"नित्य-अनित्य ज्ञान के बिना मानव में स्व-धर्म निष्ठा नहीं पायी जाती है." - श्री ए नागराज
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Tuesday, December 15, 2015
Monday, November 9, 2015
ज्ञान, विवेक, विज्ञान
जागृत मानव ज्ञान, विवेक और विज्ञान को अपने जीने में प्रमाणित करता है.
ज्ञान मानव में वास्तविकता या अस्तित्व की स्वीकृति के स्वरूप में होता है. दो तरह की वस्तुएँ हैं - सत्ता और प्रकृति। सत्ता और प्रकृति के सह-अस्तित्व (सम्पृक्तता) के ज्ञान को 'सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान" कहा है. यह ज्ञानगोचर ही है. इसमें इन्द्रियों से कुछ दिखने, सूंघने, चखने, छूने, सुनने की कोई बात नहीं है. यह केवल (भास, आभास, और प्रतीत होकर) अनुभव में आने वाली बात है. दूसरे चैतन्य वस्तु के स्वरूप का ज्ञान - या "जीवन ज्ञान"। जीवन को भी इन्द्रियों से देखा नहीं जा सकता, यह केवल ज्ञानगोचर वस्तु है, उसके ज्ञान की केवल स्वीकृति होती है. तीसरे, मानव के निश्चित आचरण के स्वरूप का ज्ञान - या "मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान"। मानवीयता पूर्ण आचरण इन्द्रियगोचर भी है और ज्ञानगोचर भी है. व्यवहार, चरित्र, सदुपयोग-सुरक्षा सम्बन्धी कार्यकलाप और व्यवस्था में भागीदारी इन्द्रियगोचर भी है, जिसको हम संवेदनाओं से भी पहचान सकते हैं. किन्तु "मानव का निश्चित आचरण" अस्तित्व में एक वास्तविकता है, इसकी केवल स्वीकृति या अनुभव ही होता है.
विवेक मानव में निश्चयन के स्वरूप में होता है. ज्ञान के आधार पर विवेचना होती है - क्या वस्तु नश्वर है, क्या वस्तु अमर है, और किस प्रकार जीने से ताल-मेल (समाधान) रहता है और किस प्रकार जीने से समस्या आती है. यह विवेचना ज्ञान को मानव द्वारा अपने जीने के लिए स्वीकारने के अर्थ में होती है. मेरे जीने में क्या "सही" है और क्या "गलत" है, यह निश्चयन हो जाना ही विवेक है. ज्ञान में अनुभव के बिना विवेक नहीं होता। विवेक का स्वरूप है - जीवन का अमरत्व, शरीर का नश्वरत्व, और व्यवहार के नियम।
विज्ञान मानव के कार्य और व्यवहार में आता है. विवेक में जो सही के प्रति निश्चयन हुआ, उसको क्रियान्वित करने के लिए विज्ञान है. विज्ञान इस तरह देश-काल, प्रक्रिया और निर्णय लेने से सम्बंधित है. क्रियान्वित करने में समय का ज्ञान आवश्यक है - जिसको कहा "काल वादी ज्ञान". कार्य और व्यवहार अन्य मानवों और मनुष्येत्तर संसार की परस्परता में ही होता है. इसलिए भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया तथा इनके अंतर-संबंधों के प्रति स्पष्ट होना आवश्यक है - इसको "क्रिया वादी ज्ञान" कहा. मानव के जीने का मतलब सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना है, और उसमें हर क्षण निर्णय लेने की आवश्यकता है, क्योंकि जीने में हर क्षण अनेक विकल्प होते हैं, और उनमे से एक को करने का निर्णय लेना आवश्यक है - इसीको "निर्णय वादी ज्ञान" कहा.
काल वादी, क्रिया वादी और निर्णय वादी ज्ञान को जागृत मानव कारण-गुण-गणित विधि से अपने जीने में प्रमाणित करता है. कारण क्रिया की पृष्ठ-भूमि होती है. कोई भी क्रिया क्यों हो रही है या हुई, वह उसका कारण होता है. क्रिया और कारण अविभाज्य होता है. कारण क्रिया से अलग नहीं होता। जैसे - बीज का अंकुरित होना क्रिया है, उसका कारण उस बीज के स्वरूप में ही समाहित है. मानव का जागृत होना एक क्रिया है, यह मानव के स्वरूप में ही समाहित है. कारण ही धर्म है.
