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Sunday, October 13, 2024

आचरण की ही परम्परा होती है.

आचरण की ही परम्परा होती है.  मानव के आचरण के तीन आयाम हैं - मूल्य, चरित्र, नैतिकता।  मानवीयता पूर्ण आचरण के आधार पर संविधान, संविधान के आधार पर शिक्षा, शिक्षा के आधार पर व्यवस्था।  इस तरह मानवीयता पूर्ण आचरण पीढ़ी से पीढ़ी होते रहना व्यवस्था का आधार हुआ.  ऐसे मानवीयता पूर्ण आचरण को पहचानने के लिए मैंने परमाणु में निश्चित आचरण की व्यवस्था को देखा, वनस्पतियों में निश्चित आचरण की व्यवस्था को देखा, जीवों में निश्चित आचरण की व्यवस्था को देखा।  मानवीयता पूर्ण आचरण को करके देखा - वह सही निकला।  तब हल्ला करना शुरू किया।  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Saturday, August 31, 2024

साधु लोगों के बारे में

 प्रश्न:  अभी परम्परा में साधु लोगों के बारे में आपका क्या कहना है?

उत्तर:  साधु लोगों की सेवा करने वाले सभी व्यापारी हैं.  उन्ही के संरक्षण में वे रहते हैं.  जहाँ साधु लोग रहना चाहते हैं, उनके लिए वहां व्यापारी लोग रहने-खाने की व्यवस्था बना देते हैं.  इन स्थानों को विहार कहते हैं.  कुछ संस्थाओं में साधुओं के ये विहार राजा-महाराजाओं के महलों से ज्यादा भव्य हैं!  

मूल में इनकी यह मान्यता है कि संसार "टेढ़ा" है.  "टेढ़ा" मतलब - स्वार्थी, पापी और अज्ञानी है.  आदर्शवाद में संसार को त्याग करने के सन्देश का आधार यहीं से है.  अज्ञानी को ज्ञानी बनाने के लिए, स्वार्थी को परमार्थी बनाने के लिए, पापी को तारने के लिए धर्म संस्थाओं के करो-न करो के आदेश हैं.  हर समुदाय में:  जिसके पास कुछ है, उसको स्वार्थी बताया।  जिसके पास कुछ भी नहीं है, या बहुत कम है - उसको अज्ञानी बताया।  साधुओं के अलावा बाकी सबको पापी बताया।

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Sunday, July 14, 2024

आत्मा ब्रह्म से नेष्ठ नहीं है

सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य में न्याय और धर्म दोनों समाहित रहते हैं, इसीलिये सत्य में अनुभूत होने वाली बात आती है.  आत्मा सत्य में अनुभूत होता है, फलस्वरूप जीव-जगत सब समझ में आता है, फलस्वरूप हम प्रमाणित होने योग्य हो जाते हैं.  

आत्मा मध्यस्थ क्रिया है, इसलिए उसमे सत्य स्वीकृत होता ही है.  सत्य के अलावा आत्मा को और कुछ स्वीकृत ही नहीं होता।  

प्रश्न:  आपके कथन "आत्मा ब्रह्म से नेष्ठ नहीं है" से क्या आशय है?

उत्तर: ब्रह्म व्यापक है.  आत्मा अनुभव संपन्न होने पर ज्ञान के अर्थ में व्यापक हो ही जाता है.  

आत्मा मध्यस्थ क्रिया होने से, और सत्ता मध्यस्थ होने से - इनकी साम्यता बन गयी.  इसीलिये आत्मा सत्ता में अनुभव होता है.  अनुभव होने के फलस्वरूप परस्परता में सत्य की संप्रेषणा आत्मा में अनुभव मूलक विधि से ही होता है.  इसीलिये आत्मा प्रकृति का अंश परिगणित होते हुए, परमाणु का मध्यांश होते हुए, क्रिया होते हुए, ब्रह्म से नेष्ठ इसीलिये नहीं है क्योंकि आत्मा में अनुभव मूलक विधि से ही सत्य अभिव्यक्त होता है, सम्प्रेषित होता है, प्रकाशित होता है - फलतः प्रमाणित होता है.  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक

व्यवस्था के अर्थ में अस्तित्व को समझना

प्रश्न: ज्वार-भाटा को आप कैसे देखते हैं?

