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Sunday, March 25, 2018

इस प्रस्ताव को इन्टरनेट पर ले जाने का तरीका

कोई भी धर्म ऐसा नहीं है जो स्वधर्म-विधर्म को सोचा नहीं है.  विधर्म को स्वीकारते हुए क्या कोई अपने-पराये से मुक्ति का सुझाव प्रस्तुत कर सकता है?

जिस संविधान में सीमा और सीमा-सुरक्षा के लिए युद्ध को वैध स्वीकारा हो - क्या वह सीमाओं से मुक्त विश्व का कोई सुझाव प्रस्तुत कर सकता है?

धर्म और संविधान जिसको "न करो" बताते रहे, वही बढ़ता रहा.  "क्या करना है" - यह पता नहीं चला.  एक के बाद एक और बड़े अपराध करने, धरती को और ज्यादा घायल करने, मानव का और शोषण करने की बात निकल के आ रही है.  सुविधा-संग्रह लक्ष्य के चलते सभी मानवों का सोच इसी के लिए अर्पित हुआ है.  अभी जो मानसिकता संसार में है उससे सकारात्मकता का सूत्र कैसे निकलेगा? उनसे हम क्या प्रश्न करें?  कैसे प्रश्न करें?

विगत में आदर्शवादी विधि से भी हम नकारात्मक भाग में गए और भौतिकवादी या विज्ञान विधि से तो पूरा नकारात्मक भाग में जा ही रहे हैं.  इन दोनों विधियों से जो मानसिकता बनती है वह ज्यादा-कम हर व्यक्ति के पास पहुंचा है.  इससे लोक मानसिकता में सुविधा-संग्रह का लक्ष्य बना.  उसके लिए प्रयास है - जो बाज़ार में वस्तुएं हैं उनको इकठ्ठा करना.  उसके लिए पैसा चाहिए.  पैसा चाहे कैसे भी आये - चोरी से, डाका से, व्यापार से, नौकरी से...  ये सब करने के बाद भी किसी का सुविधा-संग्रह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ.  यह यथास्थिति है.  अब सुविधा-संग्रह मानसिकता में लिप्त संसार से हम क्या उत्तर पायेंगे? 

सुविधा-संग्रह में ग्रस्त रहते हुए कोई सुविधा-संग्रह से मुक्त होने के विचार को पैदा नहीं कर सकता.  युद्ध मानसिकता से युद्ध मानसिकता से मुक्ति का विचार नहीं निकल सकता.  व्यापार मानसिकता से शोषण मुक्ति का विचार नहीं निकल सकता.  द्रोह-विद्रोह मानसिकता से न्याय का विचार नहीं निकल सकता.

इनसे हमे उत्तर मिलेगा यह भरोसा हमारा ख़त्म हो गया. 

प्रश्न:  इन्टरनेट के बारे में आपका क्या सोचना है?

उत्तर:  इन्टरनेट में सभी सूचनाओं को लाइब्रेरी बना के रख रहे हैं.  जो पहले जमीन पर था उसको अब आकाश में रख रहे हैं.  लेकिन लाइब्रेरी बनाने से क्या उद्धार हो गया? 

प्रश्न:  इन्टरनेट में सब नकारात्मक ही तो नहीं है, सकारात्मक भी तो है?

उत्तर:  अधिकांशतः लोग नकारात्मक पक्षों को देखने में ही लगे हैं.  सकारात्मक को देखने की इच्छा वाले इने-गिने हैं.  इन्टरनेट में वही है जो अभी संसार में प्रचलित है.  उसमे जो "सकारात्मक" जैसा लगता है उससे कोई निष्कर्ष निकलता नहीं है.  उस "सकारात्मकता" को हम अपना लें, उसका लोकव्यापीकरण कर दें - ऐसा उसमे कुछ नहीं है. 

यहाँ हम संसार में जो प्रचलित है उसके विकल्प स्वरूप में जो बातचीत करते हैं, वह सही में सकारात्मक है, अपने में हमारा यह स्वीकृति हुआ है.

प्रश्न:  इस बात को इन्टरनेट के माध्यम से जन सामान्य तक पहुंचाने का क्या सही तरीका होगा?

उत्तर:  सम्पूर्णता के साथ प्रस्तुत करने का तरीका है - ज्ञान को लेकर यह विकल्प प्रस्तुत हो गया है, जिसको अध्ययन करके समझा जा सकता है, और जीने में प्रमाणित किया जा सकता है.  यह सूचना दी जा सकती है.

प्रश्न:  संसार से जुड़ने के लिए अपनी बताने के साथ-साथ उनकी चाहत को भी तो कुछ पूछना पड़ेगा?

उत्तर:  मानव की चाहत को लेकर आप पूछ सकते हैं - ये चाहते हो या वो चाहते हो.  यदि आप संसार से पूछोगे आप क्या चाहते हो?  - तो उससे कुछ नहीं निकलेगा! 

(मध्यस्थ दर्शन के अनुसार) सकारात्मक चाहत का स्वरूप आप पहले रखिये, फिर पूछिए - ये चाहते हैं या नहीं चाहते हैं?  इसको अन्गुलिन्यास कर के संसार में जो दिग्गज कहलाते हैं, उनसे पूछा जाए!  इसको dilute करने से इसका उत्तर ही नहीं मिलेगा.

तकनीकी/यंत्र से इसका कोई उत्तर नहीं निकलेगा.  उत्तर तो कोई व्यक्ति ही देगा और व्यक्ति ही उत्तर को स्वीकारेगा. 