हर क्रिया का कुछ प्रभाव होता है. प्रभाव को ही गुण कहा है. क्रियाओं के परस्पर प्रभाव से वातावरण बनता है. वातावरण की अनुकूलता होने पर क्रिया में स्फुरण होता है. जैसे - बीज में अंकुरण होने का कारण होते हुए भी, जब तक उसका वातावरण उगने के अनुकूल नहीं बनता, तब तक उसमें अंकुरण प्रक्रिया नहीं शुरू होती। मानव में जागृति का कारण होते हुए भी, जब तक अध्ययन/शिक्षा या मानवीय परंपरा का वातावरण उसको उपलब्ध नहीं होता, उसमें साक्षात्कार पूर्वक बोध होने की शुरुआत नहीं होती।
हर क्रिया का फल-परिणाम होता है. कुछ फल-परिणाम को गिना भी जा सकता है. जैसे - एक वृक्ष में कितने फल लगे, उन फलों से कितने बीज मिले, उन बीजों से कितने नए पौधे बने - इसको गिना जा सकता है. गणित या गणना की कार्य और व्यवहार में आवश्यकता है. समय, लम्बाई, ताप, भार आदि को नापना होता है. इसको सूक्ष्म (micro) और स्थूल (macro) दोनों स्तरों पर किया जाता है.
इस तरह जागृत मानव में ज्ञान स्वीकृति के स्तर पर, विवेक निश्चयन के स्तर पर और विज्ञान कार्य-व्यवहार के स्तर पर प्रमाणित होता है. ये तीनों एक साथ होते हैं. "विवेक सम्मत विज्ञान" और "विज्ञान सम्मत विवेक" होने के लिए ज्ञान होना आवश्यक है. विवेक विज्ञान के साथ "व्यवहार के नियम" के साथ जुड़ता है. विज्ञान विवेक के साथ "निर्णयवादी ज्ञान" के साथ जुड़ता है. ज्ञान विवेक के साथ "मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान" के आधार पर जुड़ता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Monday, October 26, 2015
Sunday, August 2, 2015
Saturday, July 18, 2015
स्वानुशासन
समाधान के इस प्रस्ताव में तर्क द्वारा छेद करने की कोई जगह नहीं है. समस्या की हर बात में छेद रहता ही है. तर्क का प्रतितर्क देने से समाधान नहीं होता। समाधान से तर्क संतुष्ट होता है. समाधान के आगे तर्क करने की ताकत ही समाप्त हो जाता है. प्रमाण सामने हो, अनुभव सामने हो तो फिर उससे क्या तर्क करेंगे? मैं स्वयं अनुभव संपन्न हो कर समाधान-समृद्धि का प्रमाण हूँ. समाधान के साथ तर्क होता ही नहीं है, कुतर्क भी नहीं होता.
अवधारणा होते तक तर्क है, अवधारणा के बाद कोई तर्क नहीं है. तर्क पुरुषार्थ के साथ है, वहाँ उसका प्रयोग होना भी चाहिए। किन्तु पुरुषार्थ के बाद परमार्थ में तर्क का प्रयोग नहीं है. परमार्थ में पुरुषार्थ विलय होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ में समावेश होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ का समर्थन देता ही है. यह नियम है, नियति-सम्मत है.
