कोई भी धर्म ऐसा नहीं है जो स्वधर्म-विधर्म को सोचा नहीं है. विधर्म को स्वीकारते हुए क्या कोई अपने-पराये से मुक्ति का सुझाव प्रस्तुत कर सकता है?
जिस संविधान में सीमा और सीमा-सुरक्षा के लिए युद्ध को वैध स्वीकारा हो - क्या वह सीमाओं से मुक्त विश्व का कोई सुझाव प्रस्तुत कर सकता है?
धर्म और संविधान जिसको "न करो" बताते रहे, वही बढ़ता रहा. "क्या करना है" - यह पता नहीं चला. एक के बाद एक और बड़े अपराध करने, धरती को और ज्यादा घायल करने, मानव का और शोषण करने की बात निकल के आ रही है. सुविधा-संग्रह लक्ष्य के चलते सभी मानवों का सोच इसी के लिए अर्पित हुआ है. अभी जो मानसिकता संसार में है उससे सकारात्मकता का सूत्र कैसे निकलेगा? उनसे हम क्या प्रश्न करें? कैसे प्रश्न करें?
विगत में आदर्शवादी विधि से भी हम नकारात्मक भाग में गए और भौतिकवादी या विज्ञान विधि से तो पूरा नकारात्मक भाग में जा ही रहे हैं. इन दोनों विधियों से जो मानसिकता बनती है वह ज्यादा-कम हर व्यक्ति के पास पहुंचा है. इससे लोक मानसिकता में सुविधा-संग्रह का लक्ष्य बना. उसके लिए प्रयास है - जो बाज़ार में वस्तुएं हैं उनको इकठ्ठा करना. उसके लिए पैसा चाहिए. पैसा चाहे कैसे भी आये - चोरी से, डाका से, व्यापार से, नौकरी से... ये सब करने के बाद भी किसी का सुविधा-संग्रह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ. यह यथास्थिति है. अब सुविधा-संग्रह मानसिकता में लिप्त संसार से हम क्या उत्तर पायेंगे?
सुविधा-संग्रह में ग्रस्त रहते हुए कोई सुविधा-संग्रह से मुक्त होने के विचार को पैदा नहीं कर सकता. युद्ध मानसिकता से युद्ध मानसिकता से मुक्ति का विचार नहीं निकल सकता. व्यापार मानसिकता से शोषण मुक्ति का विचार नहीं निकल सकता. द्रोह-विद्रोह मानसिकता से न्याय का विचार नहीं निकल सकता.
इनसे हमे उत्तर मिलेगा यह भरोसा हमारा ख़त्म हो गया.
प्रश्न: इन्टरनेट के बारे में आपका क्या सोचना है?
उत्तर: इन्टरनेट में सभी सूचनाओं को लाइब्रेरी बना के रख रहे हैं. जो पहले जमीन पर था उसको अब आकाश में रख रहे हैं. लेकिन लाइब्रेरी बनाने से क्या उद्धार हो गया?
प्रश्न: इन्टरनेट में सब नकारात्मक ही तो नहीं है, सकारात्मक भी तो है?
उत्तर: अधिकांशतः लोग नकारात्मक पक्षों को देखने में ही लगे हैं. सकारात्मक को देखने की इच्छा वाले इने-गिने हैं. इन्टरनेट में वही है जो अभी संसार में प्रचलित है. उसमे जो "सकारात्मक" जैसा लगता है उससे कोई निष्कर्ष निकलता नहीं है. उस "सकारात्मकता" को हम अपना लें, उसका लोकव्यापीकरण कर दें - ऐसा उसमे कुछ नहीं है.
यहाँ हम संसार में जो प्रचलित है उसके विकल्प स्वरूप में जो बातचीत करते हैं, वह सही में सकारात्मक है, अपने में हमारा यह स्वीकृति हुआ है.
प्रश्न: इस बात को इन्टरनेट के माध्यम से जन सामान्य तक पहुंचाने का क्या सही तरीका होगा?
