सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य में न्याय और धर्म दोनों समाहित रहते हैं, इसीलिये सत्य में अनुभूत होने वाली बात आती है. आत्मा सत्य में अनुभूत होता है, फलस्वरूप जीव-जगत सब समझ में आता है, फलस्वरूप हम प्रमाणित होने योग्य हो जाते हैं.
आत्मा मध्यस्थ क्रिया है, इसलिए उसमे सत्य स्वीकृत होता ही है. सत्य के अलावा आत्मा को और कुछ स्वीकृत ही नहीं होता।
प्रश्न: आपके कथन "आत्मा ब्रह्म से नेष्ठ नहीं है" से क्या आशय है?
उत्तर: ब्रह्म व्यापक है. आत्मा अनुभव संपन्न होने पर ज्ञान के अर्थ में व्यापक हो ही जाता है.
आत्मा मध्यस्थ क्रिया होने से, और सत्ता मध्यस्थ होने से - इनकी साम्यता बन गयी. इसीलिये आत्मा सत्ता में अनुभव होता है. अनुभव होने के फलस्वरूप परस्परता में सत्य की संप्रेषणा आत्मा में अनुभव मूलक विधि से ही होता है. इसीलिये आत्मा प्रकृति का अंश परिगणित होते हुए, परमाणु का मध्यांश होते हुए, क्रिया होते हुए, ब्रह्म से नेष्ठ इसीलिये नहीं है क्योंकि आत्मा में अनुभव मूलक विधि से ही सत्य अभिव्यक्त होता है, सम्प्रेषित होता है, प्रकाशित होता है - फलतः प्रमाणित होता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक
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