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Thursday, September 27, 2012

अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था




"मैं इस बात का सत्यापन करता हूँ कि संवेदनाओं के संयमित होने से पहले धरती पर एक भी व्यक्ति "अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था" को सोच नहीं पायेगा।  यदि यह बात गले से उतरता है तो संज्ञानीयता में पारंगत होने की इच्छा स्वयं में बनता है।"

- श्री  नागराज का उद्बोधन  (अक्टूबर 2006, कानपूर)

Saturday, September 22, 2012

अध्ययन ही एक मात्र रास्ता

ज्ञान का धारक-वाहक जीवन है, जो मानव परंपरा में प्रमाणित होता है।  भ्रमित रहते तक जीवन, शरीर को जीवन मानते हुए, आशा, विचार और इच्छा को प्रमाणित करता है।  जागृत होने पर अनुभव मूलक विधि से दसों क्रियाओं को प्रमाणित करता है।

जीवन व्यापक में संपृक्त होने से ज्ञान-संपन्न है।  ज्ञान-सम्पन्नता के कारण ही जीवन मानव परंपरा में अभी तक आशा, विचार और इच्छा (साढ़े चार क्रिया) को प्रमाणित कर दिया।  इस तरह "जीने की आशा" के अर्थ में ही आशा, विचार, इच्छा प्रोत्साहित रहे।  साढ़े पांच क्रियाएं प्रमाणित होना अभी शेष है।  जिसके लिए अनुभव होना आवश्यक है।  अनुभव के लिए अध्ययन ही एक मात्र रास्ता है।  अनुभव के लिए अध्ययन विधि से साक्षात्कार होना और अवधारणा बोध होना आवश्यक है।  जिसका मतलब है - सह-अस्तित्व को समझना और प्रमाणित करना, जीवन को समझना और प्रमाणित करना, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना और प्रमाणित करना।  समझना जीवन में होता है।  प्रमाणित करना मानव परंपरा में होता है।

अधिक बल और शक्ति संपन्न वस्तु कम बल और शक्ति संपन्न वस्तु के माध्यम से प्रकट होता है।  यह एक सिद्धांत है।  जीवन अधिक बल और शक्ति संपन्न वस्तु है।  शरीर (भौतिक रासायनिक रचना) कम बल और शक्ति संपन्न वस्तु है।

जीवन अक्षय बल और शक्ति संपन्न है।  जीवन गठन पूर्ण परमाणु है। इसमें कम या ज्यादा हो जाने की कोई बात ही नहीं है।  केवल सटीक होने की बात है।  जिसको गुणात्मक विकास होना कहा।  गुणात्मक विकास का मतलब है - जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तन, मानव चेतना से देव चेतना में परिवर्तन, देव चेतना से दिव्य चेतना में परिवर्तन।  गुणात्मक विकास का यह क्रम है।

प्रश्न: जीवन अपने आप को कैसे पहचानता है?  

उत्तर: जीवन का अपने आप को पहचानने का मतलब है - जीवन में होने वाली क्रियाओं की पहचान होना।  उसके लिए जीवन में "मूल्यांकन प्रणाली" और "अनुभव प्रणाली" है।  मन का मूल्यांकन वृत्ति करता है, वृत्ति का मूल्यांकन चित्त करता है, चित्त का मूल्यांकन बुद्धि करता है, बुद्धि का मूल्यांकन आत्मा करता है।  मूल्यांकन   का मतलब है - सम्पूर्णतया पहचान लेना।  जैसे - मन शरीर का मूल्यांकन  करता है।  शरीर की पूरी हैसियत को पहचानता है मन!  ऐसे मन को पहचान कर स्वीकार लेता है - वृत्ति।  ऐसी वृत्ति को चित्त पहचान कर, चित्रण क्रिया उससे सहमत हो जाता है।  यहीं तक रुका है अभी तक।

प्रश्न: ऐसे में मन शरीर का क्या मूल्यांकन करता है और जीवन कैसे भ्रमित हो जाता है?

