ज्ञान का धारक-वाहक जीवन है, जो मानव परंपरा में प्रमाणित होता है। भ्रमित रहते तक जीवन, शरीर को जीवन मानते हुए, आशा, विचार और इच्छा को प्रमाणित करता है। जागृत होने पर अनुभव मूलक विधि से दसों क्रियाओं को प्रमाणित करता है।
जीवन व्यापक में संपृक्त होने से ज्ञान-संपन्न है। ज्ञान-सम्पन्नता के कारण ही जीवन मानव परंपरा में अभी तक आशा, विचार और इच्छा (साढ़े चार क्रिया) को प्रमाणित कर दिया। इस तरह "जीने की आशा" के अर्थ में ही आशा, विचार, इच्छा प्रोत्साहित रहे। साढ़े पांच क्रियाएं प्रमाणित होना अभी शेष है। जिसके लिए अनुभव होना आवश्यक है। अनुभव के लिए अध्ययन ही एक मात्र रास्ता है। अनुभव के लिए अध्ययन विधि से साक्षात्कार होना और अवधारणा बोध होना आवश्यक है। जिसका मतलब है - सह-अस्तित्व को समझना और प्रमाणित करना, जीवन को समझना और प्रमाणित करना, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना और प्रमाणित करना। समझना जीवन में होता है। प्रमाणित करना मानव परंपरा में होता है।
अधिक बल और शक्ति संपन्न वस्तु कम बल और शक्ति संपन्न वस्तु के माध्यम से प्रकट होता है। यह एक सिद्धांत है। जीवन अधिक बल और शक्ति संपन्न वस्तु है। शरीर (भौतिक रासायनिक रचना) कम बल और शक्ति संपन्न वस्तु है।
जीवन अक्षय बल और शक्ति संपन्न है। जीवन गठन पूर्ण परमाणु है। इसमें कम या ज्यादा हो जाने की कोई बात ही नहीं है। केवल सटीक होने की बात है। जिसको गुणात्मक विकास होना कहा। गुणात्मक विकास का मतलब है - जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तन, मानव चेतना से देव चेतना में परिवर्तन, देव चेतना से दिव्य चेतना में परिवर्तन। गुणात्मक विकास का यह क्रम है।
प्रश्न: जीवन अपने आप को कैसे पहचानता है?
उत्तर: जीवन का अपने आप को पहचानने का मतलब है - जीवन में होने वाली क्रियाओं की पहचान होना। उसके लिए जीवन में "मूल्यांकन प्रणाली" और "अनुभव प्रणाली" है। मन का मूल्यांकन वृत्ति करता है, वृत्ति का मूल्यांकन चित्त करता है, चित्त का मूल्यांकन बुद्धि करता है, बुद्धि का मूल्यांकन आत्मा करता है। मूल्यांकन का मतलब है - सम्पूर्णतया पहचान लेना। जैसे - मन शरीर का मूल्यांकन करता है। शरीर की पूरी हैसियत को पहचानता है मन! ऐसे मन को पहचान कर स्वीकार लेता है - वृत्ति। ऐसी वृत्ति को चित्त पहचान कर, चित्रण क्रिया उससे सहमत हो जाता है। यहीं तक रुका है अभी तक।
प्रश्न: ऐसे में मन शरीर का क्या मूल्यांकन करता है और जीवन कैसे भ्रमित हो जाता है?
