मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है - यह सबको पता है। उल्लेखनीय और विचारणीय बात यह है - २१वी सदी तक "कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन क्या है?", इस बात पर कोई मनोविज्ञानी, समाजशास्त्री, अर्थ-शास्त्री ध्यान क्यों नहीं दे पाये? यह धर्म-नीति और राज्य-नीति संसार के विद्वानों के लिए और भी गंभीर रूप में सोचने का मुद्दा है।
मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन क्या है? इस का सार-संक्षेप उत्तर यही है - (१) कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता मनुष्य में "नियति-प्रदत्त" है। सह-अस्तित्व में "प्रकटन विधि" से मनुष्य-परम्परा धरती पर है, जिसमें कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है। (२) मनुष्य में प्रकट कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का "तृप्ति-बिन्दु" पाना ही इस कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन है। यही "मानव-लक्ष्य" भी है।
मानव की परिभाषा है - "मनाकार को साकार करने वाला, और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने वाला"। मानव ने अभी तक अपनी परिभाषा का आधा भाग - "मनाकार को साकार करना" - पूरा कर लिया है। इसी क्रम में मनुष्य-परम्परा ने आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन संबन्धी वस्तुओं को प्राप्त कर लिया। यह मनुष्य की कर्म-स्वतंत्रता के फलस्वरूप ही हुआ। कल्पनाशीलता के साथ ही कर्म-स्वतंत्रता प्रकट हुई है। मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता को कर्म-स्वतंत्रता में परिवर्तित करता रहा - जिससे उसने अपनी परिभाषा का आधा-भाग प्रमाणित कर लिया। लेकिन उक्त वस्तुएं प्राप्त होने के बावजूद मानव का सुखी होना - या मनः स्वस्थता प्रमाणित होना - नहीं बन पाया। मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधियों से जितने भी कर्म करता आया, और आगे करने वाला है - उन सबके फलन में मनुष्य "सुखी" होना चाहता है, या मनः स्वस्थता प्रमाणित करना चाहता है।
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष में आते हैं - कल्पनाशीलता में ही सुखी होने की आशा, अथवा अपेक्षा, अथवा इच्छा समाई है।
आशा, अपेक्षा, और इच्छा जीवन-सहज प्रक्रिया है। इसी के साथ जीवन में स्मृतियाँ प्रभावित रहती ही हैं। हर मानव में विगत से स्मृतियाँ, वर्तमान में प्रमाण, और भविष्य के लिए अपेक्षा होना स्पष्ट होता है। "सुख" प्रमाण स्वरूप में वर्तमान में ही होता है। वर्तमान में आशा, अपेक्षा, और इच्छा के तृप्त न होने के फलस्वरूप ही मनुष्य भूत और भविष्य में अपने स्मरण को दौडाए रहता है। भूत और भविष्य "सुख" का आधार न होने के फलस्वरूप मनुष्य "मनमानी" करता है।