उत्तर: जीवंत शरीर में संवेदनाएं होती हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध।  मन में वह बल है जिससे वह शरीर संवेदनाओं को पहचानता है।  इसको वह ऐसा मूल्यांकन कर लेता है कि "मैं शरीर हूँ", बजाय के यह मूल्यांकन करने के कि "शरीर में संवेदनाएं हैं, मैं (जीवन) उनका दृष्टा हूँ".  मन की इस मान्यता के अनुमोदन में ही वृत्ति में विश्लेषण और चित्त में इसी मान्यता के अनुमोदन में चित्रण हो जाता है।  इस तरह वृत्ति में प्रिय-हित-लाभात्मक विचार और चित्त में प्रिय-हित-लाभात्मक चित्रण बन जाते हैं।  यह भ्रम का आधार बन जाता है।

इस तरह भ्रमित स्थिति में मन शरीर का अधिमूल्यन किया रहता है।  वृत्ति ऐसे मन का शरीर मूलक  (प्रिय-हित-लाभ) दृष्टियों से ही मूल्यांकन करती है।  चित्त ऐसी वृत्ति का शरीर मूलक चित्रणों के आधार पर ही मूल्यांकन करता है।  शरीर मूलक विधि या शरीर का प्रभाव आत्मा तक पहुँचता ही नहीं है। शरीर मूलक विधि से जीवन में चित्रण तक ही मूल्यांकन हो पाता है, अनुभव नहीं हो पाता है।

प्रश्न: जागृत स्थिति में क्या होता है?

उत्तर: जागृत स्थिति में जीवन का सारा क्रियाकलाप अनुभव से शुरू होता है, न कि मन से।  अनुभव मूलक विधि में आत्मा के अनुरूप में बुद्धि, बुद्धि के अनुरूप में चित्त, चित्त के अनुरूप में वृत्ति, और वृत्ति के अनुरूप में मन होता है।  आत्मा सह-अस्तित्व में, बुद्धि आत्मा में, चित्त बुद्धि में, वृत्ति चित्त में, और मन वृत्ति में अनुभव करता है।  शरीर मन में अनुभव नहीं करता है।  यहीं से शरीर और जीवन का भेद स्पष्ट होता है।  सम्पूर्ण जीवन में अनुभव पहुँचता है।  यही "अनुभव प्रणाली" है।  ऐसे मन के क्रियाकलाप में शरीर संवेदनाएं स्वयं स्फूर्त नियंत्रित होती हैं।  इस प्रकार शरीर के द्वारा जीवन प्रमाणित होता है।  ऐसे में वृत्ति में प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों के स्थान पर न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों से तुलन होता है।  चित्त में (चिंतन क्रिया में) न्याय-धर्म-सत्य को प्रकाशित करने की विधि आ गयी। बुद्धि में न्याय-धर्म-सत्य की बोध के रूप में स्वीकृति हो गयी।  यह होने पर जीवन की दसों क्रियाएं प्रमाणित हो गयी।

जागृति पूर्वक मन शरीर का मूल्यांकन करता है कि इस शरीर के द्वारा मैं क्या कर सकता हूँ?  इसी प्रकार वृत्ति मन का, चित्त वृत्ति का, बुद्धि चित्त का, और आत्मा बुद्धि का मूल्यांकन करता है।  इस तरह "मूल्यांकन प्रणाली" और "अनुभव प्रणाली" होने पर जीवन ज्ञान पूर्ण होता है।

इस तरह "भ्रम" शरीर मूलक जीने को कहते हैं और "जागृति" जीवन मूलक जीने को कहते हैं।

ज्ञान में सभी अवस्थाओं का "स्वभाव" और "धर्म" निहित होता है।  क्रिया में "रूप" और "गुण" रहता है।  ज्ञान दृष्टि से समग्रता में देखना बनता है।

प्रश्न: ज्ञान-दृष्टि से आप क्या/कैसे  देखते हो?

