प्रकृति सत्ता मे प्रेरणा पाने योग्य स्थिति मे है. प्रकृति सत्ता मे स्वयं स्फ़ुर्त विधि से, स्वयं प्रवृत्त विधि से प्रेरणा पाता ही रहता है. जैसे कपड़ा पानी में भीगता है वैसे... पानी कपड़े को भिगाता नहीं है, भीगने का गुण कपड़े में ही है, पानी - पानी ही है. उसी प्रकार व्यापक वस्तु ऊर्जा होने के कारण प्रकृति उसमे ऊर्जा संपन्न रहती है. इसके फलन में प्रकृति में क्रियाशीलता, विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति का प्रकटन होता है.
इस प्रकार मानव जाति द्वारा जीवन को न पहचानने से, जीव को अल्पज्ञ मानने से, जीव को ईश्वर से पैदा हुआ मानने से, और इन सब मान्यताओं का तालमेल न बैठने से मानव जाति को कोई ज्ञान हाथ लगा नहीं। अतः मानव संतान में न्याय प्रदायी क्षमता को स्थापित करने में, सही कार्य व्यव्हार प्रमाणित करने और सत्य बोध कराने में हम सर्वथा असमर्थ रहे. मानव जाति में ज्ञानी, अज्ञानी और विज्ञानी तीनों शामिल हैं. ये तीनों असमर्थ रहे. यह फैसला नहीं होता है तो हम आगे बढ़ेंगे नहीं। गुड़ गोबर बनाने वाले काम में ही लगे रहेंगे। गुड़ गोबर किया तो न गुड़ मिलना है न गोबर मिलना है.
जीवन समझ में आने से जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में मानव का अध्ययन सुलभ हो गया. शरीर रचना का सामान्य ज्ञान मानव को हो चुका है जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके. जो थोड़ा बचा होगा उसे आगे पूरा किया जा सकता है, उसमे मैं ज्यादा प्रवृत्त नहीं हूँ. जीवन की दस क्रियाओं को मानव के आचरण में जाँचा जा सकता है. हर व्यक्ति जाँच सकता है. हर व्यक्ति के साथ जीवन है. मैंने जाँचा, मुझको प्रमाण मिला - मुझे संतुष्टि हो गयी. प्रमाण की परम्परा बनने के लिए इतना पर्याप्त नहीं है. हर व्यक्ति जांच सके, इसके लिए हम सूचना देते हैं. इसी लिए सूचना देते है, नहीं तो काहे के लिए सूचना देते?
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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