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Wednesday, March 21, 2018

प्रबोधन क्यों और कैसे - भाग ४


जीव चेतना विधि से मानव का शिक्षित होना नहीं हुआ.  जीवचेतना की शिक्षा में हम नौकरी और व्यापार के लिए पढ़ाई किये.  पहले जब शिक्षा कुछ ही लोगों के पास थी तो इस शिक्षा से नौकरी-व्यापार करना सार्थक हो जाता था.  अब जब सबको शिक्षा मिलने लगी तो वह सार्थक होना बंद हो गया.  इस शिक्षा के विकल्प की आवश्यकता है.

शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम बनाने की आवश्यकता होती है.  उसमे पाठ्यपुस्तकों की पहचान करने की बात होती है.  स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर के लिए मध्यस्थ दर्शन वांग्मय है.  कक्षा १ से कक्षा ५ तक का पाठ्यक्रम हम तैयार कर चुके हैं.  बाकी सात कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम लिखना अभी शेष है.  उसके लिए मैं सोचता हूँ हमारे साथ जो विद्वान लोग जुड़े हैं, वे मिलके उसको लिखें.  आप से लिखना नहीं बनता है तो मेरे पास बैठो, मैं लिखा देता हूँ!

प्रश्न:  जीवन विद्या शिविर कार्यक्रम के बारे में आपका क्या मंतव्य है?

उत्तर:  जीवन विद्या शिविर प्रौढ़ शिक्षा या लोक शिक्षा विधि है.  उसको सुनने मात्र से उत्साह वर्धन होता है.  यह उत्साह सकारात्मक है - यह भी देखा गया.  ऐसा देखने पर यही बनता है कि इनके प्रतिभागियों को आगे अध्ययन कराया जाए.  उनको सीधे-सीधे जीवन का अध्ययन, अस्तित्व का अध्ययन और मानवीयता पूर्ण आचरण का अध्ययन से शुरू कराया जाए.  क्रमिक शिक्षा में हम ७वीं या ८वीं कक्षा में अस्तित्व दर्शन ज्ञान का ज़िक्र करते हैं - दोनों में यह अंतर है. 

जीवन विद्या शिविर से ७ दिन में सूचना दी जाती है कि यह समझने योग्य वस्तु है.  जीवन विद्या शिविर में क्या बताना है उसको "जीवन विद्या - अध्ययन बिंदु" नामक पुस्तिका में लिख कर दे दिया है. 

जीवन विद्या शिविर सर्वशुभ की सूचना का एक कार्यक्रम है.  सर्वशुभ के लिए क्या-क्या समझने की आवश्यकता है - यह सूचना देने के लिए जीवन विद्या शिविर है. 

मेरा किसी से आग्रह नहीं है कि आप अध्ययन करो ही!  यह प्रस्ताव रखा है - आपकी इच्छा है तो आप इसका अध्ययन करो.  आपकी इच्छा नहीं है तो मत करो!  हर व्यक्ति अपने मन से, विचार से, इच्छा से स्वतन्त्र है.  इच्छा होगी तो वह इसका अध्ययन करेगा, इच्छा नहीं होगी तो नहीं करेगा. 

क्या मेरी इस नीति से आप सहमत हैं?

इस पूरे कार्यक्रम में शिकायत करने की कोई जगह नहीं है.  आप चाहे इस रास्ते पर एक कदम चलें, या दस कदम चलें, आप जितना इसमें चलें उतने तक में इसकी सार्थकता दिखाई पड़ती है.  इस कार्यक्रम में कहीं काली दीवाल के पास जाने का कोई जुगाड़ ही नहीं है. 

यह प्रस्ताव सर्वमानव की ज़रुरत है - इसका हम निवेदन ही करते हैं.  मानव के नासमझी से अपराध हुआ है, फलस्वरूप धरती बीमार हो गयी है.  क्या मानव को नासमझ ही रहना है?  इसका उत्तर "नहीं" ही निकलता है, समझदार होने की आवश्यकता है - यही कहना बनता है.  समझदारी के लिए यह एक छोटा सा प्रस्ताव है.  सूचना हम देंगे, जिसको समझने की इच्छा है वे इसका अध्ययन कर सकते हैं.  सूचना के बिन्दुओं के विस्तार में जाना, स्वत्व बनाना, प्रमाणित होना - ऐसा जिसके मन में आता है, वह अध्ययन करेगा.  सूचना पहुँचते तक हम अध्ययन का ज़िक्र करते ही नहीं हैं.  पहले शिविर करिए, फिर ज़रुरत होगा तो अध्ययन करिए.  ये किताबें हमने बेचने के लिए तैयार नहीं की हैं!  इस पूरे कार्यक्रम में हमारे ऊपर आक्षेप का जगह नहीं है.  पूरी धरती के ७०० करोड़ लोग मिलके भी कोशिश कर लें तो भी इस कार्यक्रम के साथ शिकायत या आक्षेप नहीं कर पायेगा. 