उत्तर: चन्द्रमा धरती का उपग्रह है.  धरती चन्द्रमा को अपने साथ बनाये रखने में जो खुशहाली व्यक्त करता है - वही ज्वार-भाटा है.  व्यवस्था के अर्थ में अस्तित्व को समझने के बाद ही यह सब स्पष्ट होता है.  इससे पहले किसी को यह स्पष्ट होने वाला नहीं है.  

प्रश्न: क्या यह गणितीय भाषा से नहीं बताया जा सकता?

उत्तर: यह जो बताया वह गुणात्मक भाषा है.  गणितीय विधि से जो निकलता है, वह निकाल लेना.  व्यवस्था को कारण-गुण-गणित के संयुक्त रूप में व्यक्त किया जाता है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)  

Tuesday, July 9, 2024

आगे की सोच

जब प्यास लगे तब कुआँ खोद के पानी पियें, वह अच्छा है - या पहले से कुआं रहे, जब प्यास लगे उससे पानी पिएं - वह अच्छा है?  पहले से कुआं रहे, वही अच्छा है.

वैसे ही हमारे पास समझदारी रहे, उससे जब जो परिस्थिति हो उसका समाधान हमको मिलता रहे.

समझदारी हासिल करने के बाद अब तक की यात्रा में, मेरे पास समझदारी पहले से रहा, अवसर और सम्भावना बढ़ता गया - इसलिए मेरा ध्वनि बुलंद होता गया.  यदि अवसर और सम्भावना उदय नहीं होता तो मेरा ध्वनि बुलंद नहीं हो सकता था.  अवसर और सम्भावना बढ़ने से आपको भी लगता है, यह बात सब तक पहुंचना चाहिए।  यहां तक हम आये हैं, यह हमारा मूल्यांकन है.

कटघरे में रह कर हम समय को अघोरते रहे - यह ठीक नहीं है!  किसी कटघरे में आप न फंसें - ऐसा मेरा शुभकामना है.  आपके जैसे संभ्रांत लोगों से मेरी यही अपेक्षा है.  संभ्रांत से आशय है - आगे की सोच के लिए आप लोगों के पास जगह है.  आगे की सोच के लिए जिनके पास जगह नहीं है, उनको मैं रूढ़िवादी या कटघरे में रहने वाला मानता हूँ.  आज की विपदाएं आपको विदित हैं, आगे के लिए सुगम रास्ता क्या हो, इसके लिए आपके पास जिज्ञासा है - भले ही वह किसी भी प्राथमिकता में हो.  इस आधार पर आप आगे की सोच के लिए योग्य हैं, ऐसा मान करके आप लोगों के साथ मैं मंगल मैत्री से चले आ रहा हूँ.  इसमें हम सफल भी हैं.  हम केवल शुष्कवाद कर रहे हों - ऐसा भी नहीं है!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)

Sunday, April 28, 2024

एक गाँव में पहले इसको सफल बनाया जाए.

 "धरती बीमार हो गयी है" - इसको उजागर करने के लिए न तो विज्ञान संस्थाएं, न शिक्षा संस्थाएं, न राज्य संस्थाएं और न ही व्यापार संस्थाएं आगे आएंगे.  हमारे जैसे सामान्य व्यक्ति जिनकी विज्ञान, धर्म, राज्य से बहुत प्रतिबद्धताएं नहीं हैं - ऐसे लोग इसको सोच पाएंगे.  ऐसे लोग ज्यादा से ज्यादा गावों में हैं.  गावों में कहीं न कहीं श्रमशीलता की आंशिकता है, जो शहरों में नहीं है.  इन दोनों बातों को लेकर गाँवों में स्वराज्य की शुरुआत करने का प्रस्ताव किया है.  ग्राम स्वराज्य शुरू होने के बाद यह सफल होगा.  एक गाँव में पहले इसको सफल बनाया जाए.  