मानव जब से इस धरती पर प्रकट हुआ तभी से न्याय को स्वयंस्फूर्त चाहता है. न्याय की चाहत मानव में आदि काल से है, पर उसको न्याय मिला नहीं। मानव को न्याय मिला नहीं पर उसकी चाहना उसमें बरकरार रही. यह कैसे हो गया? आप भी न्याय चाहते हैं, मैं भी न्याय चाहता हूँ. चाहने में हम एक समान हैं. अब मैं जो पाया हूँ, उसको न्याय माना जाए तो उसको अनुकरण किया जा सकता है, फिर प्रमाणित करके देखा जा सकता है. अनुकरण करने पर प्रमाणित करने की इच्छा होता ही है. प्रमाणित करने पर परंपरा बनेगी। परंपरा की फिर पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतरता होती है. परंपरा के रूप में स्थापित हो जाना एक सौभाग्यशाली स्थिति होती है. न्याय के इस प्रस्ताव में कोई कमी हो तो बताओ? यदि कमी नहीं है तो प्रभावशील होने की बात है. उसके लिए एक व्यक्ति से शुरुआत हुई, उससे १००-२०० व्यक्ति प्रभावित हुए, आगे कैसे होगा इसको देखते हैं! प्रभावित होने का मतलब है, उसको समझने और प्रमाणित करने के लिए सही दिशा में प्रयत्नशील होना।
प्रश्न: न्याय के लिए हमारा प्रयत्नशील होना स्वयंस्फूर्त है या प्रभाववश है - इसको कैसे पहचानें?
उत्तर: न्याय की चाहत आपमें (हर मानव में) स्वयंस्फूर्त है. अध्ययन विधि से न्याय की प्रेरणा है. अध्ययन विधि से जागृति की ओर बढ़ते हुए पहला घाट है - साक्षात्कार। दूसरा घाट है - बोध. तीसरा घाट है -अनुभव। अनुभव फिर प्रमाण का स्त्रोत होता है. प्रमाण का फिर पुनः बोध, फिर चिंतन-चित्रण, फिर तुलन-विश्लेषण, फिर आस्वादन और चयन. अनुभवमूलक विधि से, इस प्रकार मानव के जीने में न्याय स्वयंस्फूर्त हो जाता है. इसको जितना भी चाहे मानव विश्लेषण कर सकता है, दूसरों को समझा सकता है. मानव समझदार होने के बाद उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनशीलता विधि से स्वानुशासित होता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसंबर २००९, अमरकंटक)
अवधारणा होते तक तर्क है, अवधारणा के बाद कोई तर्क नहीं है. तर्क पुरुषार्थ के साथ है, वहाँ उसका प्रयोग होना भी चाहिए। किन्तु पुरुषार्थ के बाद परमार्थ में तर्क का प्रयोग नहीं है. परमार्थ में पुरुषार्थ विलय होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ में समावेश होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ का समर्थन देता ही है. यह नियम है, नियति-सम्मत है.
मानव जब से इस धरती पर प्रकट हुआ तभी से न्याय को स्वयंस्फूर्त चाहता है. न्याय की चाहत मानव में आदि काल से है, पर उसको न्याय मिला नहीं। मानव को न्याय मिला नहीं पर उसकी चाहना उसमें बरकरार रही. यह कैसे हो गया? आप भी न्याय चाहते हैं, मैं भी न्याय चाहता हूँ. चाहने में हम एक समान हैं. अब मैं जो पाया हूँ, उसको न्याय माना जाए तो उसको अनुकरण किया जा सकता है, फिर प्रमाणित करके देखा जा सकता है. अनुकरण करने पर प्रमाणित करने की इच्छा होता ही है. प्रमाणित करने पर परंपरा बनेगी। परंपरा की फिर पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतरता होती है. परंपरा के रूप में स्थापित हो जाना एक सौभाग्यशाली स्थिति होती है. न्याय के इस प्रस्ताव में कोई कमी हो तो बताओ? यदि कमी नहीं है तो प्रभावशील होने की बात है. उसके लिए एक व्यक्ति से शुरुआत हुई, उससे १००-२०० व्यक्ति प्रभावित हुए, आगे कैसे होगा इसको देखते हैं! प्रभावित होने का मतलब है, उसको समझने और प्रमाणित करने के लिए सही दिशा में प्रयत्नशील होना।
प्रश्न: न्याय के लिए हमारा प्रयत्नशील होना स्वयंस्फूर्त है या प्रभाववश है - इसको कैसे पहचानें?