अब लोगों से पूछने के लिए - पहले सकारात्मक प्रेरणा रुपी मुद्दों को रखा जाए.  ये चाहिए या नहीं चाहिए - इसको पूछा जाए. 

उसके बाद उस चाहत को साकार करने के लिए कार्यक्रम प्रस्तावों को रखा जाए.  आप इनको करना चाहते हो या नहीं - यह पूछा जाए.

उसके बाद व्यवस्था में जीने के लिए प्रेरणास्पद मुद्दों को रखा जाए.  आप ऐसा जीना चाहते हो या नहीं चाहते हो - यह पूछा जाए.

इस ढंग से अपने अनुसार इस प्रस्ताव को इन्टरनेट पर ले जाने का तरीका बनता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक) 

Wednesday, March 21, 2018

प्रबोधन क्यों और कैसे - भाग ४


जीव चेतना विधि से मानव का शिक्षित होना नहीं हुआ.  जीवचेतना की शिक्षा में हम नौकरी और व्यापार के लिए पढ़ाई किये.  पहले जब शिक्षा कुछ ही लोगों के पास थी तो इस शिक्षा से नौकरी-व्यापार करना सार्थक हो जाता था.  अब जब सबको शिक्षा मिलने लगी तो वह सार्थक होना बंद हो गया.  इस शिक्षा के विकल्प की आवश्यकता है.

शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम बनाने की आवश्यकता होती है.  उसमे पाठ्यपुस्तकों की पहचान करने की बात होती है.  स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर के लिए मध्यस्थ दर्शन वांग्मय है.  कक्षा १ से कक्षा ५ तक का पाठ्यक्रम हम तैयार कर चुके हैं.  बाकी सात कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम लिखना अभी शेष है.  उसके लिए मैं सोचता हूँ हमारे साथ जो विद्वान लोग जुड़े हैं, वे मिलके उसको लिखें.  आप से लिखना नहीं बनता है तो मेरे पास बैठो, मैं लिखा देता हूँ!

प्रश्न:  जीवन विद्या शिविर कार्यक्रम के बारे में आपका क्या मंतव्य है?

उत्तर:  जीवन विद्या शिविर प्रौढ़ शिक्षा या लोक शिक्षा विधि है.  उसको सुनने मात्र से उत्साह वर्धन होता है.  यह उत्साह सकारात्मक है - यह भी देखा गया.  ऐसा देखने पर यही बनता है कि इनके प्रतिभागियों को आगे अध्ययन कराया जाए.  उनको सीधे-सीधे जीवन का अध्ययन, अस्तित्व का अध्ययन और मानवीयता पूर्ण आचरण का अध्ययन से शुरू कराया जाए.  क्रमिक शिक्षा में हम ७वीं या ८वीं कक्षा में अस्तित्व दर्शन ज्ञान का ज़िक्र करते हैं - दोनों में यह अंतर है. 

जीवन विद्या शिविर से ७ दिन में सूचना दी जाती है कि यह समझने योग्य वस्तु है.  जीवन विद्या शिविर में क्या बताना है उसको "जीवन विद्या - अध्ययन बिंदु" नामक पुस्तिका में लिख कर दे दिया है. 

जीवन विद्या शिविर सर्वशुभ की सूचना का एक कार्यक्रम है.  सर्वशुभ के लिए क्या-क्या समझने की आवश्यकता है - यह सूचना देने के लिए जीवन विद्या शिविर है. 

मेरा किसी से आग्रह नहीं है कि आप अध्ययन करो ही!  यह प्रस्ताव रखा है - आपकी इच्छा है तो आप इसका अध्ययन करो.  आपकी इच्छा नहीं है तो मत करो!  हर व्यक्ति अपने मन से, विचार से, इच्छा से स्वतन्त्र है.  इच्छा होगी तो वह इसका अध्ययन करेगा, इच्छा नहीं होगी तो नहीं करेगा. 

क्या मेरी इस नीति से आप सहमत हैं?

इस पूरे कार्यक्रम में शिकायत करने की कोई जगह नहीं है.  आप चाहे इस रास्ते पर एक कदम चलें, या दस कदम चलें, आप जितना इसमें चलें उतने तक में इसकी सार्थकता दिखाई पड़ती है.  इस कार्यक्रम में कहीं काली दीवाल के पास जाने का कोई जुगाड़ ही नहीं है. 

यह प्रस्ताव सर्वमानव की ज़रुरत है - इसका हम निवेदन ही करते हैं.  मानव के नासमझी से अपराध हुआ है, फलस्वरूप धरती बीमार हो गयी है.  क्या मानव को नासमझ ही रहना है?  इसका उत्तर "नहीं" ही निकलता है, समझदार होने की आवश्यकता है - यही कहना बनता है.  समझदारी के लिए यह एक छोटा सा प्रस्ताव है.  सूचना हम देंगे, जिसको समझने की इच्छा है वे इसका अध्ययन कर सकते हैं.  सूचना के बिन्दुओं के विस्तार में जाना, स्वत्व बनाना, प्रमाणित होना - ऐसा जिसके मन में आता है, वह अध्ययन करेगा.  सूचना पहुँचते तक हम अध्ययन का ज़िक्र करते ही नहीं हैं.  पहले शिविर करिए, फिर ज़रुरत होगा तो अध्ययन करिए.  ये किताबें हमने बेचने के लिए तैयार नहीं की हैं!  इस पूरे कार्यक्रम में हमारे ऊपर आक्षेप का जगह नहीं है.  पूरी धरती के ७०० करोड़ लोग मिलके भी कोशिश कर लें तो भी इस कार्यक्रम के साथ शिकायत या आक्षेप नहीं कर पायेगा. 

