इन्द्रियों से चारों अवस्थाओं के होने का हमे पता है. उसका चित्रण हमारे स्मरण में है.
अस्तित्व सहअस्तित्व (व्यापक में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति) है - इस सूचना को स्वीकारने से हम अध्ययन शुरू करते हैं. सहअस्तित्व में ही अनुभव होना है. हर वस्तु का स्वभाव-धर्म अनुभव में आता है.
इसी क्रम में हमे सूचना मिलती है - पदार्थावस्था अस्तित्व धर्मी है और प्राणावस्था पुष्टि धर्मी है. यह मन से तुलन में गया, तुलन में न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों के साथ प्राणावस्था का पुष्टि-धर्मी होना और पदार्थावस्था का अस्तित्व धर्मी होना स्वीकृत हो जाता है. पदार्थावस्था और प्राणावस्था कहाँ है? यह पूछने पर वह हमारे चित्रण से जुड़ जाता है.
पदार्थावस्था अस्तित्व धर्मी है. अस्तित्व धर्म से आशय है - नाश रहित गुण. नाश रहित गुण पदार्थावस्था में रखा है. पदार्थ को नाशवान बताना अभी तक की परंपरा के फंसने का कारण हुआ. जबकि वास्तविकता में पदार्थ का नाश नहीं होता.
कोई भी अवस्था प्रकट होता है, वह उससे पिछली अवस्था में गर्भित होता है. पिछली अवस्था आगे अवस्था के प्रकट होने के लिए अपने में तैयारी कर लेता है. पदार्थावस्था का यौगिक स्वरूप में प्रकट होना प्राणावस्था के प्रकट होने की तैयारी है. प्राणावस्था ही पुनः जीवावस्था के शरीर रचनाओं के रूप में प्रकट हुई. जीवावस्था के शरीरों से ही ज्ञानावस्था के शरीरों का प्रकटन है. इस तरह शरीर पूरी तरह प्राणावस्था का ही projection है. प्राणावस्था पदार्थावस्था से ही प्रकट हुआ. इस तरह से ये सारा क्रम है. यह प्रकटन स्वयंस्फूर्त है - इसमें न कोई इंजिनियर लगा है, न कोई डॉक्टर लगा है.
हर अवस्था एक परंपरा स्वरूप में है. परंपरा आचरण की निरंतरता है. पदार्थावस्था जब प्राणावस्था स्वरूप में प्रकट हुआ तो उसकी बीज-वृक्ष विधि से परंपरा बनी. वही जीवावस्था में वंश स्वरूप में परंपरा बनी. इसके आगे जब जीवावस्था से ज्ञानावस्था प्रकट हुई तो समझदारी/ज्ञान विधि से परंपरा बनने की आवश्यकता आ गयी. समझदारी के लिए चेतना चतुष्टय आ गयी - जीव चेतना, मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना. इसमें से जीव चेतना में जीने का अभ्यास मानव कर चूका है. बाकी तीन बचा हुआ है. इनकी ज़रुरत है या नहीं? घटना के रूप में धरती का बीमार होना सामने आ गया है. मानव परिभाषा में से मनाकार को साकार होना और मनः स्वस्थता वीरान रहना भी सामने आ गया है. मनः स्वस्थता का वीरानी जीव चेतना से भरता नहीं है.
अध्ययन की जो ये पूरी प्रक्रिया है वह "सब जुड़ा हुआ है" इसको पहचानने की बात है. जुड़ा हुआ का अर्थ है - कभी भी अलग नहीं हो पाना. व्यापक में जड़-चैतन्य प्रकृति का जुड़ाव कभी भी अलग होता नहीं है. जड़ प्रकृति ही चारों अवस्थाओं में भौतिक-रासायनिक रचनाओं के रूप में प्रस्तुत है. जीवन चैतन्य प्रकृति के रूप में प्रस्तुत है. पदार्थावस्था ही श्रम-गति-परिणाम पूर्वक चारों अवस्थाओं को प्रकाशित किया. चैतन्य प्रकृति गठनपूर्ण होते हुए, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता को प्रस्तुत करने के क्रम में जीवावस्था और ज्ञानावस्था में प्रस्तुत हुआ. ज्ञानावस्था में क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता को प्रमाणित करने का प्रावधान है. ज्ञानावस्था में मानव होते हुए भी मानव ने अभी तक यह किया नहीं.
क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता की परंपरा को मानव ही स्थापित करेगा. अभी मानव जीवचेतना में जी रहा है. जीवचेतना से मानव चेतना में संक्रमित होने की ज़रूरत आ गयी है. ज़रुरत को स्वीकारेगा तो सफल हो जाएगा. मानव के पास समझने का अधिकार है, निर्णय लेने का अधिकार है, प्रमाणित करने का अधिकार है. मानव को उसके अधिकार से अलग नहीं किया जा सकता. अभी हर व्यक्ति अपनी-अपनी समझ से जो जी रहा है, वह सब का सब जीवचेतना में समीक्षित हो गया. अब मानव चेतना को उद्घाटित करने की ज़रूरत आयी, जिसमे एक आदमी की ज़रुरत रहा जो उसमे पारंगत हो. वो आपको मिल गया! उस एक को हज़ारों में multiply होने की आवश्यकता है.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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