उत्तर: देखने के दो भाग हैं - ज्ञान-दृष्टि से और चक्षु-दृष्टि से।  ज्ञान-दृष्टि और चक्षु-दृष्टि के संयुक्त रूप में मानव है।  ज्ञान-दृष्टि सूक्ष्म है, चक्षु-दृष्टि स्थूल है।  नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म और सत्य को पहचानना ज्ञान-दृष्टि है।  इसको ज्ञानगोचर कहते हैं।  ज्ञानगोचर से समझ ही इंगित है।  समझ का अर्थ स्वभाव और धर्म स्वरूप में सब वस्तुओं मे है।  स्वभाव और धर्म समझ में आने के बाद मानव का सह-अस्तित्व में बोध  होना बन जाता है।  उसी को हम अध्ययन विधि से ले जा रहे हैं।  अध्ययन विधि से चारों अवस्थाओं का स्वभाव और धर्म को समझाना बन गया।

ज्ञान पूर्वक ही जीवन तृप्ति हो सकती है।  जीवन तृप्ति का पहना खेप है समाधान।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल 2008, अमरकंटक)

Friday, September 21, 2012

अध्ययन का नया आधार

अस्तित्व को समझने के लिए आधार (reference) को मानव ही प्रस्तुत करेगा।  अभी तक जिनको भी आधार  (reference) मानते हैं, वे मानव द्वारा ही प्रस्तुत किये गए हैं। उन आधारों पर चलने से तथ्य कुछ मिला नहीं।  प्रचलित आधारों को छोड़ करके यह प्रस्ताव है।  मैं इस नए आधार (reference) का प्रणेता हूँ।   इसको जांचने की आवश्यकता है कि यह पूरा पड़ता है या नहीं।  जांचने का अधिकार सभी के पास है।

प्रश्न: अध्ययन का यह नया आधार क्यों आया?

उत्तर: परंपरागत आधारों पर चलने से अपराध-मुक्ति का कोई स्वरूप निकला नहीं.  परंपरागत आधार न्याय, धर्म, सत्य का लोकव्यापीकरण कर नहीं पाए.  न्याय, धर्म, सत्य के लोकव्यापीकरण और अपराध-मुक्ति के लिए यह अध्ययन का नया आधार आया है. 

- -    श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Thursday, September 20, 2012

सुख, शान्ति, संतोष, आनंद

सुख, शान्ति, संतोष और आनंद चार स्थितियां हैं।   अनुभव ही इन चारों स्थितियों का आधार है।  अनुभव प्रणाली से यह होता है।  मन वृत्ति में अनुभव किया - फलतः सुख।  वृत्ति चित्त में अनुभव किया - फलतः शान्ति।  चित्त बुद्धि में अनुभव किया - फलतः संतोष।  बुद्धि आत्मा में अनुभव किया - फलतः आनंद।  सुख, शान्ति, संतोष, आनंद को "जीवन मूल्य" कहा - क्योंकि जीवन में जीवन के अनुभव होने के क्रम में ये निकल गए।

आत्मा सह-अस्तित्व में जो अनुभव करता है,  उसको "परमानंद" नाम दिया।  सुख, शान्ति, संतोष, और आनंद परमानंद की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।  परमानंद व्यक्त होता नहीं है, पर सुख, शान्ति, संतोष और आनंद व्यक्त होता है।  इसमें से सुख समाधान से सम्बद्ध है।   व्यवहार में समाधान प्रमाणित होता है।  शान्ति समाधान-समृद्धि से सम्बद्ध है।  संतोष समाधान-समृद्धि-अभय से सम्बद्ध है।  आनंद दूसरे व्यक्ति को सत्य (सह-अस्तित्व) बोध कराने में व्यक्त होता है।

- श्री ए नागराज के  साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल 2008, अमरकंटक)

सहज और कृत्रिम


प्रश्न: “सहज” शब्द से क्या आशय है?

उत्तर: सहज से आशय है – मानव को जिसे बनाना नहीं है.  सभी व्यवस्था सहज है.  नियम सहज है.  जीवन सहज है.  शरीर सहज है.  क्या सहज है, यह समझे बिना मानव ने अपने को “बनाने वाला” मान कर ही तो सब कुछ को बर्बाद किया है.  मानव ही सारी कृत्रिमता का आधार है, और कोई भी नहीं है.  मानव सहजता का आधार अभी तक बना नहीं.  मानव को सहज को पहचानने की आवश्यकता है.  सहजता विधि से मानव के बने रहने की व्यवस्था है.  कृत्रिमता विधि से कहीं न कहीं कुंठित होता है.  सहज की ही निरंतरता होती है.  अक्षुण्णता की अपेक्षा मानव सदा से ही रखे हुए है.  उस अपेक्षा के अनुसार काम नहीं किया तो क्या वह झूठ नहीं हो गया?