मैं यह दावा करता हूँ - अपराध बुद्धि से ही इस कार्यक्रम पर कोई शिकायत या आक्षेप किया जा सकता है.  यह दावा मेरा व्यक्तिगत है.  इसमें मैं और किसी को involve नहीं करता हूँ. 

इस कार्यक्रम का एक अपना प्रभाव हुआ है, जो सकारात्मक होना गवाहित हुआ है.  तो इसको बनाए रखा जाये या नहीं?  बनाए रखा जाए!  - यही सज्जनता का उत्तर बनता है.

प्रश्न:  प्रबोधकों की प्रस्तुति में गुणवत्ता के बारे में आपका क्या मंतव्य है?

उत्तर:  प्रबोधकों की प्रस्तुति में गुणवत्ता की जहां तक बात है, उसमे देखा गया कि हर बार प्रबोधन करने के बाद अगली बार गुणवत्ता बढ़ती ही जाती है.  नीचे कोई आता ही नहीं है!  हर बार कोई नयी बात उजागर होता है, कम कुछ होता ही नहीं है.  इस तरह कुनबा जुड़ता गया है. 

प्रश्न:  प्रबोधक के अधूरे में रहते हुए भी कैसे काम चल जाता है?

उत्तर:  लोग हमारे पास हमे "अच्छा आदमी" मानके ही आते हैं.  अच्छाई को लेकर उनके पास पहले से भी कोई चित्रण रहता है.  उनको हम इस बात को अपनी अधूरी स्थिति में भी जैसे भी प्रस्तुत करते हैं - उनके लिए फिर भी नया होता है!  नया होने से उनमे एक उत्सव तो होता ही है! अब प्रस्तुति के बाद हम अपनी प्रस्तुति में कहाँ कमी रहा, उसको भरने की कोशिश करते ही हैं.  अभी तक जितनो ने भी जीवन विद्या का प्रबोधन किया - उन्होंने यही पाया!  अच्छाई के बाद अच्छाई की पूर्णता के लिए आदमी दौड़ता ही है!  उस विधि से पूरी बात एक दिन approach में आ जाती है.  दर्शन का सूचना पहले से रहता ही है, उसको आवश्यकता होने पर refer करते ही हैं.  एक शिविर के बाद दूसरे शिविर में और अच्छापन आता ही जाता है. 

लोगों ने स्वयंस्फूर्त इस कार्यक्रम में अपने तन-मन-धन को लगाया है.  इसको क्या कहा जाए?  क्या इसको स्वप्न कहें?  उन्माद कहें?  वास्तविकता कहें?  आवश्यकता है, कहें?  आवश्यकता नहीं है, कहें?  इस पर चर्चा हो सकती है.  इसके लिए मैंने अपना दरवाजा खुला रखा है. 

अभी तक घटनाक्रम ही है, अभी गम्य-स्थली में पहुँच गए - ऐसा न माना जाए.  लेकिन ये घटनाक्रम गम्य-स्थली की ओर है - ऐसा निर्णय हम ले सकते हैं.  जीवन विद्या कार्यक्रम से जिन परिणितियों को हम देख रहे हैं, उसको देख के मैं यह घोषणा कर सकता हूँ कि यह कार्यक्रम गम्यस्थली/लक्ष्य की ओर है.  भले ही धीरे गति हो या जल्दी गति हो.  सभी समान गति से जा रहे हैं, ऐसा भी नहीं है.  समान उद्देश्य से जा रहे हैं - यह सही है.  इस प्रकार गतिशील रहते हुए हम गम्यस्थली पर पहुंचेंगे - यह अरमान बनता है.  इसी गति से चलें, इससे धीरे चलें, या इससे ज्यादा गति से चलें - इस तरीके से चलके हम गम्यस्थली पर पहुँच जायेंगे, यह अरमान निर्मित होता है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)


प्रबोधन क्यों और कैसे - भाग ३

प्रबोधन की आवश्यकता, सार्थकता, प्रयोजन आपको स्वीकार होता है या नहीं?  मानव चेतना के लोकव्यापीकरण के लिए, मानवीयता प्रमाणित होने के लिए, मानवीय संविधान प्रभावित होने के लिए, मानवीयता पूर्ण आचरण हर मानव में प्रमाणित होने के लिए, हर मानव के व्यवस्था के प्रति स्पष्ट रहने के लिए प्रबोधन की आवश्यकता है. इसमें अनुभवगामी पद्दति से अध्ययन और अनुभवमूलक विधि से प्रबोधन का प्रावधान है.  यह निर्विवाद कार्यक्रम है.  इसको पूरा समझने के बाद, जीने के बाद यदि इसमें कोई कमी हो तो पुनः शोध करने की सोचा जा सकता है.  अभी तक तो यह पूरा पड़ता दिखता है.

दिव्य मानव परम्परा में सहअस्तित्व प्रमाण सुलभ हो जाता है.  देवमानव परंपरा में स्वाभाविक रूप में सर्वतोमुखी समाधान प्रमाण सर्वसुलभ हो जाता है.  वर्तमान में हम मानव और देवमानव पद की स्पष्टता पर जोर दे रहे हैं, जिससे मानव कम से कम मानव चेतना स्वरूप में प्रमाणित हो सकता है.