उत्तर: सम्पूर्णता के साथ प्रस्तुत करने का तरीका है - ज्ञान को लेकर यह विकल्प प्रस्तुत हो गया है, जिसको अध्ययन करके समझा जा सकता है, और जीने में प्रमाणित किया जा सकता है. यह सूचना दी जा सकती है.
प्रश्न: संसार से जुड़ने के लिए अपनी बताने के साथ-साथ उनकी चाहत को भी तो कुछ पूछना पड़ेगा?
उत्तर: मानव की चाहत को लेकर आप पूछ सकते हैं - ये चाहते हो या वो चाहते हो. यदि आप संसार से पूछोगे आप क्या चाहते हो? - तो उससे कुछ नहीं निकलेगा!
(मध्यस्थ दर्शन के अनुसार) सकारात्मक चाहत का स्वरूप आप पहले रखिये, फिर पूछिए - ये चाहते हैं या नहीं चाहते हैं? इसको अन्गुलिन्यास कर के संसार में जो दिग्गज कहलाते हैं, उनसे पूछा जाए! इसको dilute करने से इसका उत्तर ही नहीं मिलेगा.
तकनीकी/यंत्र से इसका कोई उत्तर नहीं निकलेगा. उत्तर तो कोई व्यक्ति ही देगा और व्यक्ति ही उत्तर को स्वीकारेगा.
अब लोगों से पूछने के लिए - पहले सकारात्मक प्रेरणा रुपी मुद्दों को रखा जाए. ये चाहिए या नहीं चाहिए - इसको पूछा जाए.
उसके बाद उस चाहत को साकार करने के लिए कार्यक्रम प्रस्तावों को रखा जाए. आप इनको करना चाहते हो या नहीं - यह पूछा जाए.
उसके बाद व्यवस्था में जीने के लिए प्रेरणास्पद मुद्दों को रखा जाए. आप ऐसा जीना चाहते हो या नहीं चाहते हो - यह पूछा जाए.
इस ढंग से अपने अनुसार इस प्रस्ताव को इन्टरनेट पर ले जाने का तरीका बनता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
जिस संविधान में सीमा और सीमा-सुरक्षा के लिए युद्ध को वैध स्वीकारा हो - क्या वह सीमाओं से मुक्त विश्व का कोई सुझाव प्रस्तुत कर सकता है?
धर्म और संविधान जिसको "न करो" बताते रहे, वही बढ़ता रहा. "क्या करना है" - यह पता नहीं चला. एक के बाद एक और बड़े अपराध करने, धरती को और ज्यादा घायल करने, मानव का और शोषण करने की बात निकल के आ रही है. सुविधा-संग्रह लक्ष्य के चलते सभी मानवों का सोच इसी के लिए अर्पित हुआ है. अभी जो मानसिकता संसार में है उससे सकारात्मकता का सूत्र कैसे निकलेगा? उनसे हम क्या प्रश्न करें? कैसे प्रश्न करें?
विगत में आदर्शवादी विधि से भी हम नकारात्मक भाग में गए और भौतिकवादी या विज्ञान विधि से तो पूरा नकारात्मक भाग में जा ही रहे हैं. इन दोनों विधियों से जो मानसिकता बनती है वह ज्यादा-कम हर व्यक्ति के पास पहुंचा है. इससे लोक मानसिकता में सुविधा-संग्रह का लक्ष्य बना. उसके लिए प्रयास है - जो बाज़ार में वस्तुएं हैं उनको इकठ्ठा करना. उसके लिए पैसा चाहिए. पैसा चाहे कैसे भी आये - चोरी से, डाका से, व्यापार से, नौकरी से... ये सब करने के बाद भी किसी का सुविधा-संग्रह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ. यह यथास्थिति है. अब सुविधा-संग्रह मानसिकता में लिप्त संसार से हम क्या उत्तर पायेंगे?