प्रश्न:  आपसे पहले विनोबा जी के आह्वान पर हम गाँव-गाँव लोगों को समझाने गए, पर समझा नहीं पाए, आखिरकार थक गए, और कहीं रुक गए।   क्या आपका ऐसा निर्देश है कि हमको जो आपकी बात स्वीकार हो रही है उसकी सूचना जल्दी से जल्दी हम गाँव-गाँव तक पहुँचाने का अभियान चलाएं?

उत्तर: आप समझा नहीं पाए, यह आप स्वीकार रहे हैं.  आपके पास समझाने का वस्तु नहीं रहा - यह आप स्वीकार नहीं रहे हैं.  उसकी घोषणा करो - तब यह ठीक बैठता है.  आप ऐसा मान रहे हैं पहले भी यही समझ था और आप उसको केवल बता नहीं पाए.

विगत में क्या इसी ज्ञान-विवेक-विज्ञान से संपन्न हो कर ग्राम-स्वराज्य योजना बनाया था?  इस बात का परिशीलन होने की आवश्यकता है.  उसका निर्णय निकालने की आवश्यकता है.  यदि पहले सफल हुआ है तो उस मॉडल का अध्ययन करने की आवश्यकता है.

प्रश्न: जितनी तीव्र गति विनाश की है, उतनी तीव्र गति हमारे प्रयासों में नहीं आ रही है.  जल्दी व्यवस्था आये, इसके लिए क्या उपाय है?

उत्तर:  जल्दी करने की आतुरता को व्यक्त करने से कुछ हो गया - ऐसा कुछ होता नहीं है.  धरती पर चलके ही होगा.  धरती पर चलने के लिए समाधान-समृद्धि के साथ जीते हुए पाँचों आयामों के भागीदारी करना है.  समाधान के साथ समृद्धि को जोड़ कर जियेंगे, उसके बलबूते पर हम संसार में उपकार कर पाएंगे.  दूसरा कुछ कर भी नहीं सकते।  इसे हर व्यक्ति, हर परिवार प्रयोग कर सकता है.  

परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना के हर कार्यकर्ता को समाधान-समृद्धि संपन्न होने की आवश्यकता है.  समाधान-समृद्धि संपन्न हो तो उपकार कर सकते हैं, अन्यथा उपकार नहीं कर सकते.  समाधान-समृद्धि पूर्वक जिए बिना कोई उपकार करने का कहता है तो वह झूठ हुआ.  इसको छोड़ के धर्म विधि से शासन ही हुआ, राज्य विधि से शासन ही हुआ, और व्यापार विधि से शोषण ही हुआ.  अभी शासन करने के लिए राज्य तीन भंवर अपनाये हुए हैं - द्रोह-विद्रोह-शोषण-युद्ध, छल-कपट-दम्भ-पाखण्ड, साम-दाम-दंड-भेद. इन तरीकों को अपना कर हम समाधान को कभी नहीं ला पाएंगे.  

हज़ार आदमी गलत हों, उनमे से एक आदमी सही बात को अपनाता है तो उसको गलत साबित करने का अधिकार हज़ार आदमियों में भी नहीं होता है.  इसको प्रयोग करके देखा जा सकता है.  सहीपन को कोई एक बार में एक आदमी समझेगा या सारे आदमी एक साथ समझ जाएंगे?  सब आदमी एक साथ नहीं समझेगा।  पहले एक गाँव में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था प्रमाणित होने की आवश्यकता है.  पहली आवश्यकता यही है.  उसके बाद हज़ार गाँव, लाख गाँव, पूरा देश हो जाता है.  पहले गाँव में जितना समय लगेगा उससे बहुत कम समय में हम हज़ार गाँवों में पहुँच सकते हैं.  इसका कारण है - सहीपन की प्यास सर्वमानव में बनी हुई है.  

अभी हमारी अपेक्षा है, हमारे देश में जल्दी से जल्दी यह व्यवस्था स्थापित हो.  उसके लिए सभी सज्जन, सभी सज्जन संस्थाएं भागीदारी कर सकते हैं.  यदि यह व्यवस्था अपने देश में स्थापित हो जाती है तो अपने पड़ौसी देशों में भी स्थापित हो सकती है.  

