सम, विषम और मध्यस्थ - इन तीनो के साथ क्रिया को पहचाना है. हर क्रिया का फल होता है.
मानव जो क्रिया करता है - उसको "कर्म" कहा है. कायिक-वाचिक-मानसिक कृत-कारित-अनुमोदित इन नौ भेदों से मानव कर्म करता है. कर्म का फल होता है. जैसे - मानसिक रूप से किये गए कर्म का फल मन पर होता है. वाचिक कर्म का फल बात करने के रूप में होता है. कायिक कर्म का भी फल होता है. कायिक-वाचिक-मानसिक अविभाज्य हैं - जिसमे से कभी कायिक प्रधान होता है, कभी वाचिक तो कभी मानसिक. वाचिकता को मन और शरीर से अलग नहीं किया जा सकता. शरीर के बिना वाचिकता कैसे होगा? मन के बिना शरीर कैसे चलेगा?
क्रिया सम, विषम, मध्यस्थ होती है. सम क्रिया का मतलब है - निर्माण करना. विषम क्रिया का मतलब है - उजाड़ देना. बना हुआ को बनाए रखना - ये मध्यस्थ है, यह पीढ़ी से पीढ़ी "बनाए रखने" के स्वरूप में निरंतरता है. यही मानव के इतिहास का आधार है. पीढ़ी से पीढ़ी जो यथावत चले वह इतिहास है.
जैसे - हमने घर को एक तरीके से बनाया, हमारी संतान ने उसमे परिवर्तन करके और कुछ बना दिया, उनके संतान ने और कुछ कर दिया - ऐसे चलते-चलते कुछ का कुछ हो गया. इस तरह घर बनाना पीढ़ी से पीढ़ी एक जैसा नहीं चला. जो पीढ़ी दर पीढ़ी बदल जाता है, वह इतिहास नहीं "घटना" है. जो पीढ़ी दर पीढ़ी उसी अर्थ में स्वीकार होता है - वही इतिहास है, वही परंपरा है, वही यथार्थता है.
बना हुआ को बनाए रखने की विधि बनी - वाचिक (शब्द) रूप में और वस्तु रूप में. पीढ़ी से पीढ़ी शब्द और वस्तु को बनाए रखते हैं तो परंपरा हुआ.
इस ढंग से हम "घटना" और "परंपरा" को पहचान सकते हैं. जो निरंतरता को नहीं बनाए रख पाता है, वह घटना है. जो निरंतरता को बनाए रख पाता है, वह परंपरा है.
युद्ध, झूठ, चोरी, संघर्ष, लाफंगाई - ये सब घटनाएं हैं. ये सदा के लिए बनी नहीं रहती. इसलिए ये परंपरा नहीं हैं. जो पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतरता के रूप में प्राप्त होता है, अनुसरण-अनुकरण होता है, प्रमाण होता है - वह परंपरा है.
जीव चेतना को अपनाने से घटना होता है. मानव चेतना को अपनाने से परंपरा होता है.
जाग्रति का प्रमाण जब तक नहीं है, तब तक घटना ही है. प्रमाण जीना ही है. घटना कोई प्रमाण नहीं है.
"घटनाएं बार-बार दोहराते हैं" या "History repeats itself" कहा गया - पर वह गलत सिद्ध हो गया. मनुष्य में रचनात्मकता इतनी ज्यादा है कि बार-बार बदलने ली आवश्यकता लगी रहती है.
प्रश्न: क्या अनुभव संपन्न हो जाना भी एक "घटना" ही है?
उत्तर: किसी व्यक्ति का अनुभव संपन्न हो जाना भी एक घटना ही है. वह अनुभव उसी व्यक्ति तक रह जाए तो भी वह घटना ही है. परंपरा का मतलब है - पीढ़ी से पीढ़ी लेकर चलना. जब तक परंपरा में नहीं रंगा तब तक अनुभव घटना ही है. उसको 'सद्घटना' कह सकते हैं, इससे ज्यादा नहीं. जितने भी अभी तक आचार्य हुए, अवतार हुए, निपुणता-कुशलता को प्रमाणित करने वाले हुए - वे इसी में समीक्षित हो जाते हैं. सद्घटनाएं हुई, पर उनकी परंपरा नहीं हुई. या वे घटनाएं परंपरा बनने के योग्य नहीं रही.
यहाँ कसौटी है - परम्परा बनने योग्य होना है और परंपरा होना है. योग्य नहीं हैं - तो भी नहीं चलेगा. परंपरा नहीं बनती है - तो भी नहीं चलेगा.
कोई अनुसंधान परंपरा बनने योग्य है या नहीं - इसका शोध किया जा सकता है. शोध के लिए वस्तु यही है. निम्न चार बातों में जो खरा उतरता है, वह परंपरा बनने योग्य है.
(१) सर्वमानव के लिए आचरण करने के योग्य हो
(२) सर्वमानव के शिक्षा-संस्कार संपन्न होने के योग्य हो
(३) सर्वमानव के लिए व्यवस्था देने के योग्य हो
(४) सर्वमानव के लिए विधि (संविधान) देने के योग्य हो
इस तरह परंपरा के लिए प्रेरणा देने के लिए विधि बना. इसमें कोई व्यक्तिवाद या समुदायवाद नहीं रहा.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)
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