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Monday, December 24, 2018

प्रकृति की इकाइयों में परस्पर पहचान का स्वरूप

कुछ दिन पहले मेरी साधन भाई से दर्शन के कुछ मुद्दों पर स्पष्टता पाने के लिए बात हुई थी।  उसी के continuation में।  आशा है कि यह आपके लिए उपयोगी होगी।

प्रश्न:  इकाइयों का उनकी परस्परता में निर्वाह उनका सम्बन्ध की पहचान पूर्वक है या एक का दूसरे पर प्रभाव वश उनकी बाध्यता है?  इसको कैसे देखें?

उत्तर: पहली इकाई के प्रभाव वश दूसरी इकाई का निर्वाह के लिए बाध्य होना और दूसरी इकाई में निर्वाह करने की पात्रता-क्षमता होना ये दोनों ही हैं.  पहली इकाई का प्रभाव है, उसको दूसरी इकाई स्वीकार कर पा रहा है - इसके लिए दूसरी इकाई में पात्रता-क्षमता भी है. 

प्रकटन क्रम के हर स्तर पर निर्वाह है.  परमाणु अंश भी निर्वाह कर रहा है, उससे अग्रिम सभी स्थितियां भी निर्वाह कर रही हैं.  यह निर्वाह करना केवल दूसरे के प्रभाव वश बाध्यता ही नहीं है, सहअस्तित्व विधि से जिस स्थिति में वह है उसके अनुसार उसकी क्षमता भी है.  परस्परता या वातावरण बाध्यता है.  निर्वाह करना इकाई की क्षमता है, जो उसकी श्रम पूर्वक अर्जित है.  जैसे -पदार्थावस्था + श्रम = प्राणावस्था.  प्राणावस्था + श्रम = जीवावस्था.  इस तरह श्रम पूर्वक पहचानने की क्षमता अर्जित हो रही है. 

प्रश्न:  भौतिक-रासायनिक वस्तुएं भी "पहचान" रही हैं - इस भाषा से ऐसा लगता है जैसे उनमे भी जान हो!  इसको कैसे देखें?

उत्तर:  बाबा जी ने सारा मानव भाषा में लिखा है.  भौतिक-रासायनिक वस्तुओं के क्रियाकलाप को भी.  सामान्यतः जड़ उसको कहते हैं जो गति रहित हो.  जबकि हर परमाणु गतिशील है.  यहाँ जड़ की परिभाषा है - पहचानने-निर्वाह करने वाली वस्तु.  सत्ता में संपृक्त होने से हर वस्तु एक तरह से कहें तो "जिन्दा" है!

पहचानना-निर्वाह करना सम्पूर्ण प्रकृति में है.  मानव में जानना-मानना अतिरिक्त है.  जानने-मानने के बाद भी पहचानना-निर्वाह करना ही होता है.  मानव के पहचानने-निर्वाह करने में जो कमी थी उसको ठीक किया है.  बाकी प्रकृति में पहचानने-निर्वाह करने में कमियां ही नहीं हैं.  मानव में जब जानने-मानने के आधार पर पहचानना-निर्वाह करना हुआ तो वह भी व्यवस्था में हो गया. 

प्रश्न:  एक चट्टान में "पहचानना" क्या क्रिया है?

उत्तर: सहअस्तित्व में नियतिक्रम में जो वस्तु समर्पित हो रहा है वही पहचानना है.  जैसे - एक परमाणु अंश अकेला होने पर दूसरे को ढूँढने लगा.  दूसरा मिलने पर एक परमाणु बना लिया.  व्यवस्था में होने की जो यह मूल प्रवृत्ति है, श्रम है - इस स्थिति को ही पहचानना कह रहे हैं.  यह जैसे परमाणु अंश में है, परमाणु में है, वैसे एक चट्टान में भी है.  - दिसंबर 2018

अनुभव पूरा होता है, उसका अभिव्यक्ति क्रम से होता है.




अनुभव पूरा होता है, उसका अभिव्यक्ति क्रम से होता है.  जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तन के लिए अनुभव एक साथ ही होता है.  वह क्रम से मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना के रूप में प्रमाणित होता है.  अनुभव होने पर दृष्टा पद में हो गए.  मैं समझ गया हूँ - इस जगह में रहते हैं.  समझा हुए को वितरित करना मानव परंपरा में ही होगा.  इसमें पहले मानव चेतना ही वितरित होगी, फिर देव चेतना, फिर दिव्य चेतना.  ऐसा क्रम बना है.