मानव चेतना में हर व्यक्ति को सुखी होना है.  मानव चेतना में क्लेश का कोई नामोनिशान नहीं है.  ठोकबजाऊ बात इतना ही है.  इसको हम और बल दे के, अपनी साहसिकता को नियोजित करके, संसार के साथ उपकार कार्य में लग गए.


प्रबोधन का लक्ष्य है - जिसको प्रबोधित कर रहे हैं, उसको समझ में आना चाहिए. 

प्रबोधन कैसे का उत्तर इस प्रकार है: -

प्रबोधन के लिए भाषा चाहिए.  कौन भाषा प्रयोग करेगा?  इसका उत्तर है - समझदार व्यक्ति.  अनुभवमूलक विधि से जो व्यक्त होता है वही समझदार है.  अनुभवगामी पद्दति से अध्ययन और अनुभव मूलक विधि से प्रमाण. 

भाषा में जो कह रहे हैं वह जिस वस्तु का नाम है वह वस्तु भास-आभास हो जाए, प्रतीत हो जाए, बोध हो जाए.

भाषा-भाव-मुद्रा (मूल्य या वस्तु को इंगित करने के लिए) -भंगिमा-अंगहार (body language) सहित हम प्रबोधन करते हैं.  भाषा लिखित रूप में रहेगी, चित्र रहेगा समझाने के लिए.  ध्वनि - आवश्यकता अनुसार जोर से या धीरे से बोलने की शिष्टता रहेगी.  सामने व्यक्ति को समझने वाला मानने के भाव से प्रबोधित करने की आवश्यकता है.  अध्ययन के हैडलाइन के नीचे ही सारे कार्यक्रम हैं.  शिविर, चर्चा, परिचर्चा, संवाद, संगोष्ठी - ये सब अध्ययन के ही अंगभूत हैं. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Sunday, March 18, 2018

प्रबोधन क्यों और कैसे - भाग २

प्रबोधन पूर्णता के अर्थ में मानव में विश्वास स्थापित करने के लिए है.  पूर्णता को जीने में प्रमाणित करने की अर्हता को स्थापित करने के लिए प्रबोधन करते हैं.

पूर्णता है - गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता और आचरण पूर्णता

इस धरती पर गठनपूर्णता प्राकृतिक रूप से हो चुकी है.  बाकी दोनों स्थितियों को सम्भावना रूप में रखा है. 

गठनपूर्ण परमाणु जीवन स्वरूप में काम करता है.  हर मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है.  मानव परंपरा में अपराध मुक्ति, अपने-पराये से मुक्ति और क्लेश मुक्ति के लिए जीवन में क्रिया पूर्णता और आचरण पूर्णता की आवश्यकता बन गयी.  क्रियापूर्णता सर्वतोमुखी समाधान स्वरूप में प्रमाणित होता है.  उसके मूल में मानव चेतना ही वस्तु है.  चेतना का मतलब है - ज्ञान.

ज्ञान है - अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान.  इन तीनो ज्ञान के एकत्र होने से मानव चेतना है.  मानव चेतना में क्रियापूर्णता स्पष्ट होती है जो सर्वतोमुखी समाधान स्वरूप में प्रमाणित होती है.  सर्वतोमुखी समाधान ही मानव चेतना का स्वरूप है, जिसको अध्ययन कराने की व्यवस्था दिया है.  अध्ययन विधि से ये गम्य होता है. 

इतनी बात को पांचवी कक्षा तक के बच्चों को बोध करा सकते हैं या नहीं? 

शिक्षा परंपरा हर व्यक्ति को समझदार बनाने के लिए जिम्मेदार है.  अभी की शिक्षा हरेक को नौकरी और व्यापार में लगाने के लिए है.  हर व्यक्ति नौकरी या व्यापार करे - क्या यह संभव है?  इसके विकल्प में मानव चेतना विधि से समझदारी पूर्वक व्यवस्था में जीने की बात आयी.  यदि मानव समझदार होता है तो उसमें मानवीयता पूर्ण आचरण स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है.  संबंधों में मूल्य, चरित्र, नैतिकता प्रमाणित होता है.

मानवीयता पूर्ण आचरण का बोध माध्यमिक कक्षा के बच्चों को करा सकते हैं या नहीं?

मानवीयता पूर्ण आचरण का निश्चयन होने पर हम व्यवस्था में जीने की बात करते हैं.  व्यवस्था का सूत्र है - मानव मानवत्व सहित व्यवस्था है (परिवार में) और समग्र-व्यवस्था में भागीदार है (दस सोपानीय व्यवस्था में).   दस सोपानीय व्यवस्था में भागीदारी करना और परिवार में प्रमाणित होना - यह हर मानव की आवश्यकता है. 

"मानव" शब्द में नर-नारी दोनों समाहित हैं. 

  • समझदारी में हर नर-नारी समान हैं.
  • जीवन गठन रूप में हर नर-नारी समान हैं.
  • जीवन क्रिया रूप में हर नर-नारी समान हैं.
  • मानव लक्ष्य रूप में हर नर-नारी समान हैं.
  • व्यवस्था में भागीदारी करने में हर नर-नारी समान हैं.
  • मानवीयता पूर्ण आचरण करने में हर नर-नारी समान हैं.  
इस तरह नर-नारी में समानता के बिन्दुओं के आधार पर मानव-अधिकार भी स्पष्ट होते हैं.  मानव अधिकार की चाहत और नर-नारी में समानता की चाहत मानव परंपरा में है.  यह समानता की चाहत जीव-चेतना में सफल नहीं हो सकती और मानव-चेतना में यह चाहत सफल हुए बिना रह नहीं सकती.  इसको क्या प्रबल बनाया जाए या इसका अनदेखी किया जाए?  प्रबल बनाना है तो इसके लिए जी-जान लगाना पड़ेगा.

