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Sunday, July 3, 2016

जीवन शरीर सत्ता - भाग 2




प्रश्न- अशारीरिक स्थिति में जीवन एक स्थान से दूसरे स्थान पर कैसे पहुँचता है?

उत्तर- जीवन जिस ओर जाता है उसको पहचानने में उसको देर नहीं लगती।  ये वैसे ही है - जैसे मनुष्य एक के बाद दूसरा पैर बढ़ाता है तो अगला पैर जमीन पर ही रखता है.  वैसे ही जीवन को अपने रास्ता को पहचानने में कोई तकलीफ नहीं है.  और हर व्यक्ति के साथ जीवन रहता ही है.  दूसरा जीवन कहाँ पहुँचा है उसके आधार पर जीवन दूसरे स्थान पर जाता है.  जीवन की गति को जीवन जानता है.  जीवन की भाषा को जीवन जानता है. जीवन जीवन से बात करता भी है.  

किन्तु मानव परंपरा में जीवन-ज्ञान के बिना यह सफल नहीं हो पाता.  जबकि सम्मान आदि मूल्यों को प्रमाणित होने की आवश्यकता मानव परंपरा में ही है.

प्रश्न- तो जीवन अशारीरिक अवस्था में भी आपस बात कर सकते हैं - किन्तु मानव परंपरा में शरीर के साथ आने पर में भ्रम में आ जाते हैं, क्या ऐसा है?
उत्तर- यह भ्रम और जागृति का बात है.  भ्रम और जागृति मानव परंपरा में ही प्रमाणित होता है और कहीं प्रमाणित होता नहीं।  जैसा दिव्य आत्मा को शरीर की जरूरत न होते हुए भी, यदि उनको प्रमाणित होना है तो मानव शरीर को चलाते हुए ही होंगे। 

मानव शरीर का केवल प्रयोजन है - जागृति प्रमाणित होना।  जीवन अपने जागृति को प्रमाणित करे, उस जगह में मानव जाति इस धरती पर अब तक आया नहीं है.  शरीर को ही सजाने धजने में ही यह पूरता नहीं है.  

जैसा - मैं शरीर छोड़ देता हूँ,  मुझे तीनों चेतना (मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना) का ज्ञान है, किन्तु यदि  मुझे प्रमाणित होना है तो वह शरीर के द्वारा ही होगा। मुझे (जीवन स्वरूप में) अपने में संतुष्ट रहना हैतो मैं चुप रह सकता हूँ.  जीवन को काल की बाधा नहीं, दूरी की बाधा नहीं।   भौतिक वस्तु की बाधा है ही नहीं जीवन को.  शरीर छोड़ने के बाद जीवन को भौतिक वस्तु की जरूरत है ही नहीं।  यदि जीवन को प्रमाणित होना है तो उसको शरीर लेना आवश्यक है.  

उपकार प्रवृत्ति विकसित चेतना में होता ही है.  उपकार करने की उत्कंठा आ गई वो शरीर के द्वारा प्रकट होगा ही.  अपने स्वयं की तृप्ति को प्रकट करने के लिए.  

अभी हम जो कर रहे हैं किस बात के लिए कर रहे हैं? हमारे साथ जितने भी लोग प्राण दे रहे हैं, किसके लिए? स्वयं की तृप्ति के लिए.  अभी जो आप अपना अमूल्य समय लेकर आए हो, किसलिए? अपनी तृप्ति के लिए, संसार के साथ उपकार के लिए.  आपका इतना यात्रा  इसी दो शब्द में आता है.  गलत हो तो बताओ?
इसके अलावा कोई उद्देश्य ही नहीं बनता है.  अपने साथ अभी जितने भी हैं  - सभी इसी उद्देश्य से हैं.  कोई ज्यादा करते हैं कोई कम करते हैं.  

उपकार निरामय है.  किसी पर कोई भी एहसान नहीं है.   निरामय...आमय का मतलब है पाप, निरामय का मतलब है निष्पाप।  

प्रश्न: प्रकटन क्रम में परिवर्तन किस प्रकार होता गया है?

उत्तर:  जड़ संसार में  मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन।  जीवनी क्रम में  शरीर में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन।  ऐसा होते होते मानव शरीर तक हम पहुँचते हैं.  

मानव शरीर को चलाते हुए जीवन शरीर के साथ तदाकार होकर रह गया, जीवन को अपने प्रमाणित करने की जगह आना चाहिए था - वह नहीं हुआ.  जीवन अपने जागृति के बारे में विस्मृत होता गया.  इसी का नाम है भ्रम। 
शरीर को जीवन समझ लिया।  शरीर के आकार में अपने आप को ढाल लिया और वहीं फँस गया.  इतना ही बात है.  