प्रश्न: आदमी घर बनाता है, सड़क बनाता है, यातायात के साधन बनाता है –  ये सब पहले से तो उपलब्ध नहीं हैं. उनको वह बनाए या नहीं?

उत्तर: आदमी इनको बनाए, पर नियम की समझ के साथ बनाए.  सभी सुविधाओं को बनाने के लिए नियति विधि का अनुसरण किया जाए, न कि कृत्रिम विधि को.  कृत्रिम विधि है – नियति विरोधी सिद्धांतों को अपनाना.  प्रचलित विज्ञान कृत्रिम विधि है.  

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Wednesday, September 19, 2012

कल्पनातीत उपलब्धि


मैंने जो उपलब्धि पायी वह कल्पनातीत है.  ऐसी कल्पना कोई कर नहीं पाया कि ऐसा कोई उपलब्धि होगा जिसमे सबके लिए जवाब होगा, जिसमे सबके लिए समाधान होगा, जिसमे सबके लिए शिक्षा का स्वरूप होगा, जिसमे सारी मानव जाति का एक संविधान होगा.  इसको क्या कोई सोचा भी है?  यह “चाहत” कुछ पुण्यशील व्यक्तियों में होगा.  किन्तु इस चाहत के पूरा होने के लिए “प्रस्ताव” किसी के पास नहीं है.  यह उपलब्धि इससे पहले किसी को मिला हो, और उसने आँखें मूँद ली – तो उस का क्या प्रयोजन निकला?  इस उपलब्धि को पाने के बाद मैं सोचने लगा, यदि मानव-जाति को सौंपे बिना मैं आँखे मूँद लेता हूँ तो पुनः अपराध हो गया!  मानव जाति को इसे पकडाने के लिए मैंने अपने जीने का डिजाईन समाधान-समृद्धि के स्वरूप में बनाया.  यदि मानव जाति को पकडाने की बात नहीं होती तो मैं विरक्ति विधि से ही जीता रहता.  समाधान-समृद्धि का यह न्यूनतम मॉडल लोकव्यापीकरण हो सकता है.

प्रश्न: तो क्या जागृत होने के बाद भी कोई ऐसा सोच सकता है कि मानव-जाति को इस उपलब्धि को देना है या नहीं?

उत्तर: नहीं. यह जागृति के पहले दृष्टा पद की स्थिति है. जैसे ही मुझ को समझ में आया कि यह सम्पूर्ण मानव जाति की सम्पदा है, और यह मेरे अकेले की सम्पदा नहीं है – तो मैंने उसके साथ ईमानदारी को जोड़ दिया.  मेरे स्वयं के समाधान-समृद्धि पूर्वक जिए बिना कोई मेरी बात सुनेगा नहीं.  अनुभव पूर्वक समाधान तो मेरे पास हो गया था.  उसके साथ समृद्धि को जोड़ दिया.

प्रश्न: तो क्या आप भी साक्षात्कार-बोध-अनुभव के क्रम से गुजरे और उसके बाद अपने जीने के क्रम को सजाये?

उत्तर: हाँ.  अनुभव संपन्न होने के बाद समाधान-समृद्धि के डिजाईन को बनाने में मुझे पांच वर्ष का समय लगा.

प्रश्न: आपके अनुभव प्राप्त करने और हमारे अध्ययन पूर्वक अनुभव प्राप्त करने में क्या फर्क है?

उत्तर: मैंने भी अध्ययन पूर्वक ही अनुभव को प्राप्त किया है.  आपको अध्ययन मैं कराता हूँ, मुझको प्रकृति से सीधा अध्ययन करने का मौका मिला.  २५ वर्ष की जो मैंने साधना की थी, उससे प्रकृति से सीधा अध्ययन करने की मेरी स्थिति बनी.  वस्तु का बोध होने के बाद उसको व्यवहार में प्रमाणित होने के क्रम को मैं स्वयं में जोड़ता गया.  वस्तु को शब्द से जोड़ने की अर्हता मेरे पास था ही.  यह अर्हता हर व्यक्ति के पास है.  किसी भी वस्तु को देखता है तो उसको नाम देना उससे बन जाता है.  वस्तु से अनुभव, अनुभव से विचार, विचार से शब्द तक जोड़ दिया.  आप ही बताओ – इतनी बात की आवश्यकता थी या नहीं?

