौलत है।
अब यह भी स्पष्ट होना आवश्यक है कि - समझने वाली चीज क्या है? पाँचों ज्ञान-इन्द्रियों में - यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों में - किसी एक वस्तु का "सम्पूर्णता" पहुँच नहीं पाता है। "सम्पूर्णता" को समझने की अपेक्षा मनुष्य में बना ही रहता है। सुदूर विगत से ही मानव घटनाओं को पहचानने का प्रयास करते ही आया है।
मनुष्य ने अपने इतिहास में - "कारण" के आधार पर, "गुण" के आधार पर, और "गणित" के आधार पर घटनाओं को पहचानने का प्रयास किया है। विगत में अध्यात्मवादियों ने ईश्वर को "मूल कारण" के रूप में भाषा में प्रस्तुत किया। उसके बाद अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए ईश्वर का बहुत-कुछ गुणगान किया। अभी तक आदर्शवादी लोग शिक्षा-जगत में ईश्वरीयता को अथवा ईश्वर को "मूल कारण" के रूप में पहचानने की व्यवस्था दे नहीं पाये। इस गवाही से यह स्पष्ट होता है, इस सोच-विचार का गम्य-स्थली अधूरा रहा।
दूसरा प्रयास इस रूप में हुआ - जिसमें कहा गया ईश्वर देवी-देवताओं के रूप में महिमा, लीला, और मर्यादाओं को प्रकट करते हैं, दुष्टों का नाश करते हैं, भक्तों का संरक्षण करते हैं। इस प्रकार की महिमा-संपन्न देवी-देवताओं को अपने ईष्ट के रूप में स्वीकारने के लिए बहुत सारे तौर-तरीके प्रस्तुत करते हुए, लोगों में ईश्वर और देवी-देवताओं के प्रति "आस्था" स्थापित करने के लिए अनेकानेक विधियों को सत्कथा, परीकथाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया। साथ ही "उपदेश" के रूप में उपासना, आराधना, ध्यान, पूजा-पाठ, प्रार्थना पूर्वक "ईश्वर-कृपा" और "देव-कृपा" पूर्वक शरीर-यात्रा या जन्म सार्थक होना - यह सब की स्वीकृति "भक्ति" के नाम से प्रचलित हुआ। भक्ति के लिए "गुणात्मक भाषा" का प्रयोग ज्यादा हुआ।
ईश्वरवाद (अर्थात विरक्तिवाद) और भक्तिवाद दोनों प्रचलित हुआ। उसके बाद भौतिकवाद शुरू होने के साथ भक्ति-विरक्ति विचाराधीन होता गया। दूसरी भाषा में "अनास्था" की ओर मानव-मानसिकता परिवर्तित होता हुआ, और सुविधा-संग्रह प्रवृत्ति बढ़ता हुआ देखा गया। भौतिकवाद में "गणितात्मक भाषा" का प्रयोग हुआ। गणितीय भाषा विधि से भी मनुष्य का अध्ययन नहीं हुआ। भौतिकवादी महिमा प्रौद्योगिकी विधि से जो प्रकट हुआ - उससे जन-मानस "सुविधा-संग्रह" के वश में आ गया। इसके बावजूद भक्ति-विरक्ति सर्वथा लुप्त हो गयी - ऐसा नहीं हुआ।
ईश्वरवाद अथवा आदर्शवाद "कारणात्मक सोच-विचार" की सम्प्रेष्णा में पहुँचा, जबकि गुणात्मक और गनितात्मक भाषा गौण रहा। भक्तिवाद में गुणात्मक भाषा प्रधानतः मानसिकता में रहा तथा अन्य दोनों गौण रहा। भौतिकवाद में गणितात्मक भाषा प्रबल रहा, गुण और कारणात्मक भाषा गौण रहा। इस विधि से यह समझ में आता है - मानव-भाषा अभी तक पूर्णतया प्रयोग नहीं हो पाया। इसी के साथ यह भी समझ में आता है - सच्चाई को समझने के लिए मानव-भाषा के रूप में कारण, गुण, और गणित को संयुक्त रूप में स्वीकारना ही होगा।
"सुख-शान्ति पूर्वक जीना" - सामान्य व्यक्ति में यह सहज-अपेक्षा पायी जाती है। इस अपेक्षा के लिए स्मृति के साथ कल्पनाशीलता को जोड़ कर मानव-जाति सोचता आया, प्रयोग करता आया। इससे यह हमको पता चलता है - हर मानव सोचने वाला है, हर मानव में सोच-विचार की आवश्यकता बनी हुई है। साथ ही - सोच-विचार में "सुख-शान्ति पूर्वक जीना" की स्थिति-गति को पहचानने की आवश्यकता बनी हुई है। मानव कल्पनाशील है, विचारशील है, और इस कल्पना और विचार का मुद्दा है - सुख-शान्ति पूर्वक जीना।
मानव के अध्ययन से पता चलता है - हर मानव समझने-समझाने वाला भी है। और शरीर द्वारा सोच-विचार को प्रस्तुत करता है। इस तरह से विचार मानव-परम्परा में "अनुकरणीय विधि से" पीढी से पीढी पहुँचता हुआ देखने को मिलता है। जो विचार नहीं पहुँच पाता है, उसके स्थान पर परिवर्तित रूप में और कोई चीज स्थापित हो जाती है।