अनुभव के बिना मानव चेतना आएगा नहीं.  पूरे धरती पर मानव चेतना के प्रमाणित होने के स्वरूप में कम से कम ५% लोग अनुभव संपन्न रहेंगे ही, भले ही बाकी लोग उनका अनुकरण करते रहे.  अनुभव सम्पन्नता के साथ देव चेतना और दिव्य चेतना में प्रमाणित होने का अधिकार बना ही रहता है.  परिस्थितियाँ जैसे-जैसे बनती जाती हैं, वैसे-वैसे उसका प्रकटन होता जाता है.

दिव्यचेतना के धरती पर प्रमाणित होने का अर्थ है - सभी लोग मानव चेतना और देव चेतना में जी रहे हैं.  तभी दिव्य चेतना का वैभव है.  दिव्य चेतना के आने के बाद धरती पर कोई प्रश्न ही नहीं है!  उसके बाद मानव इस धरती को अरबों-खरबों वर्षों तक सुरक्षित रख सकता है.  यह धरती अपने में शून्याकर्षण में है.  यह ख़त्म होने वाला नहीं है.  मानव यदि बर्बाद न करे तो यह धरती सदा के लिए है.

- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Tuesday, December 18, 2018

मध्यस्थ क्रिया और नियति क्रम का अनुसरण

अभी दो-तीन दिन पहले मैं साधन भाई के साथ फोन पर बात कर रहा था, दर्शन के कुछ मुद्दों पर स्पष्टता पाने के लिए...  मुझे लगा यह चर्चा बाकी साथियों के लिए भी उपयोगी होगी, इसलिए आपसे साझा कर रहा हूँ.

प्रश्न: मध्यस्थ क्रिया के स्वरूप का जड़ और चैतन्य में क्या भेद है?

उत्तर:  जड़ परमाणु में मध्यांश द्वारा एक सीमा तक अपने गठन को बनाए रखने का प्रयास है.  उससे ज्यादा आवेश होने पर परमाणु टूट जाता है.  चैतन्य परमाणु (जीवन) में ऐसा है कि परमाणु टूटेगा ही नहीं, उसका गठन टूट ही नहीं सकता. 

परमाणु में मध्यस्थ क्रिया द्वारा ही नियति क्रम का अनुसरण होता है. 

प्रश्न: नियति क्रम का अनुसरण क्या केवल परमाणु में होता है? 

उत्तर: नियतिक्रम को अनुसरण करने की बात परमाणु में ही नहीं, परमाणु अंश में भी है.  परमाणु अंश तभी मिलकर परमाणु का गठन कर लेते हैं.  नियति क्रम को अनुसरण करने की क्रिया स्फूर्ति (अपने आप में) और स्फुरण (बाहर के प्रभाव से) दोनों से होती है.  बाहर से भी होगा तो उसको पहचानने वाला इकाई में होना ही होगा, और उसका श्रेय सर्वप्रथम मध्यस्थ क्रिया को ही है.

प्रश्न: जीवन परमाणु के मध्यांश (आत्मा) में यदि नियतिक्रम को अनुसरण करने की ताकत पहले से ही है तो भ्रम जीवन पर कैसे हावी हो जाता है?

उत्तर: जागृतिक्रम में मन शरीर से जुड़ता है.  शरीर से जुड़ने का मतलब शरीर को चलाता है.  शरीर से मन प्रभावित नहीं होगा तो वह शरीर को चला नहीं पायेगा.  जीवावस्था में शरीर से प्रभावित होने तक की ही बात रहती है.  यहाँ मन में अपने आप से इतनी ताकत नहीं होती, या कल्पनाशीलता/कर्मस्वतंत्रता नहीं होती, कि वह शरीर से कुछ और करा ले.  जीव शरीरों में मेधस तंत्र जितना permit करता है उतना ही जीवन उसके द्वारा प्रकाशित हो पाता है.  इसीलिये जीव वन्शानुषंगी हैं.

जीवन का शरीर द्वारा प्रकाशन की शुरुआत मन से है.  मानव शरीर को चलाने की जब बात है तो उसमे शरीर मूलक और जीवन मूलक दोनों तरह से चलाने का अवकाश रहता है.  शरीर को नहीं सुने तो शरीर को चलाना, जीवित रखना संभव नहीं है.  साथ ही शरीर के सुनने से जीवन को सुख का भास प्रिय-हित-लाभ स्वरूप में भी होने लगता है.  इससे भी जीवन शरीर का ही अनुसरण किये रहता है.