मानव जाति “अनुभव प्रमाण” को छोड़ करके, सभी को बोध होने वाली विधि को छोड़ करके, उपदेश विधि में पहुँच गया.  उपदेश विधि से रूढी बन सकती है, अध्ययन नहीं हो पायेगा.  इसलिए अध्ययन विधि के योग्य शब्दों को मैं जोड़ता गया.  भाषा से वस्तु तक जोड़ने के लिए परिभाषा दे दिया.  यहाँ कह रहे हैं – हम अपने अनुभव को प्रमाण रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं, दूसरा व्यक्ति उसको स्वीकार सकता है, वह अपने में उसको प्रमाणित करने के क्रम में जांच सकता है.  इस तरह अनुभव एक से दूसरे में अंतरित होने की बात आयी.

इस प्रस्ताव के आने से पहले किसी भी परंपरा ने अनुभव के एक से दूसरे में अंतरित होने की बात को माना नहीं है.  आज मैं एक जैन साध्वी से मिला तो उनसे मैंने पूछा – यह जो आप साधना करते हैं, क्या उसका कोई “फल” होता है या नहीं?  उन्होंने कहा – होता है.  फिर मैंने पूछा – क्या वह फल मानव जाति को छुआ है या नहीं?  उन्होंने कहा – नहीं.  यदि हमारी साधना का फल संसार को नहीं मिलता है तो साधना से हमे कोई फल मिला या नहीं, यह कैसे कहा जाए?  उसके बाद उन्होंने पूछा – आपका इस बारे में क्या सोच है?  मैंने उनको बताया – मैंने जो साधना किया, समाधि को प्राप्त किया, उसके बाद संयम किया – उसके फल में पता चला, जीव-चेतना भ्रम है, मानव-चेतना जागृति है.  मानव-चेतना का अध्ययन हो सकता है.  उस अध्ययन विधि को मैंने मानव के सम्मुख रखा है.  भ्रम से जागृति की ओर गमन के लिए ये सारा अध्ययन है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, भिलाई)

Monday, September 17, 2012

मणि

प्रश्न: मणि क्या वस्तु है?

उत्तर: प्रत्येक परमाणु में चुम्बकीय बल-सम्पन्नता बना ही रहता है.  परमाण्विक क्रिया के कारण से ताप, ध्वनि और विद्युत निर्मित होता है.  हरेक परमाणु में ये चारों सामान्य रूप में विद्यमान हैं.  मणि के गठन में शामिल परमाणुओं से निर्मित ताप को किरण के रूप में प्रसारित करने वाली मणियों को किरण-श्रावी कहा है.  ऐसी किरणों को ग्रहण करने वाली मणियों को किरण-ग्राही कहा है.  कुछ मणियाँ किरण-ग्राही और किरण-श्रावी दोनों होती हैं.  इस तरह तीन प्रजाति की मणियाँ हैं.

प्रश्न: मणि के गठन में शामिल होने वाले परमाणुओं में क्या विशेषता है?

उत्तर: मणि मूलतः हल्के परमाणुओं (एक निश्चित संख्या के अंशों से गठित)  का गठन है.  ऐसे अनेक परमाणुओं के गठन से एक अणु, और ऐसे अनेक अणुओं के गठन से एक मणि.  इन परमाणुओं से केवल ताप ही प्रसारित होता है, विद्युत और ध्वनि को अन्तर्निहित किया रहता है. हीरा एक मणि है, जिससे सर्वाधिक ताप प्रसारित होता है.

प्रश्न: सूर्य से निकलने वाली किरणे और मणि से निकलने या समाने वाली किरणे क्या भिन्न है?

उत्तर: हाँ. मणि से निकलने या समाने वाली किरणों की प्रक्रिया सूर्य से निकलने वाली किरणों की प्रक्रिया से अलग है. धरती की सभी मणियाँ सूर्य की किरणों (उसके ताप और प्रतिबिम्ब) से संबद्ध हैं.  सूर्य के साथ संबद्ध धरती पर पाई जाने वाली मणियों में यह किरण-श्रावी या किरण-ग्राही गुण होता है.  मणियाँ सूर्य का ताप पचा कर किरण-श्रावी या किरण-ग्राही गुण को प्रकाशित करती हैं.