मैं यह दावा करता हूँ - अपराध बुद्धि से ही इस कार्यक्रम पर कोई शिकायत या आक्षेप किया जा सकता है.  यह दावा मेरा व्यक्तिगत है.  इसमें मैं और किसी को involve नहीं करता हूँ. 

इस कार्यक्रम का एक अपना प्रभाव हुआ है, जो सकारात्मक होना गवाहित हुआ है.  तो इसको बनाए रखा जाये या नहीं?  बनाए रखा जाए!  - यही सज्जनता का उत्तर बनता है.

प्रश्न:  प्रबोधकों की प्रस्तुति में गुणवत्ता के बारे में आपका क्या मंतव्य है?

उत्तर:  प्रबोधकों की प्रस्तुति में गुणवत्ता की जहां तक बात है, उसमे देखा गया कि हर बार प्रबोधन करने के बाद अगली बार गुणवत्ता बढ़ती ही जाती है.  नीचे कोई आता ही नहीं है!  हर बार कोई नयी बात उजागर होता है, कम कुछ होता ही नहीं है.  इस तरह कुनबा जुड़ता गया है. 

प्रश्न:  प्रबोधक के अधूरे में रहते हुए भी कैसे काम चल जाता है?

उत्तर:  लोग हमारे पास हमे "अच्छा आदमी" मानके ही आते हैं.  अच्छाई को लेकर उनके पास पहले से भी कोई चित्रण रहता है.  उनको हम इस बात को अपनी अधूरी स्थिति में भी जैसे भी प्रस्तुत करते हैं - उनके लिए फिर भी नया होता है!  नया होने से उनमे एक उत्सव तो होता ही है! अब प्रस्तुति के बाद हम अपनी प्रस्तुति में कहाँ कमी रहा, उसको भरने की कोशिश करते ही हैं.  अभी तक जितनो ने भी जीवन विद्या का प्रबोधन किया - उन्होंने यही पाया!  अच्छाई के बाद अच्छाई की पूर्णता के लिए आदमी दौड़ता ही है!  उस विधि से पूरी बात एक दिन approach में आ जाती है.  दर्शन का सूचना पहले से रहता ही है, उसको आवश्यकता होने पर refer करते ही हैं.  एक शिविर के बाद दूसरे शिविर में और अच्छापन आता ही जाता है. 

लोगों ने स्वयंस्फूर्त इस कार्यक्रम में अपने तन-मन-धन को लगाया है.  इसको क्या कहा जाए?  क्या इसको स्वप्न कहें?  उन्माद कहें?  वास्तविकता कहें?  आवश्यकता है, कहें?  आवश्यकता नहीं है, कहें?  इस पर चर्चा हो सकती है.  इसके लिए मैंने अपना दरवाजा खुला रखा है. 

अभी तक घटनाक्रम ही है, अभी गम्य-स्थली में पहुँच गए - ऐसा न माना जाए.  लेकिन ये घटनाक्रम गम्य-स्थली की ओर है - ऐसा निर्णय हम ले सकते हैं.  जीवन विद्या कार्यक्रम से जिन परिणितियों को हम देख रहे हैं, उसको देख के मैं यह घोषणा कर सकता हूँ कि यह कार्यक्रम गम्यस्थली/लक्ष्य की ओर है.  भले ही धीरे गति हो या जल्दी गति हो.  सभी समान गति से जा रहे हैं, ऐसा भी नहीं है.  समान उद्देश्य से जा रहे हैं - यह सही है.  इस प्रकार गतिशील रहते हुए हम गम्यस्थली पर पहुंचेंगे - यह अरमान बनता है.  इसी गति से चलें, इससे धीरे चलें, या इससे ज्यादा गति से चलें - इस तरीके से चलके हम गम्यस्थली पर पहुँच जायेंगे, यह अरमान निर्मित होता है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)


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