जागृतिक्रम में जीवन में पहले मन का प्रत्यावर्तन होगा, फिर वृत्ति का होगा, फिर चित्त का होगा, फिर बुद्धि और आत्मा का एक साथ प्रत्यावर्तन होगा.  यह क्रम है.  यदि मानव शरीर को चलाने के साथ ही आत्मा का सीधे प्रत्यावर्तन हो जाता तो वन्शानुषंगी जीवावस्था से सीधे संस्करानुषंगी जागृत मानव ही पैदा होता! 

तो मानव जीवन में आत्मा नियतिक्रम के अनुसरण के अर्थ में रहता है, साथ ही मन शरीर से जुड़ा रहता है.  मानव में कल्पनाशीलता/कर्म स्वतंत्रता के चलते उसमे जाग्रति की सम्भावना है, इसलिए मानव में शरीर से अधिक का भी कल्पना/अनुमान बनने लगता है, और जब यह अनुमान/कल्पना (अनुसंधान या अध्ययन पूर्वक) नियति के अनुसार सज जाती है तो आत्मा उस पर अनुभव की मुहर लगा देता है.

जीवन में एक विशेष बात है - इसका मध्यांश, आत्मा जब प्रत्यावर्तित होता है तब व्यापक के महिमा सदृश अन्तर्यामी (स्थिति) होता है।  और जब इसका बाह्य परिवेश मन शरीर (मेधस) मे परावर्तित होता है तब मेधस सदृश वन्शानुषंगीय आचरण प्रस्तुत करता है।
  वस्तुतः मेधस व मन तथा आत्मा  व व्यापक में अंतर अत्यंत सूक्ष्म है।  इसे स्पष्ट करना परम्परा में शेष रहा।  यह अब मध्यस्थ दर्शन में स्पष्ट हुआ है।

(१४ दिसम्बर २०१८)

Wednesday, December 12, 2018

परिवार की बात विगत के शास्त्रों में नहीं है.



बोलना कोई जीना नहीं है.  जीने में समाधान ही होगा, समृद्धि ही होगा - और इसके अलावा कुछ भी नहीं होगा.  बोलना एक 'सूचना' है.  'जीना' प्रमाण है.  जीने में समाधान-समृद्धि ही प्रमाण है - और कुछ प्रमाण होता नहीं है.  आप कहीं से भी ले आओ - मानव लक्ष्य इन दोनों में ही ध्रुवीकृत होता है.  परिवार का डिजाईन समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने से निकलता है.

"परिवार" शब्द मानव परंपरा में है किन्तु शास्त्रों में नहीं है.  शास्त्रों में परिवार की बात करते तो उसका डिजाईन बताना पड़ता!  मध्यस्थ दर्शन के पहले जो कुछ भी शास्त्रों में है - उसमें परिवार का कोई डिजाईन नहीं है.  परिवार का डिजाईन बताने की अर्हता विगत के शास्त्रकारों के पास नहीं है.  वहां "व्यक्ति" से सीधे "समाज" की बात की गयी है.  यहाँ (मध्यस्थ दर्शन) के अलावा परिवार के बारे में कोई चूं नहीं किया है!  परिवार का लिंक ही छूट गया - इसलिए दूरी बनी रही.  सहअस्तित्व विधि को छोड़ करके इस लिंक को कोई नहीं जोड़ सकता.  व्यक्ति और समाज के बीच परिवार एक सेतु है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, December 11, 2018

समाधान समृद्धि का मॉडल multiply हो सकता है.


समझाने वाले का पलड़ा ज्यादा भारी लगता रहे तो समझने वाले को समझ दूर ही लगती रहती है.  अध्यापक यदि दूरी बना के रखे तो उसका multiply होना मुश्किल है.  हमारा उद्देश्य multiply होना है.

