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Saturday, March 17, 2018

पुष्टि धर्म को समझना



"पुष्टि धर्म" के बारे में जो श्रवण हुआ, उसका न्याय-धर्म-सत्य के अर्थ में तुलन होता है तो उसका साक्षात्कार होता है.  यदि न्याय-धर्म-सत्य के स्थान पर प्रिय-हित-लाभ के अर्थ में तुलन होता है तो उसका साक्षात्कार नहीं होता, वह चित्रण तक ही रह जाता है.

पुष्टि धर्म शरीर प्रक्रिया के साथ जुड़ा है.  संतान उत्पत्ति पुष्टि-धर्म का प्रमाण है.  संतान उत्पत्ति प्राणावस्था की पुष्टि है. 

प्रश्न:  पुष्टि धर्म वस्तु स्वरूप में क्या है?

उत्तर:  वस्तु स्वरूप में पुष्टि धर्म प्राणसूत्र बनने का स्त्रोत है.  प्राणसूत्र में पुष्टि-तत्व और रचना-तत्व रहते हैं.  पुष्टि-तत्व और रचना-तत्व के किसी एक मात्रा में जुड़ने से उनमे रचना-विधि आ जाती है.  इस ढंग से प्राणकोषायें अनंत प्रकार की रचनाएँ कर देती हैं.  इसी विधि से प्राणावस्था की सभी रचनाएँ हैं.  बीज-वृक्ष विधि से उनकी परंपरा स्वरूप में निरंतरता बनी.  उसी प्रकार से जीव शरीर और मानव शरीर रचनाओं की परंपरा बनी. 

प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था की सभी रचनाएँ प्राणकोषाओं से बनी हैं.  हर प्राणकोषाओं से बनी रचना एक रूप है.  रचना रूप के मूल में पुष्टि धर्म है.  एक बीज अनेक बीज में परिवर्तित होता है - यह पुष्टि धर्म का प्रमाण है.  एक जीव शरीर अनेक जीव शरीरों में परिवर्तित होता है - यह पुष्टि धर्म का प्रमाण है.  मानव शरीर भी एक से अनेक शरीरों में परिवर्तित होता है - यह पुष्टि धर्म का प्रमाण है.

प्राणसूत्रों में जो पुष्टि-तत्व है वो रचना-तत्व के आधार पर एक रचना-विधि को निर्मित कर देता है - उस पुष्टि-तत्व को हम इंगित कराना चाह रहे हैं. एक से अनेक स्वरूप में परिवर्तित होने में जो तत्व है - वो समझ में आना चाहिए.  वह तत्व प्राणावस्था के बाहर हो ही नहीं सकता.  पुष्टि-तत्व प्राणावस्था से अविभाज्य है.  पुष्टि धर्म को समझने के लिए पुष्टि-तत्व समझ में आना ज़रूरी है.  जिस वस्तु के आधार पर उसका परंपरा बनता है, वही तो उसका धर्म है.  वस्तु को ही समझना है.  वस्तु का ही तो अनुभव होता है.  वैसे ही - व्यापक वस्तु समझ में आता है, तभी वह अनुभव में आता है. 

पुष्टि-तत्व समझ में आता है तब प्राणावस्था का वैभव समझ में आता है.  प्राणावस्था का वैभव समझ में आता है तो उसके साथ मर्यादाएं निश्चित होती हैं.  वैभव समझ में नहीं आता है तो मर्यादा बनता नहीं है. 

संबंधों का निर्वाह ही मर्यादा है.  सम्बन्ध निर्वाह करना तब होता है जब उसका वैभव उसकी उपयोगिता-पूरकता स्वरूप में हमे समझ में आता है.  जैसे - आपकी उपयोगिता-पूरकता समझ में आने पर ही हम आपके साथ अपने सम्बन्ध को निर्वाह कर पाते हैं.  इतना ही तो छोटी से बात है!!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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