- श्रद्धेय नागराज जी के उद्बोधन पर आधारित (अनुभव शिविर २००७, अमरकंटक) 

Friday, February 2, 2024

जागृति क्रम में आत्मा की स्थिति


 जागृति क्रम में मनुष्य में सुख की आशा आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के चुप "होने" का फल है.  

आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के "रहने" का प्रमाण नहीं मिला, फलस्वरूप सुख की आशा बना रहा.

प्रश्न: जागृति क्रम में आत्मा (जीवन परमाणु का मध्यांश) गठनपूर्णता को बनाये रखने के अलावा क्या और कुछ करता है?

उत्तर: और क्या करना है?  और करना तो यही है - सुख को प्रकट करना है, अनुभव को प्रकट करना है.  अनुभव के प्रकट होने तक चुप रहता है.

प्रश्न: अध्ययन क्रम में आत्मा की क्या स्थिति है?

उत्तर: उस समय आशा अनुभव को छूने की है.  आत्मा में प्रबोधन को स्वीकारने की स्थिति बनी रहती है.  वह स्वीकारते स्वीकारते अंततोगत्वा आत्मा अनुभव संपन्न हो जाता है.  फिर प्रमाणित करने के क्रम में अनुभवशील हो जाता है.  प्रमाण मनुष्य के साथ ही होता है.  आत्मा में अनुभव से पहले अनुभव की प्यास बना रहता है.  प्रमाणित करने का आधार जब जीवन में स्थिर होता है उससे जीवन में तृप्ति होती है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

Thursday, February 1, 2024

अध्ययन का संयोग


सच्चाइयाँ जैसे-जैसे साक्षात्कार होने लगता है अनुभव होने की सम्भावना उदय होने लगता है.  साक्षात्कार होने  के लिए पहले पठन, फिर परिभाषा से अध्ययन।  

प्रश्न: क्या यह कहना सही होगा कि साक्षात्कार होना एक process है - जो एक क्रम से होता है, जिसमें समय लगता है?

उत्तर: हाँ.  अध्ययन विधि से वैसा ही है.  पूरा सहअस्तित्व साक्षात्कार होना है.  सहअस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति साक्षात्कार होना है.  यह सब यदि साक्षात्कार पूरा हो गया तो अनुभव उसी वक्त है.

प्रश्न: साक्षात्कार के पहले मानव में उसके लिए प्रेरणा किस स्वरूप में रहता है?  

उत्तर: जीवंत मनुष्य में इसके लिए प्रेरणा तो रहता ही है.  जितना मैं जी पा रहा हूँ, वह पूरा नहीं है - इस जगह में सर्वाधिक लोग आते ही हैं।   जैसे हमको १० रुपया पूरा नहीं पड़ रहा हो और २० रुपया पाने की अपेक्षा हो.  स्वयं में पीड़ा स्वरूप में प्रेरणा रहता है कि यह अधूरा है.  स्वयं में यह प्रेरणा रहने से प्रेरणा पाने का अधिकार बनता है.  बाह्य प्रेरणा से इसके पूरा होने की अपेक्षा बन जाता है.  अधूरेपन की पीड़ा पूरा होने के लिए ही है.  पहले यह प्रच्छन्न रूप में रहता है, अध्ययन का संयोग होने पर प्रकट होने के पश्चात् साक्षात्कार होने लगता है.  अध्ययन करने वाले व्यक्ति और अध्ययन कराने वाले व्यक्ति का संयोग होने पर ऐसा होता है.  अध्ययन कराने वाला व्यक्ति पूर्णता के लिए प्रेरणा स्त्रोत होता है.  पूर्णता है - किया पूर्णता और आचरण पूर्णता।

अध्ययन करने वाला अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करके सत्य को पहचानने का प्रयास करता है.  इस प्रकार सत्य का स्वीकृति क्रम से साक्षात्कार पूर्वक बोध में हो जाता है.  साक्षात्कार, बोध और अनुभव - ये तीन पड़ाव हैं.  इसमें साक्षात्कार तक पुरुषार्थ है, बोध और अनुभव में कोई पुरुषार्थ नहीं है.  साक्षात्कार के लिए पुरुषार्थ ही अध्ययन है.  साक्षात्कार में पहुंचना ही पुरुषार्थ का अंतिम स्वरूप है.  

