प्रबोधन पूर्णता के अर्थ में मानव में विश्वास स्थापित करने के लिए है. पूर्णता को जीने में प्रमाणित करने की अर्हता को स्थापित करने के लिए प्रबोधन करते हैं.
पूर्णता है - गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता और आचरण पूर्णता
इस धरती पर गठनपूर्णता प्राकृतिक रूप से हो चुकी है. बाकी दोनों स्थितियों को सम्भावना रूप में रखा है.
गठनपूर्ण परमाणु जीवन स्वरूप में काम करता है. हर मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है. मानव परंपरा में अपराध मुक्ति, अपने-पराये से मुक्ति और क्लेश मुक्ति के लिए जीवन में क्रिया पूर्णता और आचरण पूर्णता की आवश्यकता बन गयी. क्रियापूर्णता सर्वतोमुखी समाधान स्वरूप में प्रमाणित होता है. उसके मूल में मानव चेतना ही वस्तु है. चेतना का मतलब है - ज्ञान.
ज्ञान है - अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान. इन तीनो ज्ञान के एकत्र होने से मानव चेतना है. मानव चेतना में क्रियापूर्णता स्पष्ट होती है जो सर्वतोमुखी समाधान स्वरूप में प्रमाणित होती है. सर्वतोमुखी समाधान ही मानव चेतना का स्वरूप है, जिसको अध्ययन कराने की व्यवस्था दिया है. अध्ययन विधि से ये गम्य होता है.
इतनी बात को पांचवी कक्षा तक के बच्चों को बोध करा सकते हैं या नहीं?
शिक्षा परंपरा हर व्यक्ति को समझदार बनाने के लिए जिम्मेदार है. अभी की शिक्षा हरेक को नौकरी और व्यापार में लगाने के लिए है. हर व्यक्ति नौकरी या व्यापार करे - क्या यह संभव है? इसके विकल्प में मानव चेतना विधि से समझदारी पूर्वक व्यवस्था में जीने की बात आयी. यदि मानव समझदार होता है तो उसमें मानवीयता पूर्ण आचरण स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है. संबंधों में मूल्य, चरित्र, नैतिकता प्रमाणित होता है.
मानवीयता पूर्ण आचरण का बोध माध्यमिक कक्षा के बच्चों को करा सकते हैं या नहीं?
मानवीयता पूर्ण आचरण का निश्चयन होने पर हम व्यवस्था में जीने की बात करते हैं. व्यवस्था का सूत्र है - मानव मानवत्व सहित व्यवस्था है (परिवार में) और समग्र-व्यवस्था में भागीदार है (दस सोपानीय व्यवस्था में). दस सोपानीय व्यवस्था में भागीदारी करना और परिवार में प्रमाणित होना - यह हर मानव की आवश्यकता है.
"मानव" शब्द में नर-नारी दोनों समाहित हैं.
पूर्णता है - गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता और आचरण पूर्णता
इस धरती पर गठनपूर्णता प्राकृतिक रूप से हो चुकी है. बाकी दोनों स्थितियों को सम्भावना रूप में रखा है.
गठनपूर्ण परमाणु जीवन स्वरूप में काम करता है. हर मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है. मानव परंपरा में अपराध मुक्ति, अपने-पराये से मुक्ति और क्लेश मुक्ति के लिए जीवन में क्रिया पूर्णता और आचरण पूर्णता की आवश्यकता बन गयी. क्रियापूर्णता सर्वतोमुखी समाधान स्वरूप में प्रमाणित होता है. उसके मूल में मानव चेतना ही वस्तु है. चेतना का मतलब है - ज्ञान.
ज्ञान है - अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान. इन तीनो ज्ञान के एकत्र होने से मानव चेतना है. मानव चेतना में क्रियापूर्णता स्पष्ट होती है जो सर्वतोमुखी समाधान स्वरूप में प्रमाणित होती है. सर्वतोमुखी समाधान ही मानव चेतना का स्वरूप है, जिसको अध्ययन कराने की व्यवस्था दिया है. अध्ययन विधि से ये गम्य होता है.
इतनी बात को पांचवी कक्षा तक के बच्चों को बोध करा सकते हैं या नहीं?
शिक्षा परंपरा हर व्यक्ति को समझदार बनाने के लिए जिम्मेदार है. अभी की शिक्षा हरेक को नौकरी और व्यापार में लगाने के लिए है. हर व्यक्ति नौकरी या व्यापार करे - क्या यह संभव है? इसके विकल्प में मानव चेतना विधि से समझदारी पूर्वक व्यवस्था में जीने की बात आयी. यदि मानव समझदार होता है तो उसमें मानवीयता पूर्ण आचरण स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है. संबंधों में मूल्य, चरित्र, नैतिकता प्रमाणित होता है.
मानवीयता पूर्ण आचरण का बोध माध्यमिक कक्षा के बच्चों को करा सकते हैं या नहीं?
मानवीयता पूर्ण आचरण का निश्चयन होने पर हम व्यवस्था में जीने की बात करते हैं. व्यवस्था का सूत्र है - मानव मानवत्व सहित व्यवस्था है (परिवार में) और समग्र-व्यवस्था में भागीदार है (दस सोपानीय व्यवस्था में). दस सोपानीय व्यवस्था में भागीदारी करना और परिवार में प्रमाणित होना - यह हर मानव की आवश्यकता है.
"मानव" शब्द में नर-नारी दोनों समाहित हैं.
- समझदारी में हर नर-नारी समान हैं.
- जीवन गठन रूप में हर नर-नारी समान हैं.
- जीवन क्रिया रूप में हर नर-नारी समान हैं.
- मानव लक्ष्य रूप में हर नर-नारी समान हैं.
- व्यवस्था में भागीदारी करने में हर नर-नारी समान हैं.
- मानवीयता पूर्ण आचरण करने में हर नर-नारी समान हैं.
इस तरह नर-नारी में समानता के बिन्दुओं के आधार पर मानव-अधिकार भी स्पष्ट होते हैं. मानव अधिकार की चाहत और नर-नारी में समानता की चाहत मानव परंपरा में है. यह समानता की चाहत जीव-चेतना में सफल नहीं हो सकती और मानव-चेतना में यह चाहत सफल हुए बिना रह नहीं सकती. इसको क्या प्रबल बनाया जाए या इसका अनदेखी किया जाए? प्रबल बनाना है तो इसके लिए जी-जान लगाना पड़ेगा.
मानव चेतना के अध्ययन के लिए जितना प्रबंध की आवश्यकता है उसको दर्शन-वाद-शास्त्र स्वरूप में प्रस्तुत कर दिया. उसको हम स्नातक कक्षा में पढ़ाने, समझने, समझाने को कह रहे हैं. इसमें प्रवेश के लिए जीवन विद्या शिविरों की परंपरा स्थापित की है.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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