मानव चेतना के अध्ययन के लिए जितना प्रबंध की आवश्यकता है उसको दर्शन-वाद-शास्त्र स्वरूप में प्रस्तुत कर दिया.  उसको हम स्नातक कक्षा में पढ़ाने, समझने, समझाने को कह रहे हैं.  इसमें प्रवेश के लिए जीवन विद्या शिविरों की परंपरा स्थापित की है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

प्रबोधन क्यों और कैसे - भाग १



मनुष्य अपनी परस्परता में बात करता है.  एक दूसरे के साथ संभाषण में हमारा कोई न कोई उद्देश्य रहता ही है.  इस संभाषण में हम कुछ समझते हैं, कुछ नहीं समझते हैं - इस तरह से अभी तक हम चले हैं.  संभाषण में कुछ भी हम बोले उसका अर्थ दूसरे तक स्पष्टतया पहुँच जाए - यह अपेक्षा सब में है.

प्रबोधन का परिभाषा है - प्रखर रूप में (या स्पष्ट रूप में) सामने व्यक्ति को बोध होने के लिए भाषा का प्रयोग करना.

दूसरा परिभाषा है - प्रबुद्धता संपन्न होने के लिए भाषा का प्रयोग करना

शब्द के साथ अर्थ रहता ही है, वह अर्थ सामने व्यक्ति को स्वीकार हो जाए - उसको कहा "प्रबोधन".  यदि केवल शब्द का श्रवण हुआ, अर्थ स्वीकार नहीं हुआ - उसको कहा "पठन".   प्रबोधन विधि से अर्थ बोध होता है.

मानव परंपरा में प्रबोधन की आवश्यकता है या नहीं - इस पर हमे प्रकाश डालना है.

प्रबोधन ही संबोधन है.  "संबोधन" शब्द से आशय है - पूर्णता के अर्थ में बोध हो जाए.  अभी तक की परंपरा में पूर्ण वस्तु ब्रह्म को माना.  ब्रह्म को ही सत्य और ज्ञान होना बताया.  साथ ही ब्रह्म को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बता दिया.  उसके विकल्प में यहाँ बता रहे हैं - गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता सहअस्तित्व में स्पष्ट हैं.  उसको बोध कराने के लिए "अस्तित्व में परमाणु का विकास" नाम से एक प्रकरण ही दिया है.  परमाणु में विकास-क्रम और विकास को मैंने देखा है.  इस गवाही के साथ इसको प्रस्तुत किया है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)


Saturday, March 17, 2018

इच्छा



इन्द्रिय की परिभाषा है - इच्छा पूर्वक द्रवित होने वाला अंग.  मानव जीवन में इच्छा होती है.  इच्छा का स्वरूप ही है - ये चाहिए, ये नहीं चाहिए.  इसी इच्छा के साथ ये सारी इन्द्रियां स्पंदित होती हैं.  आँखों के साथ देखने की इच्छा जुड़ी हो तभी देख पाते हैं.  आँख में प्राणकोशा जीवंत रहता है, पर उसके साथ यदि इच्छा का पुट न हो तो देखना नहीं बनेगा.  इच्छा नहीं हो तो चमड़ी पर स्पर्श का पता नहीं चलेगा.  सुनने की इच्छा न हो तो कान से सुनेगा नहीं.  सूक्ष्म-सूक्ष्मतम अध्ययन की बात है यह.  यथास्थितियों को निर्धारित करने के लिए ये सब अवयव हैं.

प्रश्न:  क्या इसी इच्छा के आधार पर हम अध्ययन करते हैं?

उत्तर:  प्रमाणित करने की इच्छा के लिये जब हम चित्रण करते हैं तो जो चित्रण में समाता नहीं है, वह साक्षात्कार में स्वीकार हो जाता है.  इस तरह जीवन में वस्तुओं के स्वभाव-धर्म का साक्षात्कार होने का प्रावधान है.  साक्षात्कार जो होता है, उसका बोध और अनुभव हो ही जाता है.  उसमे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता.

भ्रमित रहते तक हम बिना साक्षात्कार के रूप और गुणों का चित्रण भर करते थे.  संवेदनशीलता की सीमा में हम जो चित्रण करते हैं, वह साढ़े चार क्रिया से आगे जाता नहीं है.  इसी का नाम है - अनदेखी, अनसुनी और नासमझी.

अनुभव के बिना स्वभाव और धर्म को चित्रित करना संभव नहीं है.  स्वभाव और धर्म को चित्रित किये बिना हमारी बनायी कोई भी योजना अधूरी है.  योजना अधूरी होगी तो उसका फल-परिणाम भी अधूरा होगा.  इस बात की गवाही हो चुकी है - धरती बीमार होने के रूप में.


- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

पुष्टि धर्म को समझना



"पुष्टि धर्म" के बारे में जो श्रवण हुआ, उसका न्याय-धर्म-सत्य के अर्थ में तुलन होता है तो उसका साक्षात्कार होता है.  यदि न्याय-धर्म-सत्य के स्थान पर प्रिय-हित-लाभ के अर्थ में तुलन होता है तो उसका साक्षात्कार नहीं होता, वह चित्रण तक ही रह जाता है.

