ANNOUNCEMENTS



Sunday, March 18, 2018

प्रबोधन क्यों और कैसे - भाग १



मनुष्य अपनी परस्परता में बात करता है.  एक दूसरे के साथ संभाषण में हमारा कोई न कोई उद्देश्य रहता ही है.  इस संभाषण में हम कुछ समझते हैं, कुछ नहीं समझते हैं - इस तरह से अभी तक हम चले हैं.  संभाषण में कुछ भी हम बोले उसका अर्थ दूसरे तक स्पष्टतया पहुँच जाए - यह अपेक्षा सब में है.

प्रबोधन का परिभाषा है - प्रखर रूप में (या स्पष्ट रूप में) सामने व्यक्ति को बोध होने के लिए भाषा का प्रयोग करना.

दूसरा परिभाषा है - प्रबुद्धता संपन्न होने के लिए भाषा का प्रयोग करना

शब्द के साथ अर्थ रहता ही है, वह अर्थ सामने व्यक्ति को स्वीकार हो जाए - उसको कहा "प्रबोधन".  यदि केवल शब्द का श्रवण हुआ, अर्थ स्वीकार नहीं हुआ - उसको कहा "पठन".   प्रबोधन विधि से अर्थ बोध होता है.

मानव परंपरा में प्रबोधन की आवश्यकता है या नहीं - इस पर हमे प्रकाश डालना है.

प्रबोधन ही संबोधन है.  "संबोधन" शब्द से आशय है - पूर्णता के अर्थ में बोध हो जाए.  अभी तक की परंपरा में पूर्ण वस्तु ब्रह्म को माना.  ब्रह्म को ही सत्य और ज्ञान होना बताया.  साथ ही ब्रह्म को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बता दिया.  उसके विकल्प में यहाँ बता रहे हैं - गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता सहअस्तित्व में स्पष्ट हैं.  उसको बोध कराने के लिए "अस्तित्व में परमाणु का विकास" नाम से एक प्रकरण ही दिया है.  परमाणु में विकास-क्रम और विकास को मैंने देखा है.  इस गवाही के साथ इसको प्रस्तुत किया है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)


No comments: