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Sunday, September 9, 2012

उपसंहार


मैंने जो सब प्रस्तुत किया है – चार भाग में दर्शन, तीन भाग में वाद, तीन भाग में शास्त्र, उसके साथ संविधान – उस पूरी बात का मतलब मैं बताना चाहता हूँ.  इस बात का प्रयोजन है – विकसित चेतना (मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना) को समझना, प्रमाणित करना और प्रमाणित स्वरूप में पीढ़ी दर पीढ़ी रहना.  इस पूरी बात को जीव-जानवर नहीं समझेगा, इसको जीव चेतना को पूजने वाला मानव नहीं समझेगा.  इसको जीव चेतना से छूटना जो मानव चाहते हैं, वही समझेंगे. हर व्यक्ति के पास यह तय करने का अधिकार है कि उसे जीव चेतना से छूटना है या नहीं?   विकसित चेतना स्वरूप में मानव के जीने में प्रमाण प्रवाहित होता है.  प्रमाण के तीन स्तर हैं – अनुभव प्रमाण, व्यवहार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण.  इन तीनो स्तरों पर प्रमाण प्रवाहित होता है.  अनुभव के बिना कोई प्रमाणित करेगा ही नहीं.  अनुभव अध्ययन से होता है, या फिर अनुसन्धान से होता है.  इस प्रस्तुति को करने का अधिकार मुझ में अनुसंधान विधि से आया.  अनुसंधान पूर्वक इस अधिकार को पाने पर हर व्यक्ति में इसको समझने का स्त्रोत कल्पनाशीलता के रूप में देखा गया, इसी लिए इसको प्रस्तुत कर दिया.  संवाद का मूल तत्व इतना ही है.

मानव इस प्रस्तुति को अध्ययन करके अपना स्वत्व बना सकता है.  अध्ययन किये बिना इसको स्वत्व नहीं बनाया जा सकता.  हम अभी बहुत से आयामों को नज़र अंदाज करके चलने में अभ्यस्त हैं, वह नहीं चलेगा!  इस प्रस्तुति में कोई भी ऐसा अंग नहीं है, जिसे आप न समझें फिर भी यह प्रस्ताव आपका स्वत्व बन जाए.  व्यर्थ की बातों को तो इसमें लिखा ही नहीं है.  सार्थक बातों को लिखा है और हर मुद्दे पर निष्कर्षों को लिखा है, वह आवश्यक है या नहीं – इसी को आपको देखना है.  इसमें जितने भी निष्कर्षों को लिखा है वे तर्क-संगत, विचार-संगत, व्यव्हार-संगत और अनुभव-संगत हैं.  इन चारों भागों को सोच करके इसे प्रस्तुत किया है.  मानव जाति इन निष्कर्षों को आवश्यक पायेंगे तो उसे अपनाएंगे, आवश्यक नहीं पायेंगे तो नहीं अपनाएंगे.

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

ए नागराज,
प्रणेता, मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद,
श्री भजनाश्रम, नर्मदांचल,
अमरकंटक, जिला अनुपपुर, मध्य प्रदेश, भारत.

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