उत्तर: जीवंत शरीर में संवेदनाएं होती हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध। मन में वह बल है जिससे वह शरीर संवेदनाओं को पहचानता है। इसको वह ऐसा मूल्यांकन कर लेता है कि "मैं शरीर हूँ", बजाय के यह मूल्यांकन करने के कि "शरीर में संवेदनाएं हैं, मैं (जीवन) उनका दृष्टा हूँ". मन की इस मान्यता के अनुमोदन में ही वृत्ति में विश्लेषण और चित्त में इसी मान्यता के अनुमोदन में चित्रण हो जाता है। इस तरह वृत्ति में प्रिय-हित-लाभात्मक विचार और चित्त में प्रिय-हित-लाभात्मक चित्रण बन जाते हैं। यह भ्रम का आधार बन जाता है।
इस तरह भ्रमित स्थिति में मन शरीर का अधिमूल्यन किया रहता है। वृत्ति ऐसे मन का शरीर मूलक (प्रिय-हित-लाभ) दृष्टियों से ही मूल्यांकन करती है। चित्त ऐसी वृत्ति का शरीर मूलक चित्रणों के आधार पर ही मूल्यांकन करता है। शरीर मूलक विधि या शरीर का प्रभाव आत्मा तक पहुँचता ही नहीं है। शरीर मूलक विधि से जीवन में चित्रण तक ही मूल्यांकन हो पाता है, अनुभव नहीं हो पाता है।
प्रश्न: जागृत स्थिति में क्या होता है?
उत्तर: जागृत स्थिति में जीवन का सारा क्रियाकलाप अनुभव से शुरू होता है, न कि मन से। अनुभव मूलक विधि में आत्मा के अनुरूप में बुद्धि, बुद्धि के अनुरूप में चित्त, चित्त के अनुरूप में वृत्ति, और वृत्ति के अनुरूप में मन होता है। आत्मा सह-अस्तित्व में, बुद्धि आत्मा में, चित्त बुद्धि में, वृत्ति चित्त में, और मन वृत्ति में अनुभव करता है। शरीर मन में अनुभव नहीं करता है। यहीं से शरीर और जीवन का भेद स्पष्ट होता है। सम्पूर्ण जीवन में अनुभव पहुँचता है। यही "अनुभव प्रणाली" है। ऐसे मन के क्रियाकलाप में शरीर संवेदनाएं स्वयं स्फूर्त नियंत्रित होती हैं। इस प्रकार शरीर के द्वारा जीवन प्रमाणित होता है। ऐसे में वृत्ति में प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों के स्थान पर न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों से तुलन होता है। चित्त में (चिंतन क्रिया में) न्याय-धर्म-सत्य को प्रकाशित करने की विधि आ गयी। बुद्धि में न्याय-धर्म-सत्य की बोध के रूप में स्वीकृति हो गयी। यह होने पर जीवन की दसों क्रियाएं प्रमाणित हो गयी।
जागृति पूर्वक मन शरीर का मूल्यांकन करता है कि इस शरीर के द्वारा मैं क्या कर सकता हूँ? इसी प्रकार वृत्ति मन का, चित्त वृत्ति का, बुद्धि चित्त का, और आत्मा बुद्धि का मूल्यांकन करता है। इस तरह "मूल्यांकन प्रणाली" और "अनुभव प्रणाली" होने पर जीवन ज्ञान पूर्ण होता है।
इस तरह "भ्रम" शरीर मूलक जीने को कहते हैं और "जागृति" जीवन मूलक जीने को कहते हैं।
ज्ञान में सभी अवस्थाओं का "स्वभाव" और "धर्म" निहित होता है। क्रिया में "रूप" और "गुण" रहता है। ज्ञान दृष्टि से समग्रता में देखना बनता है।
प्रश्न: ज्ञान-दृष्टि से आप क्या/कैसे देखते हो?