पुष्टि धर्म शरीर प्रक्रिया के साथ जुड़ा है.  संतान उत्पत्ति पुष्टि-धर्म का प्रमाण है.  संतान उत्पत्ति प्राणावस्था की पुष्टि है. 

प्रश्न:  पुष्टि धर्म वस्तु स्वरूप में क्या है?

उत्तर:  वस्तु स्वरूप में पुष्टि धर्म प्राणसूत्र बनने का स्त्रोत है.  प्राणसूत्र में पुष्टि-तत्व और रचना-तत्व रहते हैं.  पुष्टि-तत्व और रचना-तत्व के किसी एक मात्रा में जुड़ने से उनमे रचना-विधि आ जाती है.  इस ढंग से प्राणकोषायें अनंत प्रकार की रचनाएँ कर देती हैं.  इसी विधि से प्राणावस्था की सभी रचनाएँ हैं.  बीज-वृक्ष विधि से उनकी परंपरा स्वरूप में निरंतरता बनी.  उसी प्रकार से जीव शरीर और मानव शरीर रचनाओं की परंपरा बनी. 

प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था की सभी रचनाएँ प्राणकोषाओं से बनी हैं.  हर प्राणकोषाओं से बनी रचना एक रूप है.  रचना रूप के मूल में पुष्टि धर्म है.  एक बीज अनेक बीज में परिवर्तित होता है - यह पुष्टि धर्म का प्रमाण है.  एक जीव शरीर अनेक जीव शरीरों में परिवर्तित होता है - यह पुष्टि धर्म का प्रमाण है.  मानव शरीर भी एक से अनेक शरीरों में परिवर्तित होता है - यह पुष्टि धर्म का प्रमाण है.

प्राणसूत्रों में जो पुष्टि-तत्व है वो रचना-तत्व के आधार पर एक रचना-विधि को निर्मित कर देता है - उस पुष्टि-तत्व को हम इंगित कराना चाह रहे हैं. एक से अनेक स्वरूप में परिवर्तित होने में जो तत्व है - वो समझ में आना चाहिए.  वह तत्व प्राणावस्था के बाहर हो ही नहीं सकता.  पुष्टि-तत्व प्राणावस्था से अविभाज्य है.  पुष्टि धर्म को समझने के लिए पुष्टि-तत्व समझ में आना ज़रूरी है.  जिस वस्तु के आधार पर उसका परंपरा बनता है, वही तो उसका धर्म है.  वस्तु को ही समझना है.  वस्तु का ही तो अनुभव होता है.  वैसे ही - व्यापक वस्तु समझ में आता है, तभी वह अनुभव में आता है. 

पुष्टि-तत्व समझ में आता है तब प्राणावस्था का वैभव समझ में आता है.  प्राणावस्था का वैभव समझ में आता है तो उसके साथ मर्यादाएं निश्चित होती हैं.  वैभव समझ में नहीं आता है तो मर्यादा बनता नहीं है. 

संबंधों का निर्वाह ही मर्यादा है.  सम्बन्ध निर्वाह करना तब होता है जब उसका वैभव उसकी उपयोगिता-पूरकता स्वरूप में हमे समझ में आता है.  जैसे - आपकी उपयोगिता-पूरकता समझ में आने पर ही हम आपके साथ अपने सम्बन्ध को निर्वाह कर पाते हैं.  इतना ही तो छोटी से बात है!!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

पिछली अवस्था में अगली अवस्था का भ्रूण स्वरूप रहता है



इन्द्रियों से चारों अवस्थाओं के होने का हमे पता है.  उसका चित्रण हमारे स्मरण में है. 

अस्तित्व सहअस्तित्व (व्यापक में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति) है - इस सूचना को स्वीकारने से हम अध्ययन शुरू करते हैं.  सहअस्तित्व में ही अनुभव होना है.  हर वस्तु का स्वभाव-धर्म अनुभव में आता है.

इसी क्रम में हमे सूचना मिलती है - पदार्थावस्था अस्तित्व धर्मी है और प्राणावस्था पुष्टि धर्मी है.  यह मन से तुलन में गया, तुलन में न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों के साथ प्राणावस्था का पुष्टि-धर्मी होना और पदार्थावस्था का अस्तित्व धर्मी होना स्वीकृत हो जाता है.  पदार्थावस्था और प्राणावस्था कहाँ है?  यह पूछने पर वह हमारे चित्रण से जुड़ जाता है.

पदार्थावस्था अस्तित्व धर्मी है.  अस्तित्व धर्म से आशय है - नाश रहित गुण.  नाश रहित गुण पदार्थावस्था में रखा है.  पदार्थ को नाशवान बताना अभी तक की परंपरा के फंसने का कारण हुआ.  जबकि वास्तविकता में पदार्थ का नाश नहीं होता. 

कोई भी अवस्था प्रकट होता है, वह उससे पिछली अवस्था में गर्भित होता है.  पिछली अवस्था आगे अवस्था के प्रकट होने के लिए अपने में तैयारी कर लेता है.  पदार्थावस्था का यौगिक स्वरूप में प्रकट होना प्राणावस्था के प्रकट होने की तैयारी है.  प्राणावस्था ही पुनः जीवावस्था के शरीर रचनाओं के रूप में प्रकट हुई.  जीवावस्था के शरीरों से ही ज्ञानावस्था के शरीरों का प्रकटन है.  इस तरह शरीर पूरी तरह प्राणावस्था का ही projection है.  प्राणावस्था पदार्थावस्था से ही प्रकट हुआ.  इस तरह से ये सारा क्रम है.  यह प्रकटन स्वयंस्फूर्त है - इसमें न कोई इंजिनियर लगा है, न कोई डॉक्टर लगा है. 

