अध्ययन में मन लगना यदि पूरी ईमानदारी के साथ हो जाता है, तब यह पूरा होता है। अध्ययन करने के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है। अध्ययन करते समय अभी आप जो कर रहे हो, उसके प्रति कोई त्याग-वैराग्य की बात आता नहीं है। आप अध्ययन करते रहो, कोई एक क्षण ऐसा आएगा, कोई ऐसी जगह आयेगी - जब मानव-चेतना आपको स्वीकार हो जायेगी। उस बिन्दु तक अध्ययन है। जिस तरह एक पत्ता पकने के बाद वृक्ष से अपने आप गिर जाता है, उसी तरह हमारी सारी निरर्थकतायें समझदारी संपन्न होने के बाद अपने-आप गिर जाती हैं। पत्ता तोड़ने, और पत्ता गिरने में कितना फर्क है - आप ही सोचिये। अपनी निरर्थकताओं को दूर करने के लिए कोई अलग से प्रयास करने की ज़रूरत नहीं है। अध्ययन एक पूरी तरह wound-less process है।
समझदारी आने के बाद अपने में यह तुलना होती है - हम जिस तरह से दाना-पानी उपार्जित करते हैं, उससे संतुष्ट हो सकते हैं, या नहीं? तुलन करने पर यदि हम पाते हैं कि हमारा वर्तमान तरीका ठीक है, तो किस को क्या तकलीफ है? यदि अनुकूल नहीं होता - तो जीने का दूसरा डिजाईन स्वयं में अपने आप में से ही उभर आता है। एक ही डिजाईन से सभी जियेंगे - यह भी बेवकूफी वाली बात है। हर व्यक्ति के साथ डिजाईन बदलेगा। उसमें एक चीज़ ध्रुव रहेगा - वह है स्वावलंबन की स्थिति। स्वावलंबन की स्थिति = परिवार के सदस्यों के पोषण-संरक्षण और समाज-गति में भागीदारी के लिए आवश्यक साधनों का प्रबंध करना।
यथास्थिति को बनाए रखते हुए अध्ययन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस स्थिति में आ जाएँ की अगली स्थिति आज की स्थिति से ज्यादा अच्छा है - यह हमको भी स्वीकार होना, और हमारे परिवार को भी स्वीकार होना।
"करना - नहीं करना" - यह मूढ बुद्धि की बात है।
"होना - नहीं होना" - यह विचार बुद्धि की बात है।
"यह ज़रूरत है - यह ज़रूरत नहीं है" - यह विद्वता पूर्ण बुद्धि की बात है।
"होना क्या है" - इस बात पर सोचना। "होना क्या है" - यह स्पष्ट होना चाहिए। "होने" के अर्थ में क्या करना है, क्या नहीं करना है - यह निर्धारित हो जाता है।
पहले लक्ष्य के प्रति स्पष्ट हुआ जाए। ज्ञान निश्चित हो जाता है - फलस्वरूप करना निश्चित हो जाता है। करना निश्चित करके ज्ञान निश्चित होता नहीं।
अभी तक विज्ञानवाद और आदर्शवाद कहते रहा : - "करके समझो!"