उत्तर: न्याय की चाहत आपमें (हर मानव में) स्वयंस्फूर्त है. अध्ययन विधि से न्याय की प्रेरणा है. अध्ययन विधि से जागृति की ओर बढ़ते हुए पहला घाट है - साक्षात्कार। दूसरा घाट है - बोध. तीसरा घाट है -अनुभव। अनुभव फिर प्रमाण का स्त्रोत होता है. प्रमाण का फिर पुनः बोध, फिर चिंतन-चित्रण, फिर तुलन-विश्लेषण, फिर आस्वादन और चयन. अनुभवमूलक विधि से, इस प्रकार मानव के जीने में न्याय स्वयंस्फूर्त हो जाता है. इसको जितना भी चाहे मानव विश्लेषण कर सकता है, दूसरों को समझा सकता है. मानव समझदार होने के बाद उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनशीलता विधि से स्वानुशासित होता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसंबर २००९, अमरकंटक)
Wednesday, July 15, 2015
Monday, June 1, 2015
Saturday, April 18, 2015
ऊर्जा और क्रिया
प्रश्न: ऊर्जा और क्रिया का क्या सम्बन्ध है?
उत्तर: सत्ता साम्य ऊर्जा है, जिसमे सम्पृक्त होने से इकाइयां ऊर्जा-संपन्न हैं. ऊर्जा-संपन्न होने से क्रियाशीलता है. क्रियाशीलता का प्रभाव कार्य-ऊर्जा है. प्रभाव के आधार पर ही फल-परिणाम होता है. प्रभाव से ही सृजन, विसर्जन और विभव क्रियाएँ संपन्न होती हैं.
- श्री ए नागराज की डायरी से (एक पत्र का उत्तर देने के क्रम में - १५-०५-२००७, अमरकंटक)
Friday, April 17, 2015
भाव, पूरकता और पहचान
प्रश्न: "अस्तित्व स्वयं सम्पूर्ण भाव होने के कारण प्रत्येक इकाई में भाव-सम्पन्नता देखने को मिलती है. मूलतः सहअस्तित्व ही परम भाव होने के कारण अस्तित्व ही परम धर्म हुआ." यहाँ भाव और सम्पूर्ण भाव से क्या आशय है?
उत्तर: सूत्र रूप में :- भाव = मौलिकता = स्वभाव
अस्तित्व में व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तु होने के कारण उसे "सम्पूर्ण भाव" कहा गया. व्यापक वस्तु नित्य पारगामी, पारदर्शी भाव संपन्न है. एक-एक वस्तु चार अवस्थाओं में अपनी अवस्थाओं के अनुसार भाव (स्वभाव) संपन्न है. पदार्थावस्था में संगठन-विघटन स्वभाव, प्राणावस्था में सारक-मारक स्वभाव, जीवावस्था में क्रूर-अक्रूर स्वभाव, ज्ञानावस्था में धीरता-वीरता-उदारता दया-कृपा-करुणा स्वभाव।
स्वभाव गति से पूरकता सिद्ध होती है.
प्रश्न: "स्वभाव हर इकाई में मूल्यों के रूप में वर्तता है"
"मूल्य प्रत्येक इकाई में स्थिर होता है" - यहाँ वर्तने और स्थिरता से क्या आशय है?
उत्तर: वर्तने का मतलब है - वर्तमान रहना।
स्थिरता का मतलब है - निरंतर रहना।
प्रश्न: "अस्तित्व सहअस्तित्व होने के कारण पूरकता और पहचान नित्य सिद्ध होती है." पूरकता और पहचान से क्या आशय है?
उत्तर: प्रत्येक एक (इकाई) प्रकाशमान है. प्रकाशित होने का अर्थ है - स्वयं का पहचान प्रस्तुत करना।
दो परमाणु-अंशों के बीच पहचान होता है तभी परमाणु निश्चित आचरण या व्यवस्था स्वरूप में कार्य करते हुए देखने को मिलता है. इस तरह परमाणु अंशों में परस्पर पहचान निश्चित आचरण या व्यवस्था के लिए पूरक हुआ.
इसके उपरान्त, व्यवस्थित परमाणुओं की परस्परता में विकास-क्रम और विकास के रूप में पहचान और पूरकता होना पाया गया. विकास (गठन-पूर्णता) पहचान और पूरकता के आधार पर ही घटित होना पाया जाता है.
इसी क्रम में मानव अपने मानवत्व के साथ पहचान होने के उपरान्त परस्परता में पूरकता प्रमाणित होना देखा जाता है.