मेरी समीक्षा में यह आ गया था कि राम multiply नहीं हुआ - जिसको मैं बहुत पढ़ा था.  कृष्ण multiply नहीं हुआ - जिसकी रंगरेली से लेकर कूटनीति तक मैंने सब पढ़ा है.  गाँधी जी आये - multiply नहीं हुए.  विनोबा आये - multiply नहीं हुए.  बुद्ध आये - multiply नहीं हुए.  महावीर आये - multiply नहीं हुए.  ईसा मसीह आये, वो कीला ठुकवा लिए - multiply नहीं हुए.  हर व्यक्ति कीला ठुकवाने को तैयार नहीं हुआ शायद!

अब इस अनुसन्धान के सफल होने से multiply होने का एक रास्ता बना है.  समाधान-समृद्धि का मॉडल multiply हो सकता है.  मेरे assessment में यह आ गया कि यह सबकी ज़रुरत है, सबको स्वीकृत है.

प्रश्न:  इतना सब ज्ञान जो आप लेकर चल रहे हैं, आपको भारी नहीं लगता?

उत्तर:  कहाँ कुछ भारी है?  अनुभव में कुछ बोझ होता ही नहीं है.  synthesis में बोझ नहीं है.  सब कुछ मूल्यांकन और समीक्षा में आने पर बोझ नहीं है.  समाधान के अर्थ में ही यथास्थिति का समीक्षा हुआ रहता है.  समाधान नहीं हो तो समीक्षा भी नहीं हो सकता.  बोझ तभी तक है जब तक समाधान नहीं है.  इसी आधार पर कह रहे हैं - समाधान-समृद्धि सबको स्वीकार है.  चैन से सोचना, चैन से करना, चैन से सोना, चैन से जीना!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, December 9, 2018

प्रमाणित करते हुए समझना ज्यादा प्रभावशाली तरीका है.



परंपरा में जो नहीं था उसका प्रस्ताव प्रस्तुत करना अनुसंधान है.  प्रस्ताव को समझना शोध है.  समझे बिना हम कुछ भी करते हैं तो वह अधूरा होता है.  समझने के लिए पूरा प्रयत्न होना चाहिए.  समझने में हम धीरे-धीरे भी समझ सकते हैं, जल्दी भी समझ सकते हैं.

प्रश्न:  अभी जो दर्शन के लोकव्यापीकरण के प्रयास चल रहे हैं, आप उनको कैसे देखते हैं?  क्या वे आपकी नज़र में जागृत परंपरा के भ्रूण स्वरूप हैं?

उत्तर:  जागृत परंपरा के लिए जो ज्ञान चाहिए वह मेरे पास है.  उसमें मैं पारंगत हूँ और स्वयं प्रमाण हूँ.  यहाँ से शुरुआत है.  यह इन कार्यक्रमों के जागृत परंपरा के "भ्रूण" होने की बात नहीं है.  आपकी भाषा को ठीक होने की आवश्यकता है.  मैं स्वयं प्रमाण हूँ, उस प्रमाण के multiply होने के लिए ये कार्यक्रम हैं.  multiply होने के क्रम में बहुत सारे लोग शुभ का स्वागत करने के लिए बैठे हैं.  शुभ के लिए शंका करने वाले भी बैठे हैं.  इन दो चैनल में आदमी मिलता है, इसमें हमको कोई आश्चर्य नहीं है.  जो जिस चैनल में जाना चाहता है, जाए!  हम तो किसी को मजबूर करने वाले नहीं हैं कि आप ऐसा ही करो!  आपको जैसा इच्छा हो आप वैसा करो!

प्रश्न: इस तरीके से आप सबके साथ कैसे जुडेंगे?

उत्तर: जिसको ज्यादा ज़रुरत है वो पहले आएगा, उसके बाद वाला उसके पीछे आएगा, उसके बाद वाला उसके पीछे आएगा!  ऐसा मैं अपने में विन्यास लगा लेता हूँ.  इसमें क्या कोई बचेगा?

दो तरीके हैं जुड़ने के - पहला, मॉडल को बनाने के basic/foundation work में शामिल होना है, दूसरा - मॉडल के प्रमाणित होने के बाद शामिल हो जाना है.

प्रश्न: लेकिन अभी स्वयं समझ में पक्के हुए बिना कैसे इसको लेकर कुछ करें?

उत्तर: प्रमाणों के आधार पर हम पक्के होंगे.  (अनुकरण पूर्वक) प्रमाणित करते हुए समझना ज्यादा प्रभावशाली तरीका है.  स्वयं पूरे शोध पूर्वक समझने की जिम्मेदारी लेने वाले तरीके में अपेक्षाकृत कम बल है.