साक्षात्कार होने से उत्साह होता ही है.  केवल सच्चाई की सूचना मात्र से उत्साह होता है.  जैसे, जीवन विद्या शिविरों में इस प्रस्ताव की सूचना मिलने से लोगों में उत्साह होता है.  इसको आप सभी ने देखा ही होगा।  शिविर एक सूचना है.  सूचना मात्र मिलने से लोग कितना उत्साहित होते हैं!  उत्साह के बाद जिज्ञासा बनता है, इसको अपना स्वत्व कैसे बनाया जाए.  उसमे जाते हैं तो कल्पनाशीलता को प्रयोजन के लिए लगाना पड़ता है, जो अध्ययन के लिए प्रवृत्ति है.  अध्ययन के लिए प्रवृत्ति को क्रियान्वयन करने पर साक्षात्कार, साक्षात्कार पूर्वक अनुभव की सम्भावना उदय, अनुभव के पश्चात् प्रमाण - इतना ही तो process है.

जीव चेतना में भ्रमित स्थिति में कल्पना आशा-विचार-इच्छा की अस्पष्ट गति है.  अध्ययन में कल्पनाशीलता स्पष्ट होने के लिए पहुँच जाता है.  आशा-विचार-इच्छा की स्पष्ट गति ही साक्षात्कार है.  यह अध्ययन विधि से ही होता है.  अनुभव मूलक विधि से अध्ययन कराया जाता है.  

अध्ययन मौन पूर्वक या आँखें मूँद कर होने वाला अभ्यास नहीं है.  इसको मैं दम्भ-पाखण्ड ही मानता हूँ.  मौन से क्या बना?  अपने पाखण्ड को अच्छे ढंग से रखने का तरीका ही तैयार हुआ.  ऐसा मैं हज़ारों सर्वेक्षण करके आया हूँ.  

जीव चेतना में जीने वाला व्यक्ति मानव चेतना में परिवर्तित होगा - यह मेरा आशा है.  जीव चेतना में रहने वाले व्यक्ति के साथ मेरा स्नेह तो नहीं हो सकता।  जीव चेतना से छूटने के लिए जो प्रयत्नशील हैं, उनके साथ स्नेह है.

कल्पनाशीलता का प्रयोजन ज्ञानार्जन है.  उसको छोड़ कर हमने शरीर को जीवन मान लिया - फलस्वरूप उल्टा तरफ चल दिए.  अब उसको सीधा करने का प्रस्ताव आ गया.  यदि इससे अच्छा प्रस्ताव हो तो उसको भी अध्ययन किया जाए.  

कल्पनाशीलता जब कल्पना से साक्षात्कार में परिवर्तित हो गया - वही गुणात्मक परिवर्तन है.  गुणात्मक परिवर्तन का यह पहला घाट है.  दूसरा घाट है अनुभव।  अनुभव पूर्वक कल्पना ही प्रमाण में परिवर्तित हुआ.  कल्पना में प्रमाण समाता नहीं है.  कल्पना प्रमाण में परिवर्तित हो जाता है.  उसी का नाम है - गुणात्मक परिवर्तन।  कल्पना का तृप्ति बिंदु प्रमाण में ही है.  अध्ययन विधि से पारंगत होने के उपरान्त ही प्रमाण है.  पारंगत हुए बिना कौनसा प्रमाण होगा?  

यह एक अच्छा पकड़ तो है!  आज के समय में हम जितना भ्रमित हैं, उस सबको एक मुट्ठी में ला देना, उस सारे भ्रम के पुलिंदे को स्वाहा कर देना, इसको क्या कहा जाए?  इस ठिकाने पर पहुँचने के लिए मानव में आदिकाल से तड़प तो रहा है.  उसको पूरा करने की विधि आ गयी है.  इस विधि को अपनाने वाले लोगों की संख्या बढ़ने की आवश्यकता है.  उसी के लिए हम प्रयत्नशील है.  उसी के लिए जितना हम में ताकत है, उसको लगा रहे हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)