- श्री ए नागराज की डायरी से (एक पत्र का उत्तर देने के क्रम में - १५-०५-२००७, अमरकंटक)
उत्तर: सूत्र रूप में :- भाव = मौलिकता = स्वभाव
अस्तित्व में व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तु होने के कारण उसे "सम्पूर्ण भाव" कहा गया. व्यापक वस्तु नित्य पारगामी, पारदर्शी भाव संपन्न है. एक-एक वस्तु चार अवस्थाओं में अपनी अवस्थाओं के अनुसार भाव (स्वभाव) संपन्न है. पदार्थावस्था में संगठन-विघटन स्वभाव, प्राणावस्था में सारक-मारक स्वभाव, जीवावस्था में क्रूर-अक्रूर स्वभाव, ज्ञानावस्था में धीरता-वीरता-उदारता दया-कृपा-करुणा स्वभाव।
स्वभाव गति से पूरकता सिद्ध होती है.
प्रश्न: "स्वभाव हर इकाई में मूल्यों के रूप में वर्तता है"
"मूल्य प्रत्येक इकाई में स्थिर होता है" - यहाँ वर्तने और स्थिरता से क्या आशय है?
उत्तर: वर्तने का मतलब है - वर्तमान रहना।
स्थिरता का मतलब है - निरंतर रहना।
प्रश्न: "अस्तित्व सहअस्तित्व होने के कारण पूरकता और पहचान नित्य सिद्ध होती है." पूरकता और पहचान से क्या आशय है?
उत्तर: प्रत्येक एक (इकाई) प्रकाशमान है. प्रकाशित होने का अर्थ है - स्वयं का पहचान प्रस्तुत करना।
दो परमाणु-अंशों के बीच पहचान होता है तभी परमाणु निश्चित आचरण या व्यवस्था स्वरूप में कार्य करते हुए देखने को मिलता है. इस तरह परमाणु अंशों में परस्पर पहचान निश्चित आचरण या व्यवस्था के लिए पूरक हुआ.
इसके उपरान्त, व्यवस्थित परमाणुओं की परस्परता में विकास-क्रम और विकास के रूप में पहचान और पूरकता होना पाया गया. विकास (गठन-पूर्णता) पहचान और पूरकता के आधार पर ही घटित होना पाया जाता है.
इसी क्रम में मानव अपने मानवत्व के साथ पहचान होने के उपरान्त परस्परता में पूरकता प्रमाणित होना देखा जाता है.
- श्री ए नागराज की डायरी से (एक पत्र का उत्तर देने के क्रम में - १५-०५-२००७, अमरकंटक)
Wednesday, April 8, 2015
नौकरी की औचित्यता
प्रश्न: स्वावलंबन के लिए नौकरी करना क्या उचित है?
उत्तर: जागृत मानव परंपरा में नौकरी का स्थान शून्य है. भ्रमित मानव परंपरा में नौकरी के लिए स्वीकृति न्यूनतम श्रम, जिम्मेदारी से अधिकतम दूर रहने, और अधिकतम सुविधा-संग्रह के आधार पर होता आया है. अभी की स्थिति में जिम्मेदारी से मुक्त सुविधा संपन्न होने की अपेक्षा रखने वालों की संख्या में वृद्धि हो गयी है. इसी कारणवश सर्वाधिक समस्याएं देखने को मिल रहा है.
स्वावलम्बन परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिम्मेदारी का वहन है. परिवार की जिम्मेदारी वहन करने का प्रमाण सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के साथ समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करना है. परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना ही समृद्धि का स्त्रोत है. इस पर गंभीरता से सोच-विचार करके आचरण करने की आवश्यकता है.
- श्री ए. नागराज की डायरी से (एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में, १९ जुलाई २००१)
उत्तर: जागृत मानव परंपरा में नौकरी का स्थान शून्य है. भ्रमित मानव परंपरा में नौकरी के लिए स्वीकृति न्यूनतम श्रम, जिम्मेदारी से अधिकतम दूर रहने, और अधिकतम सुविधा-संग्रह के आधार पर होता आया है. अभी की स्थिति में जिम्मेदारी से मुक्त सुविधा संपन्न होने की अपेक्षा रखने वालों की संख्या में वृद्धि हो गयी है. इसी कारणवश सर्वाधिक समस्याएं देखने को मिल रहा है.
