विज्ञान का प्रयोजन मानव-चेतना विधि से मानव-लक्ष्य और जीवन-मूल्य प्रमाणित करने के लिए दिशा निर्धारित करना है।
विज्ञान में "काल-वादी ज्ञान", "क्रिया-वादी ज्ञान" और "निर्णय-वादी ज्ञान" के सार्वभौम सिद्धांत और नियमो का बोध-गम्य होना आवश्यक है।
निर्णय-कारी प्रवृत्ति में मानव-भाषा सूत्र जीवित रहने की आवश्यकता है। मानव-भाषा सूत्र को सार्वभौम रूप में, अर्थात धरती पर सभी मानव के स्वीकारने योग्य भाषा को, कारण-गुण-गणित रूप में पहचाना गया है।
कारणात्मक-भाषा में हर स्थिति, गति, घटना में निहित "मूल ज्ञान" स्पष्ट होता है। जैसे - अस्तित्व "होने" के रूप में है। मनुष्य-संसार, जीव-संसार, वनस्पति-संसार, और पदार्थ-संसार - ये चारों अवस्थाएं "होने" के आधार पर ही मानव में, से, के लिए समझ में आता है। "नहीं होना" मानव को समझ में आता नहीं है। "नहीं होना" होता ही नहीं है। "तिरोभाव" या "मिट जाने" का जो कल्पना दिया गया - वह मानव-परम्परा में प्रमाणित होना बना ही नहीं। इसका कारण यही है - "तिरोभाव" या "मिट जाना" होता ही नहीं है। "परिवर्तन" होना पाया जाता है। परिवर्तित रूप अस्तित्व में होता ही है। इसे संगठन-विघटन, रचना-विरचना, या परिणाम-परिवर्तन कहा जा सकता है। परिणाम-परिवर्तन की अपनी स्थिति निश्चित है। परिवर्तित सभी वस्तु अपनी स्थिति में होते ही हैं। परिवर्तित स्थिति पूर्व-स्थिति से भिन्न होते हुए भी "होना" समाप्त नहीं होता। किसी भी स्वरूप में होना, वह भी एक यथा-स्थिति होना - यह "सदा-सदा होने" की गवाही है।
गुणात्मक-भाषा से सम, विषम, और मध्यस्थ क्रियाकलाप स्पष्ट होता है। उद्भव क्रियाकलाप "सम"-क्रिया के रूप में, प्रलय क्रियाकलाप को "विषम"-क्रिया के रूप में पहचाना जाता है। साथ ही, जो कुछ भी उद्भवित रहता है उसको बनाए रखने में जो भी कार्यकलाप है - उसी का नाम "मध्यस्थ" है। अस्तित्व में चार अवस्थाओं का प्रगटन है। हर अवस्था का उसके वैभव को बनाए रखना मध्यस्थ-क्रियाकलाप है।
मध्यस्थ क्रियाकलाप को मनुष्य-परम्परा के सन्दर्भ में देखें तो - मानव परम्परा में शैशव, कौमार्य, यौवन, प्रौढ़, और वृद्ध अवस्थाओं के रूप में परिलक्षित है। मानव-परम्परा में "व्यवहार" इसी के साथ सुस्पष्ट होता है। हर मानव-संतान जन्म से ही न्याय का याचक होता है, सत्य वक्ता होता है, और सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक होता है। मानव-संतान का अपने अभिभावकों के साथ "व्यवहार" होता ही है। मानव-संतान स्वाभाविक रूप में अपने अभिभावकों का अनुसरण-अनुकरण करता ही है। इस व्यवहार का "प्रयोजन" है - अभिभावकों द्वारा संतान में न्याय-प्रदायी क्षमता स्थापित हो, सत्य का बोध हो, और सही कार्य-व्यवहार करना सिखाया जाए। ऐसा करना अभिभावकों का "दायित्व" है। इस दायित्व को पूरा करने के लिए अभिभावकों का पहले से उसके "योग्य" बने रहना आवश्यक है। इस प्रकार - हर मानव-सम्बन्ध में, दायित्वों को निर्वाह करने के लिए उसके लिए आवश्यक ज्ञान, विवेक, विज्ञान से संपन्न रहना आवश्यक है।
गणितात्मक भाषा समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की आवश्यकता के आधार पर गणना-विधि पूर्वक "वस्तु-मूलक गणित" को समझने के लिए है। मनुष्य का अकेले में कोई कार्यक्रम नहीं है। अकेले मनुष्य में कोई "प्रमाण" नहीं है। अकेले में कोई "व्यवहार" होता नहीं है। दो व्यक्ति से अधिक होने पर ही "परिवार" कहलाता है। परिवार में होने के बाद समाधान-समृद्धि का वैभव प्रमाणित होना आवश्यक हो जाता है। परिवार की आवश्यकताओं में "समृद्धि" से सम्बंधित जितनी भी बात है, उसमें गणित के आधार पर भी बात करना बनता है। वस्तु-मूलक गणित मानव-उपकारी होना पाया जाता है। मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ मनुष्य जितना भी कार्य करता है - वह सर्वाधिक भाग गणित-ग्राही है।
नित्यम् यातु शुभोदयम
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)
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