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Thursday, October 8, 2009

एक मौलिक बात

प्रश्न: आप जो समझदारी की सम्पदा जो पाये, वह आपको अंतर्मुखी विधि से ही तो मिली है!?

उत्तर: नहीं! यह समझदारी मुझे अंतर्मुखी विधि के "मूल्यांकन" करने के क्रम में मिली। समाधि जो मुझे हुई, वह अंतर्मुखी विधि से हुई। संयम में अंतर्मुखी विधि नहीं है। समाधि में मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला। समाधि का मूल्यांकन करने के लिए संयम मैंने किया। संयम की प्रचलित विधियों को मैंने छोड़ दिया। उसकी सिद्धियों की अपेक्षा मैंने छोड़ दिया। समाधि के बिना संयम नहीं हो सकता, यह बात सही है। किंतु संयम से जो प्राप्त समझदारी स्वरूपी जो वस्तु है - वह समाधि-संयम के रास्ते से ही मिलेगा, इसको मैंने छोड़ दिया! मैं समाधि-संयम के रास्ते से गुजर कर समझदारी तक पहुँचा। आप अध्ययन के रास्ते से गुजर कर समझदारी तक पहुँच सकते हैं। आपके लिए सीधा-सीधा रास्ता लगा दिया है।

जो मैंने पाया वह मेरे लिए तो सम्पदा है ही, जब इसको अध्याव्सायिक विधि से लगाने गया तो पता चला - यह तो सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए सम्पदा है। तब पता चला - मुझको जो यह सम्पदा मिली है, यह तो सम्पूर्ण मानव-जाति के पुण्य का फल है। इसको आप मेरा बड़प्पन कहो, उदारता कहो - कुछ भी कहो! मैं जो निर्णय कर पाया - वह यही है! क्योंकि मैं इतनी बड़ी सम्पदा के लिए खोजा ही नहीं था। कहीं न कहीं यह मानव-जाति की आवश्यकता रही - तभी यह चीज आयी।

इसमें और एक चीज को मैंने देखा - मेरे द्वारा इस अनुसंधान के सफल हो जाने से ज्यादा मखौल की बात कुछ हो नहीं सकती! इतने दिग्गज विद्वान एक तिनके की ओट में पहाड़ को रख करके सारे मानव-जाति को मृत्यु के कगार पर ला दिए, वह मेरे कैसे हाथ लग गया - मैं यह सोच-सोच कर हैरत में हूँ! इसमें कोई बड़ी भारी चीज नहीं हुई है - मैं आपको सही बता रहा हूँ। व्यापक की बात पहले भी आदर्शवादियों ने कहा है। दूसरे - वस्तु की बात भी बहुत कहा गया है। भौतिकवाद में परमाणु की बात भी बहुत कहा गया है। धरती पर जो संकट गहरा गया है - उसकी बात भी बहुत लोग कर चुके हैं। संकट की बहुत सारी गांठों को आदमी सूंघ-सूंघ कर देख लिया है। इसमें यह सूझ क्यों नहीं आया - (आदर्शवाद - अंतर्मुखी विधि ) केवल व्यापक को ही देखने गए और बरबाद हो गए। (भौतिकवाद - बहिर्मुखी विधि ) केवल वस्तु को ही देखने गए, और बरबाद हो गए। व्यापक और वस्तु के योगफल में क्या निकलता है, उसको पहचानने के लिए एक आदमी भी प्रयत्न नहीं किया। यह एक आश्चर्यजनक बात है! अंतर्मुखी विधि में व्यापक के साथ जूझो! बहिर्मुखी विधि में एक-एक के साथ जूझो! दोनों विधा में संघर्ष ही है। "जीने दो, जियो" - कहाँ निकलेगा इनसे! अंतर्मुखी विधि में भी संघर्ष करो, जूझते रहो! बहिर्मुखी विधि में भी संघर्ष करो, जूझते रहो! इसमें राहत की स्थली कहाँ है?

मेरे जैसे एक निरीह आदमी के पल्ले यह बात पडी। संसार के सामने मैं एक निरीह हूँ, नगण्य हूँ, छोटा - छोटा से छोटा आदमी हूँ। ऐसे आदमी के हाथ इतनी बड़ी सम्पदा लग जाना - बहुत ही मखौल, बहुत ही आश्चर्यजनक, और बहुत ही मौलिक बात है। इसमें कोई ढील-पौल कहीं कुछ नहीं है।

"व्यापक और एक-एक" - इन दोनों के अलावा अस्तित्व में और कुछ है ही नहीं! पूरा अस्तित्व व्यापक में संपृक्त एक-एक है। इतना दिन, इतने मेधावी, इतने तपस्वी हो गए - और यह सह-अस्तित्व सूत्र नहीं निकाल पाये! इन तपस्वियों की कथाएँ हम सुनते ही हैं। उनके तपस्या के तरीको को सुने तो हम कहीं लगते ही नहीं हैं! मेरी sincerity मेरे पास जो रही, वह अवश्य मौलिक है। उसमें मुझे कोई ढील-पौल नहीं दिखती। मैंने जो करना चाहा, वह कर डाला - ख़त्म हो गयी बात! जो परिणाम हो जाए, हो जाए! इस sincerity के साथ जो मैंने किया, उसका जो परिणाम आया वह मौलिक है, अमूल्य है। जैसे-जैसे इस बात को व्याख्या करता हूँ - मुझे लगता है, यह केवल इस धरती के आदमियों के लिए ही नहीं, सभी धरतियों के ओढ़ने के लिए वस्तु है! ऐसा ही लगता है मुझे! भले ही आप इसे आशावादिता कहो, या अत्याशावादिता कहो - पर असलीयत ऐसा ही है!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (१९९८, आन्वरी आश्रम)

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