सुविधा-संग्रह में ग्रस्त रहते हुए कोई सुविधा-संग्रह से मुक्त होने के विचार को पैदा नहीं कर सकता. युद्ध मानसिकता से युद्ध मानसिकता से मुक्ति का विचार नहीं निकल सकता. व्यापार मानसिकता से शोषण मुक्ति का विचार नहीं निकल सकता. द्रोह-विद्रोह मानसिकता से न्याय का विचार नहीं निकल सकता.
इनसे हमे उत्तर मिलेगा यह भरोसा हमारा ख़त्म हो गया.
प्रश्न: इन्टरनेट के बारे में आपका क्या सोचना है?
उत्तर: इन्टरनेट में सभी सूचनाओं को लाइब्रेरी बना के रख रहे हैं. जो पहले जमीन पर था उसको अब आकाश में रख रहे हैं. लेकिन लाइब्रेरी बनाने से क्या उद्धार हो गया?
प्रश्न: इन्टरनेट में सब नकारात्मक ही तो नहीं है, सकारात्मक भी तो है?
उत्तर: अधिकांशतः लोग नकारात्मक पक्षों को देखने में ही लगे हैं. सकारात्मक को देखने की इच्छा वाले इने-गिने हैं. इन्टरनेट में वही है जो अभी संसार में प्रचलित है. उसमे जो "सकारात्मक" जैसा लगता है उससे कोई निष्कर्ष निकलता नहीं है. उस "सकारात्मकता" को हम अपना लें, उसका लोकव्यापीकरण कर दें - ऐसा उसमे कुछ नहीं है.
यहाँ हम संसार में जो प्रचलित है उसके विकल्प स्वरूप में जो बातचीत करते हैं, वह सही में सकारात्मक है, अपने में हमारा यह स्वीकृति हुआ है.
प्रश्न: इस बात को इन्टरनेट के माध्यम से जन सामान्य तक पहुंचाने का क्या सही तरीका होगा?
उत्तर: सम्पूर्णता के साथ प्रस्तुत करने का तरीका है - ज्ञान को लेकर यह विकल्प प्रस्तुत हो गया है, जिसको अध्ययन करके समझा जा सकता है, और जीने में प्रमाणित किया जा सकता है. यह सूचना दी जा सकती है.
प्रश्न: संसार से जुड़ने के लिए अपनी बताने के साथ-साथ उनकी चाहत को भी तो कुछ पूछना पड़ेगा?
उत्तर: मानव की चाहत को लेकर आप पूछ सकते हैं - ये चाहते हो या वो चाहते हो. यदि आप संसार से पूछोगे आप क्या चाहते हो? - तो उससे कुछ नहीं निकलेगा!
(मध्यस्थ दर्शन के अनुसार) सकारात्मक चाहत का स्वरूप आप पहले रखिये, फिर पूछिए - ये चाहते हैं या नहीं चाहते हैं? इसको अन्गुलिन्यास कर के संसार में जो दिग्गज कहलाते हैं, उनसे पूछा जाए! इसको dilute करने से इसका उत्तर ही नहीं मिलेगा.
तकनीकी/यंत्र से इसका कोई उत्तर नहीं निकलेगा. उत्तर तो कोई व्यक्ति ही देगा और व्यक्ति ही उत्तर को स्वीकारेगा.
अब लोगों से पूछने के लिए - पहले सकारात्मक प्रेरणा रुपी मुद्दों को रखा जाए. ये चाहिए या नहीं चाहिए - इसको पूछा जाए.
उसके बाद उस चाहत को साकार करने के लिए कार्यक्रम प्रस्तावों को रखा जाए. आप इनको करना चाहते हो या नहीं - यह पूछा जाए.
उसके बाद व्यवस्था में जीने के लिए प्रेरणास्पद मुद्दों को रखा जाए. आप ऐसा जीना चाहते हो या नहीं चाहते हो - यह पूछा जाए.
इस ढंग से अपने अनुसार इस प्रस्ताव को इन्टरनेट पर ले जाने का तरीका बनता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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