मैंने अस्तित्व में अध्ययन किया। पहले "दृश्य" को देखा। दृश्य में वस्तु होता ही है। व्यापक भी एक दृश्य ही है। एक-एक भी एक दृश्य ही है। मैं "दर्शक" हूँ - मैं इन दोनों को देख रहा हूँ, इसको मैंने पहचाना। पहली बात यह समझ में आयी। इस बात को समझना हर विद्यार्थी की जरूरत है।
जब जीवन को देखा - जीवन-क्रियाकलाप को देखा, जीवन के लक्ष्य को देखा, जीवन के स्वरूप को देखा, जीवन शक्ति-बल को देखा - "जीवन-ज्ञान" यही है, यह पता चला। और इस ज्ञान का ज्ञाता जीवन ही है, मैं ही हूँ - यह पता चला। जीवन ही अस्तित्व के साथ "दृष्टा" है, और जीवन के साथ "ज्ञाता" है।
सम्पूर्ण सह-अस्तित्व "ज्ञेय" है। उसी के साथ "मानवीयता पूर्ण आचरण" मानव के त्व सहित व्यवस्था में होने और समग्र-व्यवस्था में भागीदारी करने के स्वरूप में समझ आया। मानव के व्यवस्था में "होने" और "रहने" के लिए ज्ञान भी चाहिए, दर्शन भी चाहिए, आचरण भी चाहिए। इस ढंग से मैंने पढ़ा। आगे पीढी को भी यही पढ़ाई चाहिए।
अध्ययन के पहले चरण में विद्यार्थी को यह बताने की ज़रूरत है, तुम समझने योग्य हो! "तुम समझ सकते हो!" - यह भरोसा दिलाना अध्यापक का पहला कार्य है। अध्ययन-कार्य का पहला चरण यही है।
उसके बाद कोई न कोई भाषा विधि होगी ही। चाहे हिन्दी में पढाओ, या अंगरेजी में पढाओ। भाषा अध्ययन-कार्य के लिए एक भाग है। अभी तक की यह अवधारणा रही - "व्याकरण भाषा का नियंत्रण करता है"। संस्कृत भाषा में भी ऐसा ही माना गया है। मेरे अनुसार इसमें परिवर्तन होना चाहिए। इसके लिए मैंने प्रस्तावित किया - "वस्तु-बोध पूर्वक ही भाषा का नियंत्रण है।" वस्तु-बोध यदि नहीं होता है, तो आप कितना भी व्याकरण लगाते रहो, क्या हो सकता है? शब्द का अर्थ वस्तु है। वस्तु-बोध जब हो जाता है, तब हमारा अध्ययन हुआ। यदि वस्तु-बोध नहीं हुआ है, तो शब्द तक ही हम रह जायेंगे।
"मैं समझ सकता हूँ, और जी कर प्रमाणित हो सकता हूँ" - जब तक यह स्वयं में भरोसा नहीं बनता है, तब तक हम शब्द तक भी नहीं पहुँच पायेंगे। आदमी ही एक मात्र वस्तु है जो समझ सकता है, प्रमाणित हो सकता है। इस बात को हम जब तक उभारेंगे नहीं, तब तक शब्द भी आदमी ढंग से सुनेगा, ऐसा भरोसा नहीं किया जा सकता।
इस तरह अध्ययन के तीन चरण हैं:
(१) परस्परता में विश्वास
(२) शब्द का श्रवण
(३) शब्द से इंगित वस्तु का बोध
इन तीन चरणों में अध्ययन सार्थक होता है। इनमे से किसी भी चरण को छोड़ा नहीं जा सकता।
वस्तु-बोध होने के बाद ही प्रमाणित होने के लिए प्रवृत्ति, उसके लिए संकल्प, संकल्प के बाद व्यवहार में प्रमाणीकरण होता है।
इस तरह मैंने अध्ययन के तीन चरणों को देखा है। इसकी आवश्यकता के बारे में आगे चल कर संवाद होगा, और निर्णय होगा।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (आंवारी आश्रम, १९९८)
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