इसी के साथ मानव के अध्ययन में यह भी स्पष्ट होता है - समझ, सोच-विचार, और कल्पनाशीलता शरीर से भिन्न है। ऐसे शरीर से भिन्न वस्तु को पहचानने के क्रम में पता चला कि यह "जीवन" है। जीवन अपने में "अमर" और "नित्य" रहता है। शरीर गर्भाशय में तैयार होता है। ऐसे शरीर को जीवन पहचानता है और संचालित करता है। हर जीवन एक शरीर को संचालित करता है। जीवन का प्रकाशन समझ, सोच-विचार, और कल्पना के रूप में है। उसका प्रमाण मानव-परम्परा में है। शरीर के द्वारा जीवन व्यक्त होना पाया जाता है। इस प्रकार मानव को जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में पहचानना सुलभ हो गया है।
जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव को पहचानने के उपरांत ही कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन स्पष्ट होता है। सोच-विचार में "सुख-शान्ति पूर्वक जीने की इच्छा" भी जीवन के स्वत्व रूप में होना समझ में आता है। स्मृतियाँ जीवन में विद्यमान होना स्पष्ट होता है। स्मृतियाँ जीवन का स्वत्व होना समझ में आता है। जीवन ही कल्पनाशीलता और स्मृति का स्त्रोत है।
समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की इच्छा भी जीवन में प्रकाशित होने वाली प्रक्रिया है। सुख-शान्ति पूर्वक जीने के लिए समाधान-समृद्धि आवश्यक है। समाधान हर नर-नारी में होता है। समृद्धि हर परिवार में होता है। समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि होना पाया जाता है।
समझदारी का स्त्रोत सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व है। सह-अस्तित्व अपने स्वरूप में व्यापक वस्तु में समाई हुई एक-एक वस्तुएं हैं, जो जड़-चैतन्य रूप में अध्ययन-गम्य हैं। भौतिक और रासायनिक संसार को "जड़ प्रकृति" नाम है। रसायन-संसार में सम्पूर्ण अन्न-वनस्पति, झाड़, जंगल प्रकट हो चुकी है। इसके मूल में रसायन द्रव्यों में उत्सव, प्राण-सूत्र, प्राण-सूत्रों में रचना-विधि, हर रचना "बीज-वृक्ष न्याय विधि" से आवर्तनशील व्यवस्था में होना - इसी क्रम में अनेकानेक रचनाएँ प्रकट हो चुकी हैं।
इसके बाद जीव-संसार अंडज और पिंडज विधि से जलचर, भूचर, और खेचर रूप में विद्यमान है। इसके पश्चात मानव का प्रकटन इस धरती पर होना, और परम्परा रूप में पीढी से पीढी के रूप में विद्यमान है।
ये पूरी बात समझ में आना "समझदारी" है। ऐसे समझदारी से हर वस्तु का त्व सहित व्यवस्था में होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना स्पष्ट स्वीकार होता है। फलस्वरूप मानव अपने मानवत्व सहित व्यवस्था होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति से संपन्न होना पाया जाता है। यही "समाधान" का स्त्रोत है।
समाधान-समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना, और 'परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था' में भागीदारी करना समझदारी से परिपूर्ण परम्परा है। यही "अखंड समाज" और "सार्वभौम व्यवस्था" का स्वरूप है।
समझदार व्यक्तियों के परिवार में आवश्यकताएं "निश्चित" होती हैं - जो शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में स्पष्ट होती हैं। निश्चित आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन करना सहज है। फलन में समृद्धि सहज है। इस प्रकार हर परिवार-जन का समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना सहज है। पुनर्विचार करने का यही उद्देश्य है।
स्मृतियाँ घटना और भाषा के रूप में रहता है। कल्पनाएँ अपेक्षा के रूप में होती हैं। अपेक्षाएं निश्चित होने के क्रम में समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व पूर्वक जीना बनता है। यह कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का सार्थक स्वरूप और प्रयोजन है।
"सदा सर्व-शुभ हो!"
- बाबा श्री ए नागराज के साथ सम्वाद पर आधारित, अप्रैल २००६ - अमरकंटक
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