हर अवस्था एक परंपरा स्वरूप में है.  परंपरा आचरण की निरंतरता है. पदार्थावस्था जब प्राणावस्था स्वरूप में प्रकट हुआ तो उसकी बीज-वृक्ष विधि से परंपरा बनी.  वही जीवावस्था में वंश स्वरूप में परंपरा बनी.  इसके आगे जब जीवावस्था से ज्ञानावस्था प्रकट हुई तो समझदारी/ज्ञान विधि से परंपरा बनने की आवश्यकता आ गयी.  समझदारी के लिए चेतना चतुष्टय आ गयी - जीव चेतना, मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना.  इसमें से जीव चेतना में जीने का अभ्यास मानव कर चूका है.  बाकी तीन बचा हुआ है.  इनकी ज़रुरत है या नहीं?  घटना के रूप में धरती का बीमार होना सामने आ गया है.  मानव परिभाषा में से मनाकार को साकार होना और मनः स्वस्थता वीरान रहना भी सामने आ गया है.  मनः स्वस्थता का वीरानी जीव चेतना से भरता नहीं है.

अध्ययन की जो ये पूरी प्रक्रिया है वह "सब जुड़ा हुआ है" इसको पहचानने की बात है.  जुड़ा हुआ का अर्थ है - कभी भी अलग नहीं हो पाना.  व्यापक में जड़-चैतन्य प्रकृति का जुड़ाव कभी भी अलग होता नहीं है.  जड़ प्रकृति ही चारों अवस्थाओं में भौतिक-रासायनिक रचनाओं के रूप में प्रस्तुत है.  जीवन चैतन्य प्रकृति के रूप में प्रस्तुत है.  पदार्थावस्था ही श्रम-गति-परिणाम पूर्वक चारों अवस्थाओं को प्रकाशित किया.  चैतन्य प्रकृति गठनपूर्ण होते हुए, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता को प्रस्तुत करने के क्रम में जीवावस्था और ज्ञानावस्था में प्रस्तुत हुआ.  ज्ञानावस्था में क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता को प्रमाणित करने का प्रावधान है.  ज्ञानावस्था में मानव होते हुए भी मानव ने अभी तक यह किया नहीं.

क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता की परंपरा को मानव ही स्थापित करेगा.  अभी मानव जीवचेतना में जी रहा है.  जीवचेतना से मानव चेतना में संक्रमित होने की ज़रूरत आ गयी है.  ज़रुरत को स्वीकारेगा तो सफल हो जाएगा.  मानव के पास समझने का अधिकार है, निर्णय लेने का अधिकार है, प्रमाणित करने का अधिकार है.  मानव को उसके अधिकार से अलग नहीं किया जा सकता.  अभी हर व्यक्ति अपनी-अपनी समझ से जो जी रहा है, वह सब का सब जीवचेतना में समीक्षित हो गया.  अब मानव चेतना को उद्घाटित करने की ज़रूरत आयी, जिसमे एक आदमी की ज़रुरत रहा जो उसमे पारंगत हो.  वो आपको मिल गया!  उस एक को हज़ारों में multiply होने की आवश्यकता है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)



Friday, March 16, 2018

शिक्षण संस्था को स्थापित करने की आवश्यकता




सर्वेक्षण में देखा गया कि जो प्रौढ़ अवस्था में आ गए हैं उनमे अध्ययन के लिए अड़चन ज्यादा है - क्योंकि वे अपने जीने का डिजाईन में एक तरीके से ढल चुके हैं, उसमे परिवर्तन करने में उनको तकलीफ होती है.  युवावस्था में कम अड़चन है, क्योंकि उनको अपने जीने का डिजाईन बनाना अभी शेष है.  शिशु अवस्था से शुरू करें तो अड़चन का नाम ही नहीं है.  वहां सीधे दवाई पहुँचता है!  आज्ञापालन, अनुकरण और सहयोग ये सब बच्चों में होता है.  इन तीनो के साथ हर बालक जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य व्यवहार करने का इच्छुक, और सत्य वक्ता होता है.  उस स्थिति में कोई भी सही बात उनको देते हैं तो वे तुरंत उसको स्वीकार करते हैं.

स्मरण में पहुंचाने के लिए सबसे उपयुक्त कौमार्य अवस्था है.  वैदिक परंपरा में भी श्रुति को स्मरण में पहुंचाने के लिए इसी अवस्था को पहचाना है.  इस आयु में ग्राह्य क्षमता सबसे ज्यादा है.  अभी तक की शिक्षा में क्या ग्रहण करना है, यह तय नहीं हो पाया.  अभी की शिक्षा ने बच्चों को सुविधा-संग्रह लक्ष्य के लिए नौकरी और व्यापार के लिए जोड़ दिया.  उससे अपराध प्रवृत्ति निष्पन्न हुई, न कि समाधान प्रवृत्ति.  इतने में ही उसकी समीक्षा है.