प्रश्न: जब सूर्य नहीं रहेगा, या ठंडा हो जाएगा – तब क्या होगा?

उत्तर: तब ये मणियाँ धरती के ताप (अन्तर्निहित अग्नि) से संबद्ध हो जायेंगी.  जैसे – बच्चे गर्भ में रहते तक नाभि से आहार ग्रहण करते हैं, पैदा होने के बाद मुख से आहार ग्रहण करने लगते हैं. सूर्य के ताप से संबद्ध होने के कारण या धरती के ताप से संबद्ध होने के कारण मणियों में किरण-ग्राही या किरण-स्रावी गुण है.  मणियों के गुण मानव-शरीर के लिए अनुकूल या प्रतिकूल होते हैं.  ज्योतिष विज्ञान में इन प्रभावों को काफी परीक्षण किया गया है.

प्रश्न: मणि से निकलने वाली किरणों में यदि ताप नहीं है तो मणि की किरणे क्या है?

उत्तर: मणि की किरणे मणि की पहचान हैं.  जो वस्तु मणि से प्रभावित होती है, उसके लिए पहचान का आधार है.

प्रश्न: किरण-ग्राही मणि और मिट्टी में क्या अंतर है?

उत्तर: किरण-ग्राही मणियाँ जीव-संसार के लिए उपकारी हैं.  दूसरे ये पत्थर, धातु और मिट्टी में परिनितियों के कारण बनते हैं.  जैसे – पत्थर में कठोरता, धातु में विद्युत-ग्राहिता, और मिट्टी में उर्वरकता.  मिट्टी और मणि का रूप या बनावट अलग-अलग है. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2008, अमरकंटक)

Tuesday, September 11, 2012

ज्ञान-दृष्टि


अन्तःकरण में इस बात की आवश्यकता महसूस होनी चाहिए कि जीव-चेतना में जीते हुए मानव का सार्थक जीने का स्वरूप नहीं बनेगा. पहला मुद्दा यही है.  यह निष्कर्ष यदि निकलता है तो मध्यस्थ दर्शन के सन्दर्भ में मैंने जो कुछ भी लिख कर दिया है, बोल कर दिया है – वह सब सहायक है.  यदि यह निष्कर्ष आपमें नहीं निकलता है तो इसको आपने लिख दिया, पढ़ लिया, बोल दिया – उससे काम नहीं चलता.  अनुभव से ही काम चलेगा.  अनुभव ज्ञान दृष्टि से ही होगा.  ज्ञान-दृष्टि चक्षु-दृष्टि में आता नहीं है.  वस्तु के आकार, आयतन और घन में से घन आँखों में आता नहीं है.  चक्षु-दृष्टि के दृष्टि-पाट में आधा भाग ही आता है,  आधा भाग ओझिल ही रहता है.  ज्ञान-दृष्टि से “जीना” होता है, व्यवहार के लिए चक्षु का प्रयोग किया जाता है.  ज्ञान-दृष्टि का मानव ने अभी तक उपयोग किया नहीं है.  जितना भी मैंने मानवीयता के पक्ष में लिखा है वह आँखों में कहाँ आता है?  वह सब ज्ञान में गण्य होता है.  आदर्शवादी विधि में ज्ञान को व्यवहार में गण्य माना ही नहीं गया.  यदि ज्ञान व्यवहार में नहीं आता है तो उसका क्या मतलब है?  इसीलिये प्रमाणित होना बहुत आवश्यक है. 

अनुभव ज्ञान-दृष्टि से ही होगा.  अनुभव चर्म-दृष्टि से नहीं होगा.  अभी जीव-चेतना में हम जो कुछ भी कहते हैं, सोचते हैं, करते हैं – चर्म-दृष्टि से ही कहते हैं, सोचते हैं, करते हैं.  आँखों से सच्चाई दिखती नहीं है, जबकि जीव-चेतना में जीता हुआ मानव आँखों से दिखे हुए को सच्चाई मानता है.  आँखों से जितना दिखता है उसकी सीमा है, शरीर को पुष्ट रखना.  उसके अलावा कुछ नहीं!  जीव-चेतना में शरीर को पुष्ट बनाए रखने का क्या फायदा होगा?  केवल दूसरों को मारना-पीटना, धोखा-धडी करना.  वही करता है आदमी. 