मनुष्य की "मनमानी" को रोकने के प्रयास करने के लिए दो ध्रुवों में "भय" और "प्रलोभन" का तंत्र प्रस्तुत हुआ। इसे कुछ इने-गिने लोग ही स्थापित किए। प्रलोभानात्मक-तंत्र विभिन्न देश-काल और समुदायों में विभिन्न प्रकार से "धर्म-गद्दी" द्वारा प्रस्तुत हुआ। इसमें रहस्यमयी ईश्वर, अनुकरण न हो सकने वाले महापुरुष, अवतारी पुरूष, ईश्वर के संदेश-वाहक, सिद्ध-पुरुषों को केन्द्र में रख कर तरने-तारने का प्रलोभानात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। साथ ही "पाप" के प्रति भय, और प्रायश्चित्त का कार्यक्रम दिया गया। इसी प्रकार राज्य-तंत्र द्वारा सामान्य व्यक्तियों को जान-माल की रक्षा करने का आश्वासन और उसके लिए सीमा-सुरक्षा करने का कार्यक्रम रहा। इसके साथ ही राज्य-तंत्र का स्पष्ट-कार्यक्रम रहा - गलती को गलती से रोकना, अपराध को अपराध से रोकना, और युद्ध को युद्ध से रोकना। धर्म-गद्दी और राज्य-गद्दी का तंत्र यह सोचकर आरम्भ हुआ - सामान्य व्यक्ति इन तंत्रों की मूल-प्रवृत्ति को समझ नहीं पायेगा। २१ वी शताब्दी तक सर्वाधिक मानव इन तंत्रों की कलई को खुलते हुए देख लिया अथवा इन तंत्रों का प्रयोजन क्या हुआ और क्या हो रहा है - यह समझने के योग्य हो गया।
मानव अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के चलते - जंगल युग से ग्राम-कबीला युग में, ग्राम-कबीला युग से राज्य-युग में, राज्य-युग से लोक-तंत्र युग में पहुँच गया। लोकतंत्र में हर मानव, अथवा सर्वाधिक मानव "नेतृत्व मानसिकता" के लिए तत्पर रहा। इने-गिने लोगों को ही नेतृत्व-पद मिल सकता है, इसलिए उसके लिए संघर्ष भावी हो गया। इसके साथ - लोकतंत्र युग में राज्य-युग में राजाओं के सुविधा-संग्रह की सूचना सर्व-मानव के लिए प्रस्तुत हो गयी। उस आधार पर राजाओं को जो सुविधा-संग्रह उपलब्ध था, उससे ज्यादा पाने के लिए नेतृत्व प्रवृत्तियां आंकलित होता हुआ देखा गया।
राज्य-युग में आचार्य एक "आदर्श" रूप में गण्य होता था। राज-गद्दी पर बैठा हुआ राजा अपने को "आदर्श" होना स्वीकार ही लेता था। राज्य-गद्दी के "आदर्श" पूर्णतया सुविधा-संग्रह और अय्याशी-बदमाशी से भरा रहा। राज्य-गद्दी के ढांचे-खांचे में ही जन-प्रतिनिधि सर्वाधिक संख्या में उलझा हुआ दिखाई पड़ता है। जन-प्रतिनिधि विधि से गण-तंत्र प्रणाली राज्य-युग के तुलना में "पवित्र" होना जनमानस में स्वीकृत रहा। लेकिन आज की स्थिति में जन-प्रतिनिधि सर्वाधिक भृष्टाचार, अप्रत्याशित धूर्तता पूर्वक सुविधा-संग्रह उपार्जित करता हुआ देखने को मिलता है। "अप्रत्याशित" से मतलब है - जिस समय जनमानस निर्वाचन क्रिया करता है उस समय स्वीकृति रहती है कि जन-प्रतिनिधि जन-हित में कार्य करेगा। निर्वाचित होने के बाद - "जन-हित" भाषा में ही रह गयी। जन-हित के लिए जो मुद्रा-तंत्र था, वह जन-प्रतिनिधि के द्वारा निक्षेपित होता गया।
इस तरह जिनको सामान्य लोग "आदर्श" या "श्रेष्ठ" स्वीकारते रहे - उनका लक्ष्य केवल "सुविधा-संग्रह" ही होता हुआ देखा गया। फलतः सभी ज्ञानी, अज्ञानी, और विज्ञानी सुविधा-संग्रह की ही कतार में हो गए। सर्वाधिक जनमानस जब भृष्टाचार के लिए तत्पर हो गया तो इसके प्रथम-चरण में ही लोगों को यह भी पता चला कि धरती बीमार हो गयी। मानव अनेक प्रकार के नए-नए रोगों में ग्रस्त होता गया। यह सब परिस्थितियां अत्याधुनिक वर्चस्व का फल-परिणाम है। मनुष्य परम्परा अपराध-ग्रस्त हो चुकी है। ये परिस्थितयां मनुष्य परम्परा के अपराधों के फल-परिणाम हैं। २१ वी सदी तक जीव-चेतना विधि से जीने के क्रम में मनुष्य-परम्परा में सुविधा-संग्रह की लिप्सा बढ़ी, जिसके लिए सम्पूर्ण अपराध किए गए।