"अच्छा काम करना है" - यह उद्देश्य आप में कहीं न कहीं बन चुका है.  उसके लिए आवश्यक योग्यता अर्जित होने की घटना जब होना है तब घटित हो जाएगा.  इसमें देरी-जल्दी की बात नहीं है.  जितना देर में हम कर लेते हैं, वही हमारी अर्हता है.  जैसे - मैंने भी इस समझ को किसी मुहूर्त में ही हासिल किया और अपने को परिपूर्ण होना स्वीकारा.  अब इसमें मैं देरी क्या गिनूँ, जल्दी क्या गिनूँ?  जब घटित होगा तब गणना हो जाएगा कि कितना समय लगा!  इसमें भविष्यवाणी इतना ही किया जा सकता है - "समझदारी का यह प्रस्ताव है, आवश्यकता के अनुसार आदमी इसको ग्रहण करेगा."

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, December 7, 2018

लोकव्यापीकरण के लिए जीता जागता मॉडल चाहिए

मेरी साधना जब फलवती हुआ तो पता चला यह पूरी बात मेरे अकेले की नहीं है, यह मानव जाति की सम्पदा है.  मानव जाति के पुण्य से यह मुझे हाथ लगा है - यह मैंने स्वीकार लिया.  अब इसको मानव को समर्पित करने की जिम्मेदारी, यानी इसके लोकव्यापीकरण करने की जिम्मेदारी को मैंने स्वीकार लिया.   लोकव्यापीकरण के लिए हर बात का उत्तर चाहिए.  मानव कैसे रहेगा, शिक्षा कैसे रहेगा, संविधान कैसा रहेगा, आचरण कैसा रहेगा.  यह न कम है, न ज्यादा है. 

साधना से वस्तु (समझदारी) प्राप्त करना और उसका लोकव्यापीकरण करना दो अलग-अलग संसार ही है.  लोकव्यापीकरण के लिए जीता जागता मॉडल चाहिए.  साधना में मैं विरक्ति विधि से रहा.  विरक्ति समझदारी का कोई मॉडल नहीं है.  समझदारी का मॉडल है - समाधान समृद्धि.  समझदारी से समाधान संपन्न मैं हो ही गया था, श्रम से समृद्धि का मैंने जुगाड़ कर लिया! 

मानव जाति के पुण्य से मैं यह दर्शन को पाया हूँ, मानव जाति के पुण्य से यह सफल भी होगा.  मानव जाति में शुभ स्वरूप में जीने की अपेक्षा रही है, पर शुभ का मॉडल नहीं रहा.  अब मॉडल आ गया.  minimum model को मैं जी कर प्रमाणित किया हूँ.  अब अगला स्टेप है - कम से कम १०० परिवार इस समझ को एक गाँव में स्वराज्य व्यवस्था के स्वरूप को प्रमाणित करें और १२वीं तक एक शिक्षा संस्था को स्थापित करें.  इसके बाद संसार में इसका ध्यानाकर्षण शुरू होगा.  उसके बाद १०० परिवार से विश्व परिवार तक कैसे प्रमाणित होंगे, इसको सोचेंगे.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक) 

दासत्व से मुक्ति

दासत्व से मुक्ति स्वावलंबन से आता है.  स्वावलंबन समाधान से आता है.  स्वावलंबन की चर्चा कब से हो रही है - पर क्या स्वावलंबन हो पाया?  अभी कुछ भी चोरी, सेंधमारी, लूटमारी, जानमारी करके पैसे कमा लेने को स्वावलंबन कहते हैं.  इस ढंग से क्या कोई स्वावलंबन होता है?

प्रश्न:  स्वावलंबन क्या है?

उत्तर: हमारे परिवार के शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज गति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जितना चाहिए उतना सामान्याकांक्षा या महत्त्वाकांक्षा संबंधी कोई भी वस्तु का उत्पादन कर लेना.  समाधान के बिना स्वावलंबन को इस प्रकार पहचानने का प्रवृत्ति ही नहीं बनता.  समाधान के बिना सेंधमारी, लूटमारी, जानमारी का ही प्रवृत्ति रहता है. 

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक) 

Thursday, December 6, 2018

साधन के साथ ही हम प्रमाणित होते हैं.



समझदारी के साथ व्यवस्था में भागीदारी करने का स्वीकृति हो जाती है.

