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Sunday, July 17, 2016

अनुभव काल




अनुभव के बाद, अनुभव प्रमाण के आधार पर बुद्धि में बोध होने के बाद विवेचना होती है कि -
सहअस्तित्व ही दृश्य है,
सहअस्तित्व का दृष्टा जीवन है,
मानवीयता पूर्ण आचरण का दृष्टा जीवन है
व्यापक वस्तु ही ज्ञान है,
ज्ञाता जीवन है.

अध्ययन से जीवन का शरीर से भिन्न होने का बोध होता है, अनुभव मूलक विधि से इसका प्रमाण होता है.  अनुभव अध्ययन के बाद है.  अनुभव मूलक विधि से प्रयोजन बोध होता है.  प्रयोजन बोध होने से कार्यक्रम बनता है.

शरीर और जीवन अलग अलग विधि से प्रकटन क्रम में सिद्ध हुआ है.   जड़ प्रकृति में विकास क्रम में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन का एक परिणाम है - मानव शरीर.   जीवन मात्रात्मक परिवर्तन से मुक्त होने के बाद गुणात्मक परिवर्तन में प्रवृत्त वस्तु है.  शरीर और जीवन का यह भेद अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है.  इसका प्रयोजन अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित होता है.

प्रश्न:  साधना पूर्वक संयम काल में जो कुछ आपने देखा, वैसा ही हम भी अध्ययन पूर्वक देखेंगे।  क्या यह सही है?

उत्तर: हाँ.  उसी के लिए अध्ययन कराते हैं.  स्वयं का निरीक्षण में वही होता है.  स्वयं का निरीक्षण जब तक नहीं करेंगे, तब तक अनुभव होगा भी नहीं।

प्रश्न: क्या जिस प्रकार आप जीवन परमाणु के अंशों को भी गिन पाये, क्या मैं अध्ययन पूर्वक वैसा ही कर पाऊँगा?

उत्तर: यदि आपका परमाणु को देखने का उद्देश्य हो तो अनुभव काल में आपको परमाणु दिखेगा (समझ आएगा).  आपका उद्देश्य यदि वह नहीं है तो वह नहीं दिखेगा।  मेरे लिए सब वस्तुओं को विस्तार में देखने का उद्देश्य बना था, इसी लिए मैं सब देख पाया।  वैसे ही आप भी देख सकते हो.

शब्दों में कोई उद्देश्य नहीं होता है, शब्दों में केवल अहंकार होता है.  मैं हज़ारों वैदिक ऋचाओं को पढ़ने, याद करके सुनाने के बाद इस निर्णय पर पहुंचा हूँ.

आपको जो मैं बोध करा रहा हूँ वह समाधि नहीं है.  यह संयम का फल है.  समाधि के बाद प्राप्त होने वाला ज्ञान आपको प्रदान किया जा रहा है.  उसके लिए आप में आना-कानी कितना है, उसका भी ख्याल हो!  तब उससे मुक्ति पाने की विधि आप में आएगी।  मेरे समझाने में क्या आना-कानी हुई और आपके समझने में क्या आनाकानी हुई उसको भी ध्यान में रखा जाए.  समझने और समझाने में आनाकानी न हो तो समय का बचत होगा।

जिज्ञासा गलत नहीं है.  जिज्ञासा को पूरा करने के लिए जो प्रेरणा है, उसको नहीं स्वीकारना ही आना-कानी है.




अभी हम इस निर्णय पर पहुंचे कि जैसे एक व्यक्ति देख पाया, वैसे हम भी देख सकते हैं.  इसमें मुख्य बात है - देखने का उद्देश्य है "जीना".   जीने के लिए मैंने सब कुछ को देखा।  मानव के ऐसे जीने का स्वरूप इस वांग्मय के स्वरूप में मानव को दे दिया।  वैसे जीना अनुभव मूलक विधि से पूरा होता है.

