विकास क्रम में प्रत्येक परमाणु अंश भी दूसरे परमाणु अंश को पहचान करके वो व्यवस्था में भागीदारी करते हैं.
जैसे - दो अंश के परमाणु में,मध्य में एक अंश रहता है उसके चारों तरफ दूसरा अंश चक्कर लगाता रहता है. उस परमाणु का आचरण निश्चित होता है. उसी प्रकार से सभी परमाणुओं का आचरण निश्चित है. ये सब परमाणु विकास क्रम में पाये जाते हैं.
यही परमाणुएँ निश्चित गठन पूर्वक समर्थ होने के बाद रासायनिक क्रिया को शुरू करते हैं. वो अपने आप में स्वयं स्फूर्त विधि से रासायनिक क्रियाओं में उद्यत होते हैं. फलस्वरूप रसायन बनता है.
रसायन के बाद प्राणकोशा इसी स्वयं स्फूर्त विधि से बनता है. प्राणकोषाएं जब साँस लेना शुरू करते हैं तब उनमें अपने आप रचना विधि आ जाता है. कोई इंजीनियर के डिज़ाइन की जरूरत नहीं है, इसके लिए - यह अपने आप आता है. फिर रचना विधि में स्वयं स्फूर्त उत्तरोत्तर विकास होता जाता है. यह वैसे ही है - जैसे एक आदमी ने खोली (कमरा) बनाया। उसको सफलता पूर्वक बनाने के बाद उसे उससे अच्छा बनाना अपने आप से आ गया. इस क्रम से चलते चलते 275 मंजिल कीअट्टालिका उससे बनाना बन गया.
इस तरह भौतिक-रासायनिक संसार पूरा "विकास क्रम" में है.
जीवन एक गठन पूर्ण परमाणु है - जो "विकास" की स्थिति है. "जागृति क्रम" में एक जीवनी क्रम होता है, जहाँ जीवों में, शरीर रचना (वंश) के अनुसार जीवन शरीर को चलाता है. यह गरीबी है जीव-संसार में. क्योंकि यहाँ अक्षय और अमर जीवन शक्तियाँ क्षयशील और मरणशील शरीर के अनुसार काम करती हैं. मानव भी समझदारी से पहले इसी गरीबी में है - और भ्रमवश मनुष्येत्तर संसार पर शासन करने गया, इनके साथ जीना सीखा नहीं। इतना ही बात है|
मानव में जीवों की तुलना में कर्म स्वतन्त्रता और कल्पनाशीलता की बात जुड़ गया. मन:स्वस्थता के बिना कल्पनाशीलता की तृप्ति बिन्दु मिलती नहीं। कल्पनाशीलता के सहारे मानव ने कर्मस्वतन्त्रता का प्रयोग किया। किन्तु कल्पनाशीलता का तृप्ति बिंदु को नहीं पहचाना। कल्पनाशीलता की तृप्ति बिंदु है समाधान। समाधान समझदारी से होता है. समझदारी है - सह अस्तित्व रूपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान - विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम जागृति - ये चारों भाग समझ में आना. किसमें? व्यापक वस्तु में. व्यापक वस्तु आधार है - उसको भुलवा नहीं देना।
प्रश्न- जीवनी क्रम में जीवन का क्या कार्यरूप होता है?
उत्तर- हर जीवन अपने में एक पुँजाकार बनाता है - वो एक आकार है, उस आकार का एक शरीर मिलता है जिसको वो चलाता है. इतना ही सिद्धान्त है. हर जीवन एक ही आकार में पुँजाकार बनाना है, ऐसा कोई विधा नहीं। जीवन का जो आकार बनाने का जो कार्य है वो जीने के आशा के आधार पर होता है. गठन पूर्णता के साथ ही जीवन में जीने की आशा, और जीने की आशा के अनुरूप पूँजाकार। बस इतना ही है.
प्रश्न- अगर मान लो जीवन के पुँजाकार के अनुसार शरीर रचना धरती पर तब तक तैयार नहीं हुई हो तो?
उत्तर- उसके तैयार होने तक जीवन इंतजार करता रहता है. जीवन के लिए समय का बाधा नहीं। दूरी की बाधा नहीं है. शरीर के लिए दूरी की बाधा है, समय की बाधा है.
प्रश्न- जीवन के लिए कोई समय की बाधा नहीं है, इसका मतलब क्या हुआ?
उत्तर- समय जो हम गिनते हैं, एक दो सेकंड, मिनट, घंटा, दिन, महीने... जीवन के लिए वह कोई बाधा नहीं है - क्योंकि जीवन अमर है और अक्षय है. समय का मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में उपयोग जो करता है, वो ठीक है. लेकिन भ्रम में मानव इस बारे में अज्ञात रहता है कि जीवन ही इसको उपयोग कर रहा है. भ्रम पर्यन्त जीवन स्वयं को शरीर माना रहता है. जबकि शरीर केवल चमड़े का खोल मात्र है. शरीर जीवन नहीं है. शरीर जीवन का साधन है.
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