समृद्धि के साथ ही समझदारी का प्रमाण दूर-दूर तक फैलता है.  प्रमाण गति के साथ है - जिसमे शरीर पोषण है, संरक्षण है, और समाज गति है.  समाज व्यवस्था में भागीदारी करने के लिए साधन चाहिए.  साधन के साथ ही हम प्रमाणित होते हैं.  साधन को छोड़ कर हम प्रमाणित नहीं होते. 

जीवन शरीर नामक साधन के साथ ही होता है - तब ही मानव संज्ञा बनता है.  शरीर का पोषण आवश्यक है.  संरक्षण आवश्यक है.  तब ही समाज गति संभव है. 

प्रश्न: साधन की आवश्यकता की मात्रा का कैसे निश्चयन करेंगे?

उत्तर:  एक व्यक्ति सोचता है - ग्राम परिवार व्यवस्था में भागीदारी करेंगे.  दूसरा व्यक्ति सोचता है - विश्व परिवार व्यवस्था में भागीदारी करेंगे.  दोनों संभव है.  जिस स्तर तक जिसका भागीदारी करने का अभिलाषा होता है उसके अनुसार साधन संपन्न होना उसका आवश्यकता होता है. 

आवश्यकता की मात्रा को सबके लिए समान किया नहीं जा सकता.   प्रयोजन के अर्थ में हर परिवार की आवश्यकताएं "सीमित" हैं, लेकिन हर परिवार की आवश्यकताएं "समान" नहीं हैं.  मार्क्स यहीं फेल हुआ.  उसने नारा दिया था -"मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार भोग करे, क्षमता के अनुसार श्रम करे".  वह सफल नहीं हुआ - क्योंकि आवश्यकता का ध्रुवीकरण नहीं हुआ.  (समझदारी के बिना) किसको क्या नहीं चाहिए?  आवश्यकता का ध्रुवीकरण नहीं हुआ क्योंकि अपनी प्रयोजनीयता पता नहीं है, सदुपयोगीयता पता नहीं है, उपयोगिता पता नहीं है.

मध्यस्थ दर्शन से निकला - मनुष्य अपनी उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता को प्रमाणित करने के क्रम में समाज गति को अपनाता है.  समाजगति को अपनाने में जिसको जितना विशालता में भागीदारी करना है, उसको उतना साधन की आवश्यकता है.  उसको श्रम पूर्वक उत्पादन कर लो! 

जितना जिसका उपकार करने की अभिलाषा है, उतना साधन की मात्रा से संपन्न होने की उसकी  आवश्यकता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, December 4, 2018

मानव जाति जब कभी भी इस विकल्पात्मक प्रस्ताव को अपनाएगा तो एक बार तो पश्चात्ताप करेगा.



परिवर्तनशील वास्तविकताओं की ओर मानव का ध्यान शायद गया है.  नित्य/शाश्वत तथ्यों पर ध्यान गया नहीं है.  अध्यात्मवादियों ने इसके लिए पुरजोर कोशिश किया, पर वह लोकगम्य हुआ नहीं.  उनको उपलब्धि हुआ होता तो लोकगम्य हुआ ही होता!

अभी तक जितना मानव जाति गड़बड़ किये हैं, उसका परिणाम होगा ही.  अब पुनर्विचार करने पर मानव में मानसिक रूप में व्यथा के रूप में प्रायश्चित्त होगा ही.   यह सभी परम्पराओं के साथ होगा.  मानव जाति जब कभी भी इस विकल्पात्मक प्रस्ताव को अपनाएगा तो एक बार तो पश्चात्ताप करेगा.

मैं स्वयं उसी तरह (वेद विचार) को लेकर १० वर्ष तक पश्चात्ताप से गुजरा.  वैदिक विचार में ज्ञान को ही ब्रह्म, पवित्र, सर्वज्ञ और पूर्ण बताया.  फिर बताया ज्ञान अव्यक्त और अनिर्वचनीय है.

ज्ञान पर कौन पर्दा डाल दिया?

ज्ञान को लेकर शर्माने की क्या ज़रुरत थी?

ज्ञान को अव्यक्त रहने का क्या ज़रुरत था?

मेरे इन अड़भंगे सवालों से काफी संकट हुआ.

