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Wednesday, September 19, 2012

कल्पनातीत उपलब्धि


मैंने जो उपलब्धि पायी वह कल्पनातीत है.  ऐसी कल्पना कोई कर नहीं पाया कि ऐसा कोई उपलब्धि होगा जिसमे सबके लिए जवाब होगा, जिसमे सबके लिए समाधान होगा, जिसमे सबके लिए शिक्षा का स्वरूप होगा, जिसमे सारी मानव जाति का एक संविधान होगा.  इसको क्या कोई सोचा भी है?  यह “चाहत” कुछ पुण्यशील व्यक्तियों में होगा.  किन्तु इस चाहत के पूरा होने के लिए “प्रस्ताव” किसी के पास नहीं है.  यह उपलब्धि इससे पहले किसी को मिला हो, और उसने आँखें मूँद ली – तो उस का क्या प्रयोजन निकला?  इस उपलब्धि को पाने के बाद मैं सोचने लगा, यदि मानव-जाति को सौंपे बिना मैं आँखे मूँद लेता हूँ तो पुनः अपराध हो गया!  मानव जाति को इसे पकडाने के लिए मैंने अपने जीने का डिजाईन समाधान-समृद्धि के स्वरूप में बनाया.  यदि मानव जाति को पकडाने की बात नहीं होती तो मैं विरक्ति विधि से ही जीता रहता.  समाधान-समृद्धि का यह न्यूनतम मॉडल लोकव्यापीकरण हो सकता है.

प्रश्न: तो क्या जागृत होने के बाद भी कोई ऐसा सोच सकता है कि मानव-जाति को इस उपलब्धि को देना है या नहीं?

उत्तर: नहीं. यह जागृति के पहले दृष्टा पद की स्थिति है. जैसे ही मुझ को समझ में आया कि यह सम्पूर्ण मानव जाति की सम्पदा है, और यह मेरे अकेले की सम्पदा नहीं है – तो मैंने उसके साथ ईमानदारी को जोड़ दिया.  मेरे स्वयं के समाधान-समृद्धि पूर्वक जिए बिना कोई मेरी बात सुनेगा नहीं.  अनुभव पूर्वक समाधान तो मेरे पास हो गया था.  उसके साथ समृद्धि को जोड़ दिया.

प्रश्न: तो क्या आप भी साक्षात्कार-बोध-अनुभव के क्रम से गुजरे और उसके बाद अपने जीने के क्रम को सजाये?

उत्तर: हाँ.  अनुभव संपन्न होने के बाद समाधान-समृद्धि के डिजाईन को बनाने में मुझे पांच वर्ष का समय लगा.

प्रश्न: आपके अनुभव प्राप्त करने और हमारे अध्ययन पूर्वक अनुभव प्राप्त करने में क्या फर्क है?

उत्तर: मैंने भी अध्ययन पूर्वक ही अनुभव को प्राप्त किया है.  आपको अध्ययन मैं कराता हूँ, मुझको प्रकृति से सीधा अध्ययन करने का मौका मिला.  २५ वर्ष की जो मैंने साधना की थी, उससे प्रकृति से सीधा अध्ययन करने की मेरी स्थिति बनी.  वस्तु का बोध होने के बाद उसको व्यवहार में प्रमाणित होने के क्रम को मैं स्वयं में जोड़ता गया.  वस्तु को शब्द से जोड़ने की अर्हता मेरे पास था ही.  यह अर्हता हर व्यक्ति के पास है.  किसी भी वस्तु को देखता है तो उसको नाम देना उससे बन जाता है.  वस्तु से अनुभव, अनुभव से विचार, विचार से शब्द तक जोड़ दिया.  आप ही बताओ – इतनी बात की आवश्यकता थी या नहीं?

मानव जाति “अनुभव प्रमाण” को छोड़ करके, सभी को बोध होने वाली विधि को छोड़ करके, उपदेश विधि में पहुँच गया.  उपदेश विधि से रूढी बन सकती है, अध्ययन नहीं हो पायेगा.  इसलिए अध्ययन विधि के योग्य शब्दों को मैं जोड़ता गया.  भाषा से वस्तु तक जोड़ने के लिए परिभाषा दे दिया.  यहाँ कह रहे हैं – हम अपने अनुभव को प्रमाण रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं, दूसरा व्यक्ति उसको स्वीकार सकता है, वह अपने में उसको प्रमाणित करने के क्रम में जांच सकता है.  इस तरह अनुभव एक से दूसरे में अंतरित होने की बात आयी.

इस प्रस्ताव के आने से पहले किसी भी परंपरा ने अनुभव के एक से दूसरे में अंतरित होने की बात को माना नहीं है.  आज मैं एक जैन साध्वी से मिला तो उनसे मैंने पूछा – यह जो आप साधना करते हैं, क्या उसका कोई “फल” होता है या नहीं?  उन्होंने कहा – होता है.  फिर मैंने पूछा – क्या वह फल मानव जाति को छुआ है या नहीं?  उन्होंने कहा – नहीं.  यदि हमारी साधना का फल संसार को नहीं मिलता है तो साधना से हमे कोई फल मिला या नहीं, यह कैसे कहा जाए?  उसके बाद उन्होंने पूछा – आपका इस बारे में क्या सोच है?  मैंने उनको बताया – मैंने जो साधना किया, समाधि को प्राप्त किया, उसके बाद संयम किया – उसके फल में पता चला, जीव-चेतना भ्रम है, मानव-चेतना जागृति है.  मानव-चेतना का अध्ययन हो सकता है.  उस अध्ययन विधि को मैंने मानव के सम्मुख रखा है.  भ्रम से जागृति की ओर गमन के लिए ये सारा अध्ययन है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, भिलाई)

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