इन्द्रिय की परिभाषा है - इच्छा पूर्वक द्रवित होने वाला अंग. मानव जीवन में इच्छा होती है. इच्छा का स्वरूप ही है - ये चाहिए, ये नहीं चाहिए. इसी इच्छा के साथ ये सारी इन्द्रियां स्पंदित होती हैं. आँखों के साथ देखने की इच्छा जुड़ी हो तभी देख पाते हैं. आँख में प्राणकोशा जीवंत रहता है, पर उसके साथ यदि इच्छा का पुट न हो तो देखना नहीं बनेगा. इच्छा नहीं हो तो चमड़ी पर स्पर्श का पता नहीं चलेगा. सुनने की इच्छा न हो तो कान से सुनेगा नहीं. सूक्ष्म-सूक्ष्मतम अध्ययन की बात है यह. यथास्थितियों को निर्धारित करने के लिए ये सब अवयव हैं.
प्रश्न: क्या इसी इच्छा के आधार पर हम अध्ययन करते हैं?
उत्तर: प्रमाणित करने की इच्छा के लिये जब हम चित्रण करते हैं तो जो चित्रण में समाता नहीं है, वह साक्षात्कार में स्वीकार हो जाता है. इस तरह जीवन में वस्तुओं के स्वभाव-धर्म का साक्षात्कार होने का प्रावधान है. साक्षात्कार जो होता है, उसका बोध और अनुभव हो ही जाता है. उसमे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता.
भ्रमित रहते तक हम बिना साक्षात्कार के रूप और गुणों का चित्रण भर करते थे. संवेदनशीलता की सीमा में हम जो चित्रण करते हैं, वह साढ़े चार क्रिया से आगे जाता नहीं है. इसी का नाम है - अनदेखी, अनसुनी और नासमझी.
अनुभव के बिना स्वभाव और धर्म को चित्रित करना संभव नहीं है. स्वभाव और धर्म को चित्रित किये बिना हमारी बनायी कोई भी योजना अधूरी है. योजना अधूरी होगी तो उसका फल-परिणाम भी अधूरा होगा. इस बात की गवाही हो चुकी है - धरती बीमार होने के रूप में.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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