प्रश्न: चर्म-दृष्टि सीमित है, यह मुझे स्पष्ट हो गया.  लेकिन ज्ञान-दृष्टि क्या है, यह मुझे स्पष्ट नहीं है.

उत्तर: भार एक ज्ञान है. आँखों से सामने रखा हुआ वस्तु आधा दिखता है, लेकिन यह पूरा है – यह ज्ञान दृष्टि से समझ में आता है. यहाँ से शुरुआत होता है.  इसी प्रकार हर मुद्दे में है. सह-अस्तित्व आँखों से दिखता नहीं है, पर समझ में आता है.  समाधान आँखों से दिखता नहीं है, पर समझ में आता है.  न्याय आँखों से दिखता नहीं है, पर समझ में आता है.  नियम, नियंत्रण, संतुलन आँखों से दिखता नहीं है, पर समझ में आता है.  ऐसा दृश्य मानव के सम्मुख प्रस्तुत है.  यह सब ज्ञान दृष्टि से ही समझ में आता है.  मानव को ही समझ में आता है.  जानवर को समझ में नहीं आएगा.  मानव में नर-नारी दोनों गण्य हैं. 

-    - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१२, अमरकंटक)

Sunday, September 9, 2012

उपसंहार


मैंने जो सब प्रस्तुत किया है – चार भाग में दर्शन, तीन भाग में वाद, तीन भाग में शास्त्र, उसके साथ संविधान – उस पूरी बात का मतलब मैं बताना चाहता हूँ.  इस बात का प्रयोजन है – विकसित चेतना (मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना) को समझना, प्रमाणित करना और प्रमाणित स्वरूप में पीढ़ी दर पीढ़ी रहना.  इस पूरी बात को जीव-जानवर नहीं समझेगा, इसको जीव चेतना को पूजने वाला मानव नहीं समझेगा.  इसको जीव चेतना से छूटना जो मानव चाहते हैं, वही समझेंगे. हर व्यक्ति के पास यह तय करने का अधिकार है कि उसे जीव चेतना से छूटना है या नहीं?   विकसित चेतना स्वरूप में मानव के जीने में प्रमाण प्रवाहित होता है.  प्रमाण के तीन स्तर हैं – अनुभव प्रमाण, व्यवहार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण.  इन तीनो स्तरों पर प्रमाण प्रवाहित होता है.  अनुभव के बिना कोई प्रमाणित करेगा ही नहीं.  अनुभव अध्ययन से होता है, या फिर अनुसन्धान से होता है.  इस प्रस्तुति को करने का अधिकार मुझ में अनुसंधान विधि से आया.  अनुसंधान पूर्वक इस अधिकार को पाने पर हर व्यक्ति में इसको समझने का स्त्रोत कल्पनाशीलता के रूप में देखा गया, इसी लिए इसको प्रस्तुत कर दिया.  संवाद का मूल तत्व इतना ही है.

मानव इस प्रस्तुति को अध्ययन करके अपना स्वत्व बना सकता है.  अध्ययन किये बिना इसको स्वत्व नहीं बनाया जा सकता.  हम अभी बहुत से आयामों को नज़र अंदाज करके चलने में अभ्यस्त हैं, वह नहीं चलेगा!  इस प्रस्तुति में कोई भी ऐसा अंग नहीं है, जिसे आप न समझें फिर भी यह प्रस्ताव आपका स्वत्व बन जाए.  व्यर्थ की बातों को तो इसमें लिखा ही नहीं है.  सार्थक बातों को लिखा है और हर मुद्दे पर निष्कर्षों को लिखा है, वह आवश्यक है या नहीं – इसी को आपको देखना है.  इसमें जितने भी निष्कर्षों को लिखा है वे तर्क-संगत, विचार-संगत, व्यव्हार-संगत और अनुभव-संगत हैं.  इन चारों भागों को सोच करके इसे प्रस्तुत किया है.  मानव जाति इन निष्कर्षों को आवश्यक पायेंगे तो उसे अपनाएंगे, आवश्यक नहीं पायेंगे तो नहीं अपनाएंगे.

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

ए नागराज,
प्रणेता, मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद,
श्री भजनाश्रम, नर्मदांचल,
अमरकंटक, जिला अनुपपुर, मध्य प्रदेश, भारत.