यह कुल मिला कर श्रेष्ठ क्या है - इसको तय करने की बात है।
जीव-चेतना में हम जितना भी करते हैं, उसका गम्य स्थली सुविधा-संग्रह ही है। सुविधा-संग्रह में पहुँचना अच्छा लगता तो है - पर इसका कोई तृप्ति-बिन्दु नहीं है। सुविधा-संग्रह का तृप्ति बिन्दु अभी तक किसी को मिला नहीं है, आगे मिलने की सम्भावना भी नहीं है। इस जगह में हमको पहुँचना है। यहाँ यदि पहुँच जाते हैं, तो मानो हममे मानव-चेतना की अपेक्षा बन गयी। मानव-चेतना को पाने के लिए हमारा मन जो लगता है, उसे हम "ध्यान" कहते हैं। ध्यान देना = मन लगना। अध्ययन में यदि मन लगता है, तो शनै-शनै हम मानव-चेतना को लेकर स्पष्ट होते जाते हैं। एक दिन ऐसा बिन्दु आता है, जब वह हमारा स्वत्व हो जाता है। उसी बिन्दु से जागृति प्रकट होती है।
ध्यान, अभ्यास आदि की जो परम्परा-गत विधियाँ हैं, वे इसको नहीं छूती। इन विधियों से स्वयं का प्रयोजन और दूसरों का उपकार - दोनों सिद्ध नहीं होता।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६ में)
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