इसके निराकरण के लिए एक शिक्षण संस्था को स्थापित करने के पक्ष में हम काम कर रहे हैं.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Thursday, March 15, 2018

मनन का महत्त्व


श्रद्देय नागराज जी के साथ सम्वाद (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Wednesday, March 7, 2018

घटना या परंपरा



सम, विषम और मध्यस्थ - इन तीनो के साथ क्रिया को पहचाना है.  हर क्रिया का फल होता है.

मानव जो क्रिया करता है - उसको "कर्म" कहा है.  कायिक-वाचिक-मानसिक कृत-कारित-अनुमोदित इन नौ भेदों से मानव कर्म करता है.  कर्म का फल होता है.  जैसे - मानसिक रूप से किये गए कर्म का फल मन पर होता है.  वाचिक कर्म का फल बात करने के रूप में होता है.  कायिक कर्म का भी फल होता है.  कायिक-वाचिक-मानसिक अविभाज्य हैं - जिसमे से कभी कायिक प्रधान होता है, कभी वाचिक तो कभी मानसिक.  वाचिकता को मन और शरीर से अलग नहीं किया जा सकता.  शरीर के बिना वाचिकता कैसे होगा?  मन के बिना शरीर कैसे चलेगा?

क्रिया सम, विषम, मध्यस्थ होती है.  सम क्रिया का मतलब है - निर्माण करना.  विषम क्रिया का मतलब है - उजाड़ देना.  बना हुआ को बनाए रखना - ये मध्यस्थ है, यह पीढ़ी से पीढ़ी "बनाए रखने" के स्वरूप में निरंतरता है.  यही मानव के इतिहास का आधार है.  पीढ़ी से पीढ़ी जो यथावत चले वह इतिहास है.

जैसे - हमने घर को एक तरीके से बनाया, हमारी संतान ने उसमे परिवर्तन करके और कुछ बना दिया, उनके संतान ने और कुछ कर दिया - ऐसे चलते-चलते कुछ का कुछ हो गया.  इस तरह घर बनाना पीढ़ी से पीढ़ी एक जैसा नहीं चला.  जो पीढ़ी दर पीढ़ी बदल जाता है, वह इतिहास नहीं "घटना" है.  जो पीढ़ी दर पीढ़ी उसी अर्थ में स्वीकार होता है - वही इतिहास है, वही परंपरा है, वही यथार्थता है.

बना हुआ को बनाए रखने की विधि बनी - वाचिक (शब्द) रूप में और वस्तु रूप में.  पीढ़ी से पीढ़ी शब्द और वस्तु को बनाए रखते हैं तो परंपरा हुआ.

इस ढंग से हम "घटना" और "परंपरा" को पहचान सकते हैं.  जो निरंतरता को नहीं बनाए रख पाता है, वह घटना है.  जो निरंतरता को बनाए रख पाता है, वह परंपरा है.

युद्ध, झूठ, चोरी, संघर्ष, लाफंगाई - ये सब घटनाएं हैं.  ये सदा के लिए बनी नहीं रहती.  इसलिए ये परंपरा नहीं हैं.  जो पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतरता के रूप में प्राप्त होता है, अनुसरण-अनुकरण होता है, प्रमाण होता है - वह परंपरा है.

जीव चेतना को अपनाने से घटना होता है.  मानव चेतना को अपनाने से परंपरा होता है.

जाग्रति का प्रमाण जब तक नहीं है, तब तक घटना ही है.  प्रमाण जीना ही है.  घटना कोई प्रमाण नहीं है.

"घटनाएं बार-बार दोहराते हैं" या "History repeats itself" कहा गया - पर वह गलत सिद्ध हो गया.  मनुष्य में रचनात्मकता इतनी ज्यादा है कि बार-बार बदलने ली आवश्यकता लगी रहती है.

प्रश्न:  क्या अनुभव संपन्न हो जाना भी एक "घटना" ही है?

उत्तर: किसी व्यक्ति का अनुभव संपन्न हो जाना भी एक घटना ही है.  वह अनुभव उसी व्यक्ति तक रह जाए तो भी वह घटना ही है.  परंपरा का मतलब है - पीढ़ी से पीढ़ी लेकर चलना.  जब तक परंपरा में नहीं रंगा तब तक अनुभव घटना  ही है.  उसको 'सद्घटना' कह सकते हैं, इससे ज्यादा नहीं.  जितने भी अभी तक आचार्य हुए, अवतार हुए, निपुणता-कुशलता को प्रमाणित करने वाले हुए - वे इसी में समीक्षित हो जाते हैं.  सद्घटनाएं हुई, पर उनकी परंपरा नहीं हुई.  या वे घटनाएं परंपरा बनने के योग्य नहीं रही.

यहाँ कसौटी है - परम्परा बनने योग्य होना है और परंपरा होना है.  योग्य नहीं हैं - तो भी नहीं चलेगा.  परंपरा नहीं बनती है - तो भी नहीं चलेगा.

कोई अनुसंधान परंपरा बनने योग्य है या नहीं - इसका शोध किया जा सकता है.  शोध के लिए वस्तु यही है.  निम्न चार बातों में जो खरा उतरता है, वह परंपरा बनने योग्य है.

(१) सर्वमानव के लिए आचरण करने के योग्य हो
(२) सर्वमानव के शिक्षा-संस्कार संपन्न होने के योग्य हो
(३) सर्वमानव के लिए व्यवस्था देने के योग्य हो
(४) सर्वमानव के लिए विधि (संविधान) देने के योग्य हो

इस तरह परंपरा के लिए प्रेरणा देने के लिए विधि बना.  इसमें कोई व्यक्तिवाद या समुदायवाद नहीं रहा.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)