विज्ञान विधि से नापने और तौलने की विधियों को विकसित किया गया. स्थूल और सूक्ष्म स्तर पर कितने भी नापने-तौलने के मापदण्ड निकाले, उससे जो कुछ भी निकला वह मानव को छोड़ के निकला। नापने और तौलने की विधियों से मानव का अध्ययन नहीं हुआ. यह हम निष्कर्ष निकाल लिए.
दूसरे, आदर्शवादी भक्ति-विरक्ति विधि से भी मानव का अध्ययन नहीं हुआ. मानव ही मानव को समझ में न आने से मानव आवारा पशु जैसा हो गया. पशुओं में जैसे एक सींग मारने वाला होता है और एक भागने वाला होता है - वैसा ही मानवों में भी हो गया. उसको नाम दिया - "राक्षस मानव" और "पशु मानव". उसके बाद पशु मानव और राक्षस मानव को एक खाते में डाला - जिसका नाम दिया "अमानव". अमानव की प्रवृत्ति बताया, अमानव का गुण बताया, स्वभाव बताया और धर्म बताया। साथ ही बताया कि अमानव में भी सुख की कामना है. यह आधार है, जहाँ अभी मानव है. यह आधार स्पष्ट करते हुए बताया कि अमानवीयता में जीते तक मानव में अपराध प्रवृत्ति से मुक्ति नहीं होगी। न विज्ञान के नाप-तौल विधि से होगी, न आदर्शवाद के भक्ति-विरक्ति विधि से होगी। अपराध प्रवृत्ति का स्त्रोत अमानवीयता ही है. अमानवीयता का ही दूसरा नाम है - "जीव चेतना में जीना".
जो Concept है - उसके अनुसार उसकी भाषा होती है. जैसे - विज्ञान में एक निश्चित अम्ल को इंगित करने के "H2SO4" भाषा का प्रयोग किया। यह अगर आपको मुश्किल लगता है तो आप इस भाषा को बदल के देखो। बदलोगे को तो अर्थ विहीन ही होगा। उससे कोई प्रयोजन नहीं निकलेगा। प्रयोजन विहीन विधि से भाषा का प्रयोग करना, कार्य करना, विचार प्रकट करना क्या सार्थक होगा? इसी तरह मध्यस्थ दर्शन का जो Concept है, उसके अनुसार उसकी भाषा है.
इससे पहले वेद-विचार में एक भाषा का प्रयोग किया है - "सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम अप्रियं". मतलब - सत्य को बोलो, जो प्रिय लगे ऐसे सत्य को बोलो। जो सत्य अप्रिय लगे ऐसे सत्य को नहीं बताना। मेरे हिसाब से प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ अमानव की प्रवृत्ति है. तो मेरे हिसाब से वहाँ लिखा है - अमानव को जो अप्रिय हो, वह सत्य को मत बताओ। इसका मतलब हुआ - अमानवीयता या अपराध के लिए सहमति देना! विगत में जो लिखा है उसके अर्थ में जाओगे तो आप पाओगे उसमें बहुत अंतर्विरोध है. इसलिए मैंने उनका पिंड ही छोड़ दिया। जबकि मैं वेदों में ५०० ऐसी ऋचाओं को पहचानने की योग्यता रखता हूँ, जिसमें मध्यस्थ दर्शन की पूरी बात को सम्प्रेषित किया जा सकता है. लेकिन व्यर्थ के वाद विवाद में न पड़ें, इसलिए मैंने "परिभाषा विधि" से अपनी बात को "विकल्प" स्वरूप में प्रस्तुत किया।
परिभाषा सहित मैंने जब भाषा का प्रयोग करना शुरू किया तो लोग मुझे कहे - तुम्हारा भाषा कठिन है! मेरा उनको उत्तर है - तुमको भाषा कठिन लगती है, क्योंकि तुमको समझना नहीं है. जो हमको समझना नहीं है, वह हमको कठिन लगता ही है. जो समझना है, वह सब सुलभ है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित,
अगस्त २००६, अमरकंटक
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