अपराध-मुक्त मानव-परम्परा के लिए हर व्यक्ति समाधान-संपन्न होना, और हर परिवार समाधान-समृद्धि संपन्न होना और उपकार करना आवश्यक है। उसके लिए मनुष्य में "चेतना विकास" ही प्रधान मुद्दा है। मानव-चेतना में जीवन-सहज आशा, अपेक्षा, और इच्छा "वर्तमान" में ही तृप्त रहती हैं। "मनमानी" को रोकने के लिए फ़िर "भय", "प्रलोभन", और "आस्था" पर आधारित तंत्रों की आवश्यकता नहीं रहती।
"चेतना-विकास मूल्य-शिक्षा" का कार्यक्रम पैसे से नहीं है। उसके लिए समझदारी से संपन्न - अर्थात मानव-चेतना, देव-चेतना संपन्न अध्यापको, गुरुजनों, आचार्यों की आवश्यकता है। मानव-चेतना में पारंगत हर मानव संबंधों को "प्रयोजनों के आधार पर" पहचानता है, और उसके निर्वाह करने के क्रम में कृतज्ञता, गौरव, श्रृद्धा, प्रेम, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान, स्नेह जैसे मूल्यों को प्रमाणित करता है। यही "न्याय-परम्परा" का मतलब है। इन उपलब्धियों के आधार पर "अखंड-समाज" और "सार्वभौम व्यवस्था" के साथ सर्व-मानव का "निरंतर सुखी" होना बनता है। यही मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का "प्रयोजन" है।
जीवन में दृष्टा-पद प्रतिष्ठा, और जागृति-सहज प्रमाणों का मानव-परम्परा में होना आवश्यक हो गया है। क्योंकि मानव-परम्परा अपराधों से मुक्त होना चाहता है, और मानव-परम्परा के अपराधों से मुक्त होने की आवश्यकता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित, अप्रैल २००६, अमरकंटक
मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन क्या है? इस का सार-संक्षेप उत्तर यही है - (१) कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता मनुष्य में "नियति-प्रदत्त" है। सह-अस्तित्व में "प्रकटन विधि" से मनुष्य-परम्परा धरती पर है, जिसमें कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है। (२) मनुष्य में प्रकट कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का "तृप्ति-बिन्दु" पाना ही इस कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोजन है। यही "मानव-लक्ष्य" भी है।
मानव की परिभाषा है - "मनाकार को साकार करने वाला, और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने वाला"। मानव ने अभी तक अपनी परिभाषा का आधा भाग - "मनाकार को साकार करना" - पूरा कर लिया है। इसी क्रम में मनुष्य-परम्परा ने आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन संबन्धी वस्तुओं को प्राप्त कर लिया। यह मनुष्य की कर्म-स्वतंत्रता के फलस्वरूप ही हुआ। कल्पनाशीलता के साथ ही कर्म-स्वतंत्रता प्रकट हुई है। मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता को कर्म-स्वतंत्रता में परिवर्तित करता रहा - जिससे उसने अपनी परिभाषा का आधा-भाग प्रमाणित कर लिया। लेकिन उक्त वस्तुएं प्राप्त होने के बावजूद मानव का सुखी होना - या मनः स्वस्थता प्रमाणित होना - नहीं बन पाया। मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधियों से जितने भी कर्म करता आया, और आगे करने वाला है - उन सबके फलन में मनुष्य "सुखी" होना चाहता है, या मनः स्वस्थता प्रमाणित करना चाहता है।