अब मध्यस्थ-दर्शन में हम कह रहे हैं - "समझ के करो!" यह सिद्धांत है।
समझने का अधिकार हर व्यक्ति के पास हर अवस्था में रखा हुआ है। चाहे अपराधी मानते रहे, चाहे राजा मानते रहे - सबको समझने का अधिकार समान है। समझने का अवसर युगों-युगों बाद आज आया है - मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान के सफल होने पर। सभी परिस्थितियां समझने के लिए अनुकूल हैं। यदि अपनी परिस्थितियों को बदलने के चक्कर में पहले पड़े - तो बखेडे में जायेंगे। हर व्यक्ति के लिए हर परिस्थिति में समाधान तक पहुँचने का रास्ता है। सामाधानित होने के बाद समृद्धि का डिजाईन अपने आप में से ही उद्गामित होता है। समाधान प्राथमिक है। समाधानित होने में कोई अमीरी, गरीबी, दुष्टता अड़चन नहीं है। यदि समाधान आपका लक्ष्य बनता है - तो हर परिस्थिति आपके अनुकूल ही बनती है, प्रतिकूल बनता ही नहीं! इस बात की महिमा यही है।
समाधान मेरा प्राथमिक लक्ष्य है - जब यह मुझमे तर्क द्वारा निर्णीत होता है - तब अध्ययन में मेरा मन लगता है। नहीं तो मन नहीं लगता।
ज्ञान-सम्पन्नता के बाद ही प्रक्रिया पक्का हो जाता है। प्रक्रिया से ज्ञान स्पष्ट नहीं होता। विगत में "कर के समझो" पर जोर दिया गया। उसी को तप माना। अब आपके सामने यह प्रस्ताव है - "समझ के करो!" इससे trial and error वाली सारी कथा ही समाप्त हो गयी। trial and error में घाटे की स्थिति भी आ सकती है। समझ के करो - पूरी तरह economical है। इस तरह इस बात के साथ "छोड़ने-पकड़ने' का झंझट ही समाप्त हो गया। पहले समझ लो - फ़िर निर्णय करो, क्या छोड़ना है - क्या पकड़ना है! समझने के बाद क्या आवश्यक है, क्या अनावश्यक है - यह स्वयं में विश्लेषित हो जाता है। आवश्यक को पकड़ना, या पकड़े रहना होता है। अनावश्यकता को छोड़ना होता है। "त्याग" की परिभाषा ही है - "अनावश्यकता का विसर्जन"।
समझने में कोई "मात्रा" नहीं होती। ज्यादा समझे-कम समझे जैसी कोई बात नहीं होती। या तो समझे, या समझने की अपेक्षा रही। १० क्रिया में समझे, ४.५ क्रिया में समझने की अपेक्षा रही। समझना = बोध। बोध अपूर्ण नहीं होता।
हमारे पूर्वजों ने - ऋषि, मह्रिषी, सिद्ध, महापुरुषों ने - अनेक तरह की "अभ्यास विधियां" सुझाई जिसमें "करके समझो!" वाली बात को प्रस्तावित किया गया। इन अभ्यास-विधियों को "तप" माना। "तप" के लोकसुलभ होने का कोई रास्ता वे निकाल नहीं पाये।
तर्क विधि से यह प्रस्ताव पूरा पड़ता है। व्यवहारिक विधि से इसके पूरा पड़ने के लिए आपको इसे समझना ही पड़ेगा। और दूसरा कोई रास्ता नहीं है। यदि समझ में आ गया तो आपसे छूटने वाली कोई बात नहीं है। यदि समझ में आ गया है - तो आपसे कुछ क्यों छूटेगा?
"समझ" शब्द स्वयं (जीवन) में जागृति हो जाने को ही इंगित करता है। उससे पहले "सुनी हुई बात" ही है।
समझ "ज्यादा" और "कम" की उपाधियों से मुक्त है। "समझे हैं" या "नहीं समझे हैं" - इतना ही है।
सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व को समझना, और जीवन को समझना। ये दोनों यदि समझ में आता है, तो बाकी सब उससे अपने आप निकल आता है।
दृष्टा समझ में आने पर दृश्य स्पष्ट होता है। जीवन ही दृष्टा है। जीवन ४.५ क्रिया में कितने भाग का दृष्टा है, और १० क्रिया में कितने भाग का दृष्टा है - यह मध्यस्थ-दर्शन में स्पष्ट किया गया है। ४.५ क्रियाओं द्वारा जीवन संवेदनाओं का दृष्टा रहता है। १० क्रिया के साथ जीवन सह-अस्तित्व में दृष्टा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)
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