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Thursday, June 19, 2008

समाधान की गति समृद्धि के साथ है.

समझदारी के बाद ही हमारा न्याय-पूर्वक, समाधान-पूर्वक जीना बनता है। समाधान की गति समृद्धि के साथ है।

मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्तुत होने के पहले ऐसा सोचा जाता था - "साधना करने वाले लोगों की ज़रूरतों के लिए समाज उपलब्ध कराएगा।"  इस तरीके से साधना करने वाले साधना ही करते रह गए। साधना के फल को समाज और परम्परा तक पहुँचा नहीं पाये। जिस समाज ने साधना करने वालों को संरक्षण दिया - उस समाज की गति के लिए उनसे कोई सूत्र नहीं निकला। इस तरीके से व्यक्तिवाद और समुदायवाद ही निकला। अब जब धरती ही बीमार हो चुकी है, तब यह प्रश्न उठ चुका है - "समाज कब तक इन साधना करने वालों को अघोरे? विकल्प को क्यों न तलाशा जाए, जांचा जाए?"

समृद्धि के साथ ही हम समाधान को गतिशील बनाते हैं, प्रमाणित करते हैं। समझने के बाद कोई चोरी अपराध नहीं कर सकता। समझने के बाद समृद्धि भावी हो जाती है। समाधान-समृद्धि के बिना कोई व्यवस्था में जी नहीं सकता। व्यवस्था का पूरा ढांचा-खांचा समाधान समृद्धि पर आधारित है। समाधान-समृद्धि प्रमाणित होने के बाद आदमी के पास उपकार करने के अलावा कुछ बचता भी नहीं है! Public-money या दान-चंदा आदि से इक्कट्ठा किए पैसे से उपकार तो नहीं हो सकता। यदि जनता के पैसे से दाना खाते हैं तो हवाबाज़ी के अलावा हम कुछ कर भी नहीं सकते। हवाबाज़ी का मतलब - दूसरों का पैसा मारना, और भाषण-बाज़ी करना। समाधान-अधिकार में परमुखापेक्षा स्वीकृत नहीं होता। समस्या से ग्रसित व्यक्ति ही परमुखापेक्षा करता है।

अभी जीवचेतना में यह मान्यता और अपेक्षा बनी है, की कमाऊ पूत बच्चों, बड़ों, और दाम्पत्य का पोषण करेगा। यह रोटी-पानी की अपेक्षा पुरुषार्थियों से ही रहता है। अब हमको पुरुषार्थी के साथ परमार्थी भी होना है। समझदारी से संपन्न होने के लिए आप अभी इसके लिए जो दासता करते हो, वह कोई अड़चन नहीं है। समझदारी से संपन्न होने के बाद यह आता है - हम समृद्धि पूर्वक इन दायित्वों को भी पूरा कर सकते हैं।

जीवचेतना में चले संसार को झेलने के बाद ही हम समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने के लिए स्वयं तैयार हो पाते हैं। इसको घायल बना कर, काट कर कोई रास्ता नहीं है।

हम जब पूरा समझ जाते हैं, हमको अपने में समृद्धि-पूर्वक जीने की तमीज आ जाती है। उसमें परिवार-जनों की भी संतुष्टि हो जाती है, इसलिए हम अच्छे कामो में लग सकते हैं। यह बात हर व्यक्ति के पकड़ में आ सकता है। मेरे पकड़ में यह आ सकता है, तो बाकी लोगों के पकड़ में कैसे नहीं आयेगा? साधना काल में मैं विरक्ति विधि से ही रहा। ५५ वर्ष की आयु में मैं जब समाधि-संयम से उठने के बाद समृद्धि के लिए (कृषि, गोशाला, आयुर्वेद) कार्यक्रम बनाने में लगा। उत्पादन कार्य में लगने के लिए आप सभी की स्थिति मेरी उस समय की स्थिति से ज्यादा अच्छी है!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित। (अगस्त २००६)

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