अनुभव यदि होता है तो हम जो देखने का उद्देश्य बनाते हैं, तो अनुभव काल में वह सब दिखता है.  अनुभव आकाश में न दिखे, ऐसा कोई वस्तु ही नहीं है अस्तित्व में.

प्रश्न: "अनुभव काल" से क्या आशय है?

उत्तर:  (अध्ययन पूर्वक बोध होने के बाद)  जितने भी समय तक आप अनुभव की स्थिति में रहते हों, वह "अनुभव काल" है.  चाहे वह एक क्षण हो, कुछ घंटे लगातार  हो, या कुछ दिन लगातार हो.  अनुभव होना कुछ समय अवधि में ही होता है - चाहे वह एक क्षण हो, एक दिन हो, दस दिन हो.

(साधना काल में) मैंने दिन में १२  से १८ घंटे तक अनुभव कर के देखा।  (साधना से उठने पर) शरीर का अध्यास होने के बाद पता चलता है, (कि इतने समय अनुभव काल में थे).

कितना समय उस स्थिति में रहे - यह महत्त्वपूर्ण नहीं है.  अनुभव काल में (अध्ययन में बनने वाले) उद्देश्य का उत्तर मिलता है.

प्रश्न:  "अनुभव आकाश" से क्या आशय है?

उत्तर: अनुभव किसी अवकाश में ही होगा।  आपको बताया - समाधि में जैसे पानी में डूब कर, जहाँ ऊपर बढ़िया धूप हो, वहाँ आँखें खोलने पर जैसा दिखता है, वैसा मुझे दिखता रहा.  उसी को "अनुभव आकाश" मैंने नाम दिया।  यह हर व्यक्ति में (अध्ययन पूर्वक) होगा।  अनुभव आकाश में सब दिखता ही है. यथार्थता में अनुभव आकाश "साम्य ऊर्जा" ही है.   साम्य ऊर्जा पारदर्शी, पारगामी और व्यापक है.  साम्य ऊर्जा के पारदर्शी होने से सब दिखता है.

मैंने आप लोग जिस विधि से अध्ययन कर रहे हो, वैसे देखा नहीं है.  आप लोगों ने कैसा देखा - उसको आप से सुनेंगे!  मैंने समाधि-संयम पूर्वक पूरी बात को अनुभव आकाश में देखा है.

अनुभव के बाद विवेचना हुई, विगत में ऐसा कहा है जबकि सच्चाई यह है.  इसलिए इस बात को विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत कर दिया।   इसको आपको अनुभव ही करना पड़ेगा।  अनुभव मूलक विधि से ही आदमी मानव बनेगा, नहीं तो जानवर ही रहेगा।  अभी शिक्षा में जो प्रचलित कामोन्मादी मनोविज्ञान, भोगोंमादी समाजशास्त्र, लाभोन्मादी अर्थशास्त्र है - उसके अंदर ही फंसा रहेगा।  मानव बन के ही आदमी व्यवस्था में जी सकता है, जानवर बनके (जीव चेतना में) व्यवस्था में जी नहीं सकता, अव्यवस्था ही करेगा।

प्रश्न:  तो क्या पहले "अध्ययन काल" है, फिर "अनुभव काल" है?

उत्तर:  हाँ.  अध्ययन काल में क्रमिक रूप से सभी सच्चाइयों का बोध होता है (अवधारणा बनती है).  अध्ययन काल में "उद्देश्य" बनता है.  इसके बाद "अनुभव काल" है - जब मनुष्य "दृष्टा पद" संपन्न होता है.  अनुभव काल में जो उद्देश्य बना रहता है, वह सब दिख जाता है.  अध्ययन काल में उद्देश्य बनता है, जो अनुभव काल में स्पष्ट होता है.  मैंने क्या देखा - उसको मैंने लिख के दे दिया है.  उसमें से आपको क्या देखना है, क्या नहीं देखना है - आप ही सोच लो!  यह एक बहुत साधारण बात है.

 - दिसंबर २००८, अमरकंटक 

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