स्वावलम्बन परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिम्मेदारी का वहन है. परिवार की जिम्मेदारी वहन करने का प्रमाण सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के साथ समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करना है. परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना ही समृद्धि का स्त्रोत है. इस पर गंभीरता से सोच-विचार करके आचरण करने की आवश्यकता है.
- श्री ए. नागराज की डायरी से (एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में, १९ जुलाई २००१)
Monday, April 6, 2015
देश-काल की सीमा
प्रश्न: आप कहते हैं - "चैतन्य जड़ से बना नहीं है, विकसित हुआ है". आपने यह भी कहा है - "जड़ परमाणु चैतन्य पद में संक्रमित हो जाता है". लेकिन आप यह भी कहते हैं - "जड़ और चैतन्य दोनों हमेशा-हमेशा से थे, हमेशा रहेंगे". इसको समझाइये।
उत्तर: मानव व्यवहार दर्शन में जड़ और चैतन्य की चर्चा करते हुए परमाणु में विकास के नाम से अवधारणाओं को प्रस्तुत किया है. उसमें इस बात को स्पष्ट किया है कि विकास-क्रम और विकास मानव को समझ में आता है. विकसित परमाणु के अर्थ में जीवन क्रियाकलाप प्रमाणित है. विकासक्रम में भौतिक-रासायनिक क्रियाकलाप प्रमाणित है. जड़ कब और कैसे चैतन्य होता है? - इस प्रश्न का उत्तर देश और काल की सीमा में आता नहीं है. हम जो "है" उसका अध्ययन करते हैं. विकास-क्रम है. विकास है. विकास-क्रम और विकास को जोड़ कर देखने से पता लगता है, और हम कह सकते हैं कि जड़ ही चैतन्य हुआ है. गठन-पूर्णता की यह घटना विकास पूर्वक ही घटित रहना पाया जाता है.
यह सुनकर विकास को घटित कराने के लिए मानव में प्रवृत्ति होती ही है. इसके लिए पुनः प्रयोग विधि ही सामने आती है. प्रयोग विधि देश-काल की सीमा में होती है. प्रयोग के लिए आपके पास जो साधन हैं, वे यंत्र ही हैं. जो जिससे बना होता है, वह उससे अधिक होता नहीं है. मानव जितने भी यंत्र बना पाया है, वे भौतिक संसार से ही बने हैं. प्राण-संसार के साथ जो प्रयोग हुए हैं, उनका बीज रूप वनस्पति संसार से ही प्राप्त रहना देखा गया है. प्रयोग विधि से विकास (गठनपूर्णता) को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
दूसरे, इस सच्चाई को भी देखा गया है कि अस्तित्व की व्याख्या देश-काल की सीमाओं में हो नहीं पाती। अस्तित्व की व्याख्या सर्व-देश और सर्व-काल के आधार पर ही है. देश और काल के आधार पर घटना को पहचानने के क्रम में किसी वस्तु का सच्चाई समझ नहीं आती. सर्व-देश सर्व-काल के आधार पर सम्पूर्ण वस्तुओं का सच्चाई समझ में आता है. इस विधि से हम इस निष्कर्ष में आते हैं कि विकास, विकास-क्रम से संक्रमण पूर्वक जुड़ा हुआ है. यह कब जुड़ा? यह प्रश्न देश-काल बाधित है. अतएव इस मुद्दे को अस्तित्व सहज नित्य वर्तमान परक सत्य के रूप में स्वीकारना ठीक होगा।
- श्री ए नागराज की डायरी से, एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में (१५ मई २००१, अमरकंटक)
उत्तर: मानव व्यवहार दर्शन में जड़ और चैतन्य की चर्चा करते हुए परमाणु में विकास के नाम से अवधारणाओं को प्रस्तुत किया है. उसमें इस बात को स्पष्ट किया है कि विकास-क्रम और विकास मानव को समझ में आता है. विकसित परमाणु के अर्थ में जीवन क्रियाकलाप प्रमाणित है. विकासक्रम में भौतिक-रासायनिक क्रियाकलाप प्रमाणित है. जड़ कब और कैसे चैतन्य होता है? - इस प्रश्न का उत्तर देश और काल की सीमा में आता नहीं है. हम जो "है" उसका अध्ययन करते हैं. विकास-क्रम है. विकास है. विकास-क्रम और विकास को जोड़ कर देखने से पता लगता है, और हम कह सकते हैं कि जड़ ही चैतन्य हुआ है. गठन-पूर्णता की यह घटना विकास पूर्वक ही घटित रहना पाया जाता है.