उसके बाद संविधान को देखा तो उसमे पाया कि राष्ट्रीय चरित्र व्याख्यायित ही नहीं है.  उस समय (१९४९-५०) मैंने वेदमूर्तियों को इकठ्ठा करके पूछा - आप इसको लिख कर दे दो!  यह सही समय है.  सुराष्ट्र के बारे में हम जो हर दिन परायण करते ही हैं - "प्रादुर्भूतो  सुराष्ट्रेस्मिन  कीर्तिमृद्धिम  ददातु  में" (श्री सूक्तं), उससे राष्ट्रीयता क्या है - यह लिख कर दे दो.  उसमे वे एक लाइन लिख कर नहीं दे पाए.  यह मेरी व्यथा का दूसरा कारण हुआ.

१० वर्ष इसको झेलने के बाद मैंने निर्णय किया - इसको अंत ही किया जाए.  या तो यह शरीर यात्रा अंत होगी या समाधान ही निकलेगा!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, December 2, 2018

साम्य ऊर्जा संपन्न होने से हर वस्तु में कार्य ऊर्जा को पहचानने का गुण है.



इकाई ऊर्जा संपन्न है, इसलिए क्रियाशील है.  व्यापक सत्ता साम्य ऊर्जा है, जिसमें संपृक्त रहने से इकाई क्रियाशील है.  इकाई के क्रियाशील होने से कार्य ऊर्जा होगा ही. 

साम्य ऊर्जा इकाई नहीं है, न यह इकाई में बंध पाता है.  पारगामी होने के आधार पर साम्य ऊर्जा इकाई में बंध नहीं पाता.  साम्य ऊर्जा इकाई में परिवर्तित नहीं होता है.  इसी आधार पर इसे साम्य ऊर्जा नाम दिया है.

अभी विज्ञान ऊर्जा को जो पहचाना है, वह कार्य ऊर्जा ही है.  विज्ञान अभी साम्य ऊर्जा को नहीं पहचाना है.  स्थिति में नित्य वर्तमान ऊर्जा को विज्ञान नहीं पहचान पाता है.  विज्ञान ने कार्य ऊर्जा को बर्बादी करने के स्वरूप में ही पहचाना है, आबादी के रूप में पहचाना नहीं है.  अभी करोड़ों आदमी विज्ञान की रोशनी में चल रहा है, यह कितना कष्टदायी बात है - आप सोच लो! 

साम्य ऊर्जा पहचान आने के बाद कार्य ऊर्जा के प्रयोजन को हम पहचान सकते हैं.  कार्य ऊर्जा का प्रयोजन है - अस्तित्व में प्रकटनशीलता.  अगली अवस्था को प्रकट करने के रूप में.  पिछली अवस्था में अगली अवस्था का भ्रूण समाया रहता है, तभी अगली अवस्था प्रकट हुई.  पदार्थावस्था ही प्राणावस्था स्वरूप में प्रकट हुई.  प्राणावस्था ही जीवावस्था स्वरूप में प्रकट हुई.  जीवावस्था ही ज्ञानावस्था के शरीर स्वरूप में प्रकट हुई. 

कार्य ऊर्जा मात्रा के साथ ही है.  हर मात्रा स्वयं में साम्य ऊर्जा संपन्न रहता ही है.  इसलिए हर मात्रा कार्य ऊर्जा को पहचानने योग्य है, हर अवस्था में. 

साम्य ऊर्जा संपन्न होने से हर वस्तु में कार्य ऊर्जा को पहचानने का गुण है.  इसके प्रमाण में हम शमशान में मुर्दा को जलाने ले जाते हैं.  मुर्दा ऊर्जा संपन्न था, इसलिए चिता की आग को पहचान लिया और उसके निर्वाह में जल गया.  दूसरा उदाहरण: चूल्हे में दाल को पकाने रखते हैं.  दाल ऊर्जा संपन्न थी, इसलिए चूल्हे की लकड़ी की कार्य ऊर्जा को पहचान लिया, और इस पहचान के निर्वाह में दाल पक गयी. 

प्रश्न:  मानव भी तो एक मात्रा है, मानव अपने व्यवहार में कार्यऊर्जा को कैसे पहचानता है?