उत्तर: देखने के दो भाग हैं - ज्ञान-दृष्टि से और चक्षु-दृष्टि से। ज्ञान-दृष्टि और चक्षु-दृष्टि के संयुक्त रूप में मानव है। ज्ञान-दृष्टि सूक्ष्म है, चक्षु-दृष्टि स्थूल है। नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म और सत्य को पहचानना ज्ञान-दृष्टि है। इसको ज्ञानगोचर कहते हैं। ज्ञानगोचर से समझ ही इंगित है। समझ का अर्थ स्वभाव और धर्म स्वरूप में सब वस्तुओं मे है। स्वभाव और धर्म समझ में आने के बाद मानव का सह-अस्तित्व में बोध होना बन जाता है। उसी को हम अध्ययन विधि से ले जा रहे हैं। अध्ययन विधि से चारों अवस्थाओं का स्वभाव और धर्म को समझाना बन गया।
ज्ञान पूर्वक ही जीवन तृप्ति हो सकती है। जीवन तृप्ति का पहना खेप है समाधान।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल 2008, अमरकंटक)
जीवन व्यापक में संपृक्त होने से ज्ञान-संपन्न है। ज्ञान-सम्पन्नता के कारण ही जीवन मानव परंपरा में अभी तक आशा, विचार और इच्छा (साढ़े चार क्रिया) को प्रमाणित कर दिया। इस तरह "जीने की आशा" के अर्थ में ही आशा, विचार, इच्छा प्रोत्साहित रहे। साढ़े पांच क्रियाएं प्रमाणित होना अभी शेष है। जिसके लिए अनुभव होना आवश्यक है। अनुभव के लिए अध्ययन ही एक मात्र रास्ता है। अनुभव के लिए अध्ययन विधि से साक्षात्कार होना और अवधारणा बोध होना आवश्यक है। जिसका मतलब है - सह-अस्तित्व को समझना और प्रमाणित करना, जीवन को समझना और प्रमाणित करना, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना और प्रमाणित करना। समझना जीवन में होता है। प्रमाणित करना मानव परंपरा में होता है।
अधिक बल और शक्ति संपन्न वस्तु कम बल और शक्ति संपन्न वस्तु के माध्यम से प्रकट होता है। यह एक सिद्धांत है। जीवन अधिक बल और शक्ति संपन्न वस्तु है। शरीर (भौतिक रासायनिक रचना) कम बल और शक्ति संपन्न वस्तु है।
जीवन अक्षय बल और शक्ति संपन्न है। जीवन गठन पूर्ण परमाणु है। इसमें कम या ज्यादा हो जाने की कोई बात ही नहीं है। केवल सटीक होने की बात है। जिसको गुणात्मक विकास होना कहा। गुणात्मक विकास का मतलब है - जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तन, मानव चेतना से देव चेतना में परिवर्तन, देव चेतना से दिव्य चेतना में परिवर्तन। गुणात्मक विकास का यह क्रम है।
प्रश्न: जीवन अपने आप को कैसे पहचानता है?
उत्तर: जीवन का अपने आप को पहचानने का मतलब है - जीवन में होने वाली क्रियाओं की पहचान होना। उसके लिए जीवन में "मूल्यांकन प्रणाली" और "अनुभव प्रणाली" है। मन का मूल्यांकन वृत्ति करता है, वृत्ति का मूल्यांकन चित्त करता है, चित्त का मूल्यांकन बुद्धि करता है, बुद्धि का मूल्यांकन आत्मा करता है। मूल्यांकन का मतलब है - सम्पूर्णतया पहचान लेना। जैसे - मन शरीर का मूल्यांकन करता है। शरीर की पूरी हैसियत को पहचानता है मन! ऐसे मन को पहचान कर स्वीकार लेता है - वृत्ति। ऐसी वृत्ति को चित्त पहचान कर, चित्रण क्रिया उससे सहमत हो जाता है। यहीं तक रुका है अभी तक।
प्रश्न: ऐसे में मन शरीर का क्या मूल्यांकन करता है और जीवन कैसे भ्रमित हो जाता है?
उत्तर: जीवंत शरीर में संवेदनाएं होती हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध। मन में वह बल है जिससे वह शरीर संवेदनाओं को पहचानता है। इसको वह ऐसा मूल्यांकन कर लेता है कि "मैं शरीर हूँ", बजाय के यह मूल्यांकन करने के कि "शरीर में संवेदनाएं हैं, मैं (जीवन) उनका दृष्टा हूँ". मन की इस मान्यता के अनुमोदन में ही वृत्ति में विश्लेषण और चित्त में इसी मान्यता के अनुमोदन में चित्रण हो जाता है। इस तरह वृत्ति में प्रिय-हित-लाभात्मक विचार और चित्त में प्रिय-हित-लाभात्मक चित्रण बन जाते हैं। यह भ्रम का आधार बन जाता है।
इस तरह भ्रमित स्थिति में मन शरीर का अधिमूल्यन किया रहता है। वृत्ति ऐसे मन का शरीर मूलक (प्रिय-हित-लाभ) दृष्टियों से ही मूल्यांकन करती है। चित्त ऐसी वृत्ति का शरीर मूलक चित्रणों के आधार पर ही मूल्यांकन करता है। शरीर मूलक विधि या शरीर का प्रभाव आत्मा तक पहुँचता ही नहीं है। शरीर मूलक विधि से जीवन में चित्रण तक ही मूल्यांकन हो पाता है, अनुभव नहीं हो पाता है।
प्रश्न: जागृत स्थिति में क्या होता है?