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष में आते हैं - कल्पनाशीलता में ही सुखी होने की आशा, अथवा अपेक्षा, अथवा इच्छा समाई है।
आशा, अपेक्षा, और इच्छा जीवन-सहज प्रक्रिया है। इसी के साथ जीवन में स्मृतियाँ प्रभावित रहती ही हैं। हर मानव में विगत से स्मृतियाँ, वर्तमान में प्रमाण, और भविष्य के लिए अपेक्षा होना स्पष्ट होता है। "सुख" प्रमाण स्वरूप में वर्तमान में ही होता है। वर्तमान में आशा, अपेक्षा, और इच्छा के तृप्त न होने के फलस्वरूप ही मनुष्य भूत और भविष्य में अपने स्मरण को दौडाए रहता है। भूत और भविष्य "सुख" का आधार न होने के फलस्वरूप मनुष्य "मनमानी" करता है।
मनुष्य की "मनमानी" को रोकने के प्रयास करने के लिए दो ध्रुवों में "भय" और "प्रलोभन" का तंत्र प्रस्तुत हुआ। इसे कुछ इने-गिने लोग ही स्थापित किए। प्रलोभानात्मक-तंत्र विभिन्न देश-काल और समुदायों में विभिन्न प्रकार से "धर्म-गद्दी" द्वारा प्रस्तुत हुआ। इसमें रहस्यमयी ईश्वर, अनुकरण न हो सकने वाले महापुरुष, अवतारी पुरूष, ईश्वर के संदेश-वाहक, सिद्ध-पुरुषों को केन्द्र में रख कर तरने-तारने का प्रलोभानात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। साथ ही "पाप" के प्रति भय, और प्रायश्चित्त का कार्यक्रम दिया गया। इसी प्रकार राज्य-तंत्र द्वारा सामान्य व्यक्तियों को जान-माल की रक्षा करने का आश्वासन और उसके लिए सीमा-सुरक्षा करने का कार्यक्रम रहा। इसके साथ ही राज्य-तंत्र का स्पष्ट-कार्यक्रम रहा - गलती को गलती से रोकना, अपराध को अपराध से रोकना, और युद्ध को युद्ध से रोकना। धर्म-गद्दी और राज्य-गद्दी का तंत्र यह सोचकर आरम्भ हुआ - सामान्य व्यक्ति इन तंत्रों की मूल-प्रवृत्ति को समझ नहीं पायेगा। २१ वी शताब्दी तक सर्वाधिक मानव इन तंत्रों की कलई को खुलते हुए देख लिया अथवा इन तंत्रों का प्रयोजन क्या हुआ और क्या हो रहा है - यह समझने के योग्य हो गया।
मानव अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के चलते - जंगल युग से ग्राम-कबीला युग में, ग्राम-कबीला युग से राज्य-युग में, राज्य-युग से लोक-तंत्र युग में पहुँच गया। लोकतंत्र में हर मानव, अथवा सर्वाधिक मानव "नेतृत्व मानसिकता" के लिए तत्पर रहा। इने-गिने लोगों को ही नेतृत्व-पद मिल सकता है, इसलिए उसके लिए संघर्ष भावी हो गया। इसके साथ - लोकतंत्र युग में राज्य-युग में राजाओं के सुविधा-संग्रह की सूचना सर्व-मानव के लिए प्रस्तुत हो गयी। उस आधार पर राजाओं को जो सुविधा-संग्रह उपलब्ध था, उससे ज्यादा पाने के लिए नेतृत्व प्रवृत्तियां आंकलित होता हुआ देखा गया।