यह सुनकर विकास को घटित कराने के लिए मानव में प्रवृत्ति होती ही है. इसके लिए पुनः प्रयोग विधि ही सामने आती है. प्रयोग विधि देश-काल की सीमा में होती है. प्रयोग के लिए आपके पास जो साधन हैं, वे यंत्र ही हैं. जो जिससे बना होता है, वह उससे अधिक होता नहीं है. मानव जितने भी यंत्र बना पाया है, वे भौतिक संसार से ही बने हैं. प्राण-संसार के साथ जो प्रयोग हुए हैं, उनका बीज रूप वनस्पति संसार से ही प्राप्त रहना देखा गया है. प्रयोग विधि से विकास (गठनपूर्णता) को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
दूसरे, इस सच्चाई को भी देखा गया है कि अस्तित्व की व्याख्या देश-काल की सीमाओं में हो नहीं पाती। अस्तित्व की व्याख्या सर्व-देश और सर्व-काल के आधार पर ही है. देश और काल के आधार पर घटना को पहचानने के क्रम में किसी वस्तु का सच्चाई समझ नहीं आती. सर्व-देश सर्व-काल के आधार पर सम्पूर्ण वस्तुओं का सच्चाई समझ में आता है. इस विधि से हम इस निष्कर्ष में आते हैं कि विकास, विकास-क्रम से संक्रमण पूर्वक जुड़ा हुआ है. यह कब जुड़ा? यह प्रश्न देश-काल बाधित है. अतएव इस मुद्दे को अस्तित्व सहज नित्य वर्तमान परक सत्य के रूप में स्वीकारना ठीक होगा।
- श्री ए नागराज की डायरी से, एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में (१५ मई २००१, अमरकंटक)
चैतन्य पद प्रतिष्ठा
प्रश्न: चैतन्य पद प्रतिष्ठा क्या है?
उत्तर: जड़ प्रकृति परिणामशील है. हर परिणाम पद अपने में एक यथास्थिति एवं व्यवस्था है. गठनपूर्ण परमाणु के रूप में परमाणु संक्रमित हुआ रहता है, इसे हम चैतन्य पद कह रहे हैं. इसके साथ जो प्रतिष्ठा जुडी हुई है वह चैतन्य पद की अक्षुण्णता के अर्थ में है. एक बार चैतन्य पद में संक्रमित होता है, उसके बाद जड़ पद में वापस लौटता नहीं है. यह भी स्पष्ट किया है कि चैतन्य परमाणु भार-बंधन और अणु-बंधन से मुक्त रहता है. जीवन जीने की आशा पूर्वक एक पुन्जाकार कार्य गति पथ को प्रभाव क्षेत्र के रूप में स्थापित करके उस आकार के प्राण कोशाओं से रचित शरीर को स्वयं स्फूर्त संचालित करता है. जीवन भ्रम वश अपने पुन्जाकार के अनुरूप शरीर को पाकर स्वयं को जीता हुआ मान लेता है, और जब वह शरीर छूट जाता है तो स्वयं को मरा हुआ मान लेता है.
जीवन का स्वयं को शरीर मान लेना ही भ्रम का स्वरूप है. मानव परंपरा में शनैः शनैः यह भ्रम आशा बंधन से विचार बंधन, विचार बंधन से इच्छा बंधन होता हुआ आंकलित होता है. इस भ्रम-बंधन से मुक्ति पाना ही मोक्ष है. इसीलिये जीवन में, से, के लिए जीवन ज्ञान की आवश्यकता महसूस की गयी. चैतन्य संसार को अध्ययन गम