उत्तर: जागृत स्थिति में जीवन का सारा क्रियाकलाप अनुभव से शुरू होता है, न कि मन से। अनुभव मूलक विधि में आत्मा के अनुरूप में बुद्धि, बुद्धि के अनुरूप में चित्त, चित्त के अनुरूप में वृत्ति, और वृत्ति के अनुरूप में मन होता है। आत्मा सह-अस्तित्व में, बुद्धि आत्मा में, चित्त बुद्धि में, वृत्ति चित्त में, और मन वृत्ति में अनुभव करता है। शरीर मन में अनुभव नहीं करता है। यहीं से शरीर और जीवन का भेद स्पष्ट होता है। सम्पूर्ण जीवन में अनुभव पहुँचता है। यही "अनुभव प्रणाली" है। ऐसे मन के क्रियाकलाप में शरीर संवेदनाएं स्वयं स्फूर्त नियंत्रित होती हैं। इस प्रकार शरीर के द्वारा जीवन प्रमाणित होता है। ऐसे में वृत्ति में प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों के स्थान पर न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों से तुलन होता है। चित्त में (चिंतन क्रिया में) न्याय-धर्म-सत्य को प्रकाशित करने की विधि आ गयी। बुद्धि में न्याय-धर्म-सत्य की बोध के रूप में स्वीकृति हो गयी। यह होने पर जीवन की दसों क्रियाएं प्रमाणित हो गयी।
जागृति पूर्वक मन शरीर का मूल्यांकन करता है कि इस शरीर के द्वारा मैं क्या कर सकता हूँ? इसी प्रकार वृत्ति मन का, चित्त वृत्ति का, बुद्धि चित्त का, और आत्मा बुद्धि का मूल्यांकन करता है। इस तरह "मूल्यांकन प्रणाली" और "अनुभव प्रणाली" होने पर जीवन ज्ञान पूर्ण होता है।
इस तरह "भ्रम" शरीर मूलक जीने को कहते हैं और "जागृति" जीवन मूलक जीने को कहते हैं।
ज्ञान में सभी अवस्थाओं का "स्वभाव" और "धर्म" निहित होता है। क्रिया में "रूप" और "गुण" रहता है। ज्ञान दृष्टि से समग्रता में देखना बनता है।
प्रश्न: ज्ञान-दृष्टि से आप क्या/कैसे देखते हो?
उत्तर: देखने के दो भाग हैं - ज्ञान-दृष्टि से और चक्षु-दृष्टि से। ज्ञान-दृष्टि और चक्षु-दृष्टि के संयुक्त रूप में मानव है। ज्ञान-दृष्टि सूक्ष्म है, चक्षु-दृष्टि स्थूल है। नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म और सत्य को पहचानना ज्ञान-दृष्टि है। इसको ज्ञानगोचर कहते हैं। ज्ञानगोचर से समझ ही इंगित है। समझ का अर्थ स्वभाव और धर्म स्वरूप में सब वस्तुओं मे है। स्वभाव और धर्म समझ में आने के बाद मानव का सह-अस्तित्व में बोध होना बन जाता है। उसी को हम अध्ययन विधि से ले जा रहे हैं। अध्ययन विधि से चारों अवस्थाओं का स्वभाव और धर्म को समझाना बन गया।
ज्ञान पूर्वक ही जीवन तृप्ति हो सकती है। जीवन तृप्ति का पहना खेप है समाधान।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल 2008, अमरकंटक)
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