राज्य-युग में आचार्य एक "आदर्श" रूप में गण्य होता था। राज-गद्दी पर बैठा हुआ राजा अपने को "आदर्श" होना स्वीकार ही लेता था। राज्य-गद्दी के "आदर्श" पूर्णतया सुविधा-संग्रह और अय्याशी-बदमाशी से भरा रहा। राज्य-गद्दी के ढांचे-खांचे में ही जन-प्रतिनिधि सर्वाधिक संख्या में उलझा हुआ दिखाई पड़ता है। जन-प्रतिनिधि विधि से गण-तंत्र प्रणाली राज्य-युग के तुलना में "पवित्र" होना जनमानस में स्वीकृत रहा। लेकिन आज की स्थिति में जन-प्रतिनिधि सर्वाधिक भृष्टाचार, अप्रत्याशित धूर्तता पूर्वक सुविधा-संग्रह उपार्जित करता हुआ देखने को मिलता है। "अप्रत्याशित" से मतलब है - जिस समय जनमानस निर्वाचन क्रिया करता है उस समय स्वीकृति रहती है कि जन-प्रतिनिधि जन-हित में कार्य करेगा। निर्वाचित होने के बाद - "जन-हित" भाषा में ही रह गयी। जन-हित के लिए जो मुद्रा-तंत्र था, वह जन-प्रतिनिधि के द्वारा निक्षेपित होता गया।
इस तरह जिनको सामान्य लोग "आदर्श" या "श्रेष्ठ" स्वीकारते रहे - उनका लक्ष्य केवल "सुविधा-संग्रह" ही होता हुआ देखा गया। फलतः सभी ज्ञानी, अज्ञानी, और विज्ञानी सुविधा-संग्रह की ही कतार में हो गए। सर्वाधिक जनमानस जब भृष्टाचार के लिए तत्पर हो गया तो इसके प्रथम-चरण में ही लोगों को यह भी पता चला कि धरती बीमार हो गयी। मानव अनेक प्रकार के नए-नए रोगों में ग्रस्त होता गया। यह सब परिस्थितियां अत्याधुनिक वर्चस्व का फल-परिणाम है। मनुष्य परम्परा अपराध-ग्रस्त हो चुकी है। ये परिस्थितयां मनुष्य परम्परा के अपराधों के फल-परिणाम हैं। २१ वी सदी तक जीव-चेतना विधि से जीने के क्रम में मनुष्य-परम्परा में सुविधा-संग्रह की लिप्सा बढ़ी, जिसके लिए सम्पूर्ण अपराध किए गए।
अपराध-मुक्त मानव-परम्परा के लिए हर व्यक्ति समाधान-संपन्न होना, और हर परिवार समाधान-समृद्धि संपन्न होना और उपकार करना आवश्यक है। उसके लिए मनुष्य में "चेतना विकास" ही प्रधान मुद्दा है। मानव-चेतना में जीवन-सहज आशा, अपेक्षा, और इच्छा "वर्तमान" में ही तृप्त रहती हैं। "मनमानी" को रोकने के लिए फ़िर "भय", "प्रलोभन", और "आस्था" पर आधारित तंत्रों की आवश्यकता नहीं रहती।
"चेतना-विकास मूल्य-शिक्षा" का कार्यक्रम पैसे से नहीं है। उसके लिए समझदारी से संपन्न - अर्थात मानव-चेतना, देव-चेतना संपन्न अध्यापको, गुरुजनों, आचार्यों की आवश्यकता है। मानव-चेतना में पारंगत हर मानव संबंधों को "प्रयोजनों के आधार पर" पहचानता है, और उसके निर्वाह करने के क्रम में कृतज्ञता, गौरव, श्रृद्धा, प्रेम, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान, स्नेह जैसे मूल्यों को प्रमाणित करता है। यही "न्याय-परम्परा" का मतलब है। इन उपलब्धियों के आधार पर "अखंड-समाज" और "सार्वभौम व्यवस्था" के साथ सर्व-मानव का "निरंतर सुखी" होना बनता है। यही मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का "प्रयोजन" है।
जीवन में दृष्टा-पद प्रतिष्ठा, और जागृति-सहज प्रमाणों का मानव-परम्परा में होना आवश्यक हो गया है। क्योंकि मानव-परम्परा अपराधों से मुक्त होना चाहता है, और मानव-परम्परा के अपराधों से मुक्त होने की आवश्यकता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित, अप्रैल २००६, अमरकंटक
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