प्रश्न- तो जीवन जागृति में तदाकार-तद्रूप होने से रह गया?

उत्तर:  तदाकार-तद्रूप प्रक्रिया जीवन में ही होती है. शरीर के किसी अंग में यह प्रक्रिया नहीं होती।   इसी आधार पर जीवन ज्ञान होना बहुत जरूरी है.   विकास क्रम में ही शरीर रचना बनी है.   जीवन अपने जागृति को प्रमाणित करने योग्य शरीर बनते तक रचना क्रम है. जीवन भ्रमवश शरीर को जीवन मानना शुरू कर दिया है, वहीं से गिर पड़ा है.

जीवन और शरीर का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए।  शरीर विकास क्रम में है और जीवन जागृति क्रम से जागृति के लिए है.  जीवन या तो जागृत है या जागृति क्रम में है.  ये ज्ञान होना चाहिए।  

जागृति क्रम से  जागृति तक शिक्षा एक मात्र विधि है.  

जीवन के ज्ञान स्वरूपी साम्य ऊर्जा से तदाकार होने से, अपने आप से, उसमें शरीर से तदाकार होने वाली प्रवृत्ति खत्म हो जाती है.

ज्ञान को नापा-तौला या संख्याकरण नहीं किया जा सकता।  ज्ञान को टुकड़े करके तराजू में तोलेंगे - ऐसा व्यवस्था नहीं है.  ज्ञान का टुकड़ा होता नहीं, ज्ञान को बेचा नहीं जा सकता।  हर व्यक्ति के साथ ज्ञान प्रमाणित होता है.  इसलिए ज्ञान लोकव्यापीकरण करने के लिए वस्तु है.  धर्म (धर्म= सुखपूर्वक जीने की आशा) लोकव्यापीकरण करने के लिए वस्तु है.  इसलिए धर्म को रोज जीने का बात होता है ज्ञान पूर्वक रोज जीना होता है.  धर्मपूर्वक जीते हैं तो ज्ञान पूर्वक जीना होता है.  ज्ञान और धर्म अलग अलग हो ही नहीं सकता। 

ज्ञान में तदाकार होने पर जो शरीर की सीमा समझ में आ गई - उस मर्यादा का पालन करना होता है.  ज्ञान के अर्थ में शरीर का उपयोग करना होता है.  अभी भ्रम वश शरीर के अर्थ में जीवन का उपयोग हो रहा है.  कितना बड़ी भारी पूँजी कितना छोटा काम में लगकर के अपव्यय हो रहा है, आप सोच लो.  यदि ज्ञान में अनुभव होता है तो अपने आप से संवेदना नियंत्रित होगा कि नहीं होगा? अपने आप से होगा।  झकमारी है वो!  आराम से होने वाली बात है.

यदि व्यापक वस्तु समझ में आ गया, तो व्यापक वस्तु में हम तदाकार हो गए.  मानव में व्यापक वस्तु ही ज्ञान कहलाया।  विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति...इसका ज्ञान हो गया.  

ज्ञान होने से मनुष्य को "मानव पद" में जीने का अधिकार बना.  इस ज्ञान के बिना "मानव पद" में कोई जीता नहीं है.  (भ्रमित रहते) कल्पना की शक्ति जितना है उतना मानव जी लिया, लेकिन उतना पर्याप्त नहीं हुआ.  मानव की कल्पना में अभी सारा भ्रम बसा हुआ है. 

भ्रमित जीते तक मानव में कल्पना शक्ति, कर्म स्वतन्त्रता की मदद किया।  इससे शरीर की अनुकूलता को डिज़ाइन किया।  उसमें विवश रहा.  इतना ही बात हुआ.  चार विषय, और पाँच संवेदनाएँ - इतने के अंदर ही वो रह गया.  इतने के अंदर द्वेष, अपना-पराया दूर होता नहीं है.  इन दोनों नियंत्रित होने के बाद ही मनुष्य एषणात्रय में काम करता है.  उपकार कर पाता है. पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, लोकेषणा सहित "मानव" संसार में उपकार करना शुरुआत करता है.  "देव मानव" में पुत्तेष्णा और वित्तेषणा शिथिल होता है और लोकेषणा प्रधान होता है.  तीनों एषणाएँ शिथिल होते हुए उपकार प्रबल हो जाता है- "दिव्य मानव" में.  इतना ही बात है.  

- दिसंबर २००८, अमरकंटक

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