प्रमाणों की उपलब्धि में हम तृप्त होते हैं। मानव यदि समझदारी को प्रमाणित करता है - तो वह एक उपलब्धि है। समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व जब व्यवहार में प्रमाणित होता है, तो फल-स्वरूप हम तृप्त होते हैं। इससे हमारे समझे होने की गवाही भी हो जाती है। साथ ही, दूसरे को हमारे समझे होने का पता चलता है। इस तरह "तृप्ति-स्थली" सह-अस्तित्व में ही है।
समझदारी "मूल पूंजी" होते हुए, समझदारी के व्यवहार में प्रमाणित होने से जो तृप्ति पूंजी के रूप में मिलती रहती है - उसको जीवन अपनाता ही रहता है। इस तरह समझदारी को उपार्जित करना एक बात है, समझदारी को व्यवहार-अभ्यास और कर्म-अभ्यास में प्रमाणित करना दूसरी बात है। समझदारी को उपार्जित करना "अध्ययन" है। अध्ययन पूर्वक उपार्जित समझदारी को प्रमाणित करना "अभ्यास" है।
अध्ययन पूरा हुआ - इसका मतलब है, व्यवहार और प्रयोग में प्रमाणित करने के लिए हम उद्यत हो गए। अध्ययन होने के बाद समझदारी स्वरूपी उपलब्धि को प्रयोग और व्यवहार में प्रमाणित करना हम शुरू करते हैं। जैसे ही अध्ययन पूर्वक बोध हुआ, उसको प्रमाणित करने के लिए हम संकलिप्त हुए। इसका नाम है - "ऋतंभरा"। ऋतंभरा का मतलब ही है - सत्य से भरी हुई संकल्प। जैसे मधुमख्खी के छत्ते में शहद भर जाता है, वैसे ही सत्य से भरी हुई संकल्प का नाम है - ऋतंभरा! यह संकल्प जब कार्य और व्यवहार में प्रमाणित होने लगता है तो समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व ही प्रमाणित होता है। जब कभी भी हम संकल्पित हुए - तो हमारे अनुभव के प्रमाणित होने के pulses शुरू हो जाते हैं! उसको कोई रोक नहीं सकता! प्रमाणित होने के संकल्प को रोकने वाली ताकत इस अस्तित्व में नहीं है! सत्य-संकल्प प्रमाणित हो कर ही रहेगा!
अभ्युदय के अर्थ में सभी कायिक-वाचिक-मानसिक, कृत-कारित-अनुमोदित क्रियाकलाप "अभ्यास" है। अभ्यास में क्या करना है? समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व को प्रमाणित करना है। यही "व्यवहार-प्रमाण" का स्वरूप है। मानव-जाति में इसके लिए सहमति उपार्जित करना जरूरी है या जरूरी नहीं है? - इस पर प्रकाश डाला जाए! क्या यह सहमति उपार्जित कर पायेंगे? - इस में आप का क्या कहना है? यदि सभी में यह सहमति और स्वीकृति होता है तो "सार्वभौम व्यवस्था" हो जाएगा।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (१९९८, आन्वरी आश्रम)
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