उत्तर: मानव मानव के साथ बात करता है.  किसी बात पर नाराज होता है, किसी पर प्रसन्न होता है, किसी बात को स्वीकारता है, किसी को अस्वीकारता है.  यह कार्य ऊर्जा की ही परस्पर पहचान पूर्वक है.  साम्य ऊर्जा संपन्न होने के कारण यह सब कार्य करने की योग्यता हममे आ गयी.  साम्य ऊर्जा को समझने के लिए सहअस्तित्ववादी विधि से प्रेरणा है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Saturday, December 1, 2018

नियम - नियंत्रण - संतुलन



समग्रता के साथ ही अस्तित्व साक्षात्कार होता है.  पूरा अस्तित्व सहअस्तित्व स्वरूप में साक्षात्कार होना, फिर उसके विस्तार में चारों अवस्थाओं के स्वरूप में व्यवस्था का साक्षात्कार होना.

मानव नियति विधि से चारों अवस्थाओं के शाश्वत अंतर्संबंधों को पहचानता है और कार्य-व्यव्हार विधि से उनसे अपने सम्बन्ध को पहचानता है, और प्रमाणित करता है.

पदार्थावस्था से ज्ञानावस्था तक जो प्रकटन हुआ है, उसमे शाश्वत अंतर्संबंध हैं.  अध्ययन = इन शाश्वत अंतर्संबंधों को पहचानना और उसके अनुसार अपने आचरण (उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता) को निर्धारित कर लेना.

अध्ययन विधि में क्रम से साक्षात्कार होता है.  अनुक्रम से यह पूरा समझ में आता है.  अनुक्रम का अर्थ है - मानव के साथ जीव संसार, वनस्पति संसार, पदार्थ संसार कैसा अनुप्राणित है, इसको समझना.  सबके साथ हम जो जुड़े हैं, इन जुड़ी हुई कड़ियों (अंतर्संबंधों) को पहचान लेना.  इन कड़ियों (अंतर्संबंधों) को पहचानने के बाद निर्वाह कर लेना ही "सम्बन्ध" है.  इससे मानवेत्तर प्रकृति के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन और मानव के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित होगा.  प्रयोजन सिद्ध होगा, निरंतरता बनी रहेगी.  मानव अपराध मुक्त हो कर जी पायेगा, धरती को तंग करने की आवश्यकता समाप्त होगी, धरती के अपने में सुधरने का अवसर बनेगा, मानव जाति के शाश्वत स्वरूप में धरती पर रहने की संभावना उदय होगी.  इसको हम "सर्वशुभ" मानते हैं.  सर्वशुभ का वैभव यह है.  सर्वशुभ को काट कर स्वशुभ को प्रमाणित करना बनता ही नहीं है.  आज तक किसी ने भी इसको प्रमाणित नहीं किया.

सहअस्तित्व में तदाकार होने पर उसी स्वरूप में मानव जीने के योग्य हो जाता है, प्रमाणित हो जाता है.  सहअस्तित्व में तदाकार होने पर वस्तु के आचरण के साथ तदाकार होकर नियम को पहचानते हैं.  आचरण की निरंतरता में तदाकार हो कर नियंत्रण को पहचानते हैं.  आचरण की निरंतरता ही परंपरा स्वरूप में होती है.  उपयोगिता-पूरकता में तदाकार होने पर संतुलन को पहचानते हैं.  जैसे - दो अंश का परमाणु एक निश्चित आचरण को करता है.  दो अंश के सभी परमाणु उसी आचरण को करते हैं, जो परिणामानुषंगी परंपरा के स्वरूप में नियंत्रित है.  इसी तरह हरेक वस्तु में एक के साथ आचरण और परंपरा स्वरूप में आचरण की निरंतरता है.

पदार्थावस्था में परिणाम अनुषंगी परंपरा है, जिसमे कोई व्यतिरेक नहीं है.  प्राणावस्था में बीजानुषंगी परंपरा है, जिसमे कोई व्यतिरेक नहीं है.  जीवावस्था में वंशानुशंगी परंपरा है, जिसमे कोई व्यतिरेक नहीं है.  मानव तक पहुंचे तो मानव का पता ही नहीं है कि उसका नियंत्रण कैसे होगा?  एक-एक आदमी हज़ारों समस्याओं का पुलिंदा है!  सहअस्तित्व विधि से पता चला न्याय पूर्वक मानव का निश्चित आचरण है.  समाधान (धर्म) पूर्वक नियंत्रण है.  सत्य पूर्वक संतुलन है.  मानव में - न्याय ही नियम है, धर्म ही नियंत्रण है, सत्य ही संतुलन है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)