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Saturday, July 2, 2016

यथास्थिति से अनुभव तक


"तृप्ति बिंदु तक पहुंचे नहीं हैं, तृप्ति बिंदु के लिए कोई रास्ता चाहिए" - यहाँ से हम शुरू करते है.  "तृप्ति कहाँ है?" - ढूँढ़ते हुए यह प्रस्ताव सामने आता है, उसको हम जांचना शुरू करते हैं.  इसको जांचने के क्रम में वरीयता (प्राथमिकता) समाधान-समृद्धि के पक्ष में हो जाती है, बाकी सब secondary हो जाता है.  वरीयता को बनाये रखने के लिए फिर हम मे प्रयत्न शुरू हो जाता है.  यह प्रयत्न एक दिन पूर्णता तक पहुँच जाता है.  

प्रौढ़अवस्था में पहुँचने के बाद वरीयता को लेकर निष्कर्ष निकालना स्व-निरीक्षण विधि से ही होता है.  बाल्यकाल में मार्गदर्शन विधि से होता है.  

प्रश्न: प्रौढ़ अवस्था में क्या परेशानी है? 

प्रौढ़ व्यक्ति पहले से अपने को समझदार माना रहता है - यह उसकी परेशानी है. 

प्रश्न: स्वनिरीक्षण कैसे होता है?

अभी तक हम जैसे जी रहे हैं उससे हमको तृप्ति हो रहा है या नहीं इसका निरीक्षण।  यदि तृप्ति मिल गया है, तो उसी को किया जाए.  यदि तृप्ति नहीं मिला है तो हमको और कुछ समझने की ज़रुरत है, यह निष्कर्ष निकलता है.  तब यह प्रस्ताव सामने आता है. 

स्वनिरीक्षण ही आधार है, मानव में समझ के लिए प्रयास उदय होने के लिए.  दबाव या आरोप से यह नहीं निकलता।

इस क्रम में - चर्चा में, सूचना में और तर्क में यह आता है - "अभी हम सुविधा-संग्रह के लिए काम कर रहे हैं, जिसका  कोई तृप्ति-बिंदु ही नहीं है."  सूचना के आधार पर स्व निरीक्षण पूर्वक यह निष्कर्ष निकल जाता है.  फिर समझदारी को परिपूर्ण करने की प्रवृत्ति होती है. "तृप्ति बिंदु कहाँ है?" - वहाँ पहुँचने के लिए सोच शुरू हो जाती है. हम यहाँ से कैसे निकलें - यह सोच शुरू हो जाती है.  तृप्ति को लेकर समझ की सूचना प्रस्ताव के रूप में फिर मिलती है.

कैसे निकलें - यह लोगों की अलग-अलग परिस्थिति अनुसार उनका अलग-अलग फॉर्मेट होगा, लेकिन सभी में साम्य बात होगी - अध्ययन विधि।

अध्ययन का स्त्रोत (प्रमाणित व्यक्ति) और अध्ययन की इच्छा (जिज्ञासु विद्यार्थी) - ये दोनों मिलने से स्पष्ट हो जाता है कि मानव के जीने का लक्ष्य क्या है, मानव के जीने का सही तौर तरीका क्या है, वैसे जीने के फल-परिणाम क्या है.  इस तरह स्वयं में वरीयता (प्राथमिकता) बन जाती है कि हमको समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना है.

प्रश्न: आज की स्थिति में मैं नौकरी कर रहा हूँ, इस प्रस्ताव को सुनने पर वह मुझे "गलत" लगता है.  क्योंकि मुझे लगता है - मैं अव्यवस्था में भागीदार हूँ... 

उत्तर:  उसको अभी "गलत" या "सही" मत ठहराओ।  यह पूरा नहीं पड़ रहा है - इतना रखो.  तृप्ति के लिए क्या हो सकता है, इसके लिए आपके पास सूचना आया - समाधान-समृद्धि पूर्वक तृप्ति हो सकती है, जिसके लिए दर्शन का अध्ययन पूर्वक ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न होना आवश्यक है.

अध्ययन से अनुभव पूर्वक ज्ञान-विवेक-विज्ञान स्पष्ट हो जाता है. ज्ञान-विवेक-विज्ञान को जीने का डिज़ाइन समाधान-समृद्धि स्वरूप में  मानवीयता पूर्ण आचरण स्पष्ट हो जाता है.  उसको प्रमाणित करने के लिए अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है.  उसको लोकव्यापीकरण करने के लिए शिक्षा विधि स्पष्ट हो जाती है.  इसको आचरण करने पर तृप्त रहना बन जाता है, समाधानित रहना बन जाता है, समृद्ध रहना बन जाता है.

प्रश्न:  आप कहते हैं अनुभव से पहले मानव में सही जीने का डिज़ाइन ही नहीं बनता।  तो क्या आप यह कह रहे हैं कि मैं नौकरी करते-करते अध्ययन करता रहूँ और फिर अनुभव करूँ और फिर जीने का डिज़ाइन बनाऊं?

नहीं।  इसमें थोड़ा और सोचने की ज़रूरत है.  आप जहाँ हैं वहाँ रहते हुए इस बात का पठन तो कर ही सकते हैं.  फिर उसके बाद समझने की बात आती है.  अध्ययन विधि से आप वहाँ रहते हुए साक्षात्कार-बोध तक पहुँच सकते हैं, पर अनुभव बिंदु छुटा रहेगा।  अनुभव हुआ तो वह नौकरी वाला स्वरूप रहेगा नहीं।

प्रश्न:  अनुभव बिंदु कब तक छुटा रहेगा?

जब तक आपमें अनुभव की आवश्यकता सबसे प्राथमिक न हो जाए, और जब तक जिन साधनों को जोड़ने के लिए आप नौकरी करने निकले थे - वह पूरी न हो जाए तब तक.  नौकरी छूटने पर आप अनुभव करने के योग्य हो गए क्योंकि नौकरी में रहते हुए अध्ययन पूर्वक आप अनुभव के दरवाजे पर आ चुके होंगे।  अनुभव होने के बाद प्रमाणित होना ही बनता है.

अनुभव के लिए हममे अपेक्षा और साधनों को लेकर हमारी अपेक्षा इन दोनों के बीच में दूरी समाप्त हो जाने पर (यानि अध्ययन को पूरा कर लेने के बाद और साधनों को प्राप्त कर लेने के बाद) अनुभव होता है.  इसका कारण है - हम अभी तक जैसा जीने के तरीके को अच्छा मान लिए हैं, जब उसके लिए आवश्यक साधनों के निकटवर्ती स्थिति तक हम पहुँच जाएँ, तभी उसको लेकर जो हम नौकरी आदि उपक्रम किये, उससे हम मुक्त हो सकते हैं.





अभी जो बताया इस ओर चलने से अनुभव प्रमाण की वरीयता और आवश्यकता हम में बलवती होती जाती है.  बोध होते तक अनुभव प्रमाण की वरीयता सर्वोपरि होकर स्थिर हो जाती है.  तब तक साधनों को जमा करने को लेकर ९०% तक हमको वह अजीर्ण (जरूरत से ज्यादा) हो गया है, ऐसा लगने लगता है.  हमारा ही मन है, साधनों को 'ज्यादा है' मानना - हमारा ही मन है उनको 'कम है' मानना।  फिर अनुभव होने के बाद जो साहस बन जाता है उससे फिर हम रुक ही नहीं सकते।

प्रश्न:  यह एक शरीर यात्रा की बात है या अनेक शरीर यात्राओं की?  

एक ही शरीर यात्रा में समझ, एक ही शरीर यात्रा में समृद्धि, एक ही शरीर यात्रा में प्रमाण।

इन सब बातों को सोच करके हमको इस रास्ते पर चलने के लिए अपनी तैयारी बनाने की ज़रूरत है.  यह भी बात सही है - यह बात स्वयं में प्रवेश होने पर, या साक्षात्कार होने पर यह एक दिन अनुभव तक पहुँचता ही है.   अनुभव होने के बाद उससे पहले जो हम भ्रम-वश वरीयता क्रम बनाये थे - वह ध्वस्त होता ही है.  इस सब को ध्यान में रखते हुए आप निर्णय लो.  ताकि "हम ऐसा नहीं समझे थे, तैसा नहीं समझे थे" - इस प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप न हों.  अच्छी तरह से सोच के, अच्छी तरह से समझ के, अच्छी तरह से निर्धारित करके, अनुभव करके अपनी प्रतिबद्धता को स्थिर बनाया जाए.

समाधान से यदि हम भली प्रकार से संपन्न हो जाते हैं तो समृद्धि अपने-आप भावी हो जाती है.   समृद्धि के लिए हज़ार रास्ते रखे हैं.

समझदारी हासिल करने में समय लगता है.  साक्षात्कार होने तक.  दस तरह की चीजों में हमारा ध्यान बंटा रहता है, इसके लिए पूरा समय दे नहीं पाते हैं.  इसलिए धीरे-धीरे होगा, कोई आपत्ति नहीं है.  किन्तु साक्षात्कार के बाद यह रुकेगा नहीं।  साक्षात्कार होगा तो बोध होगा ही, अनुभव होगा ही, अनुभव प्रमाण होगा ही.  दूसरा कुछ होता ही नहीं है.


- जनवरी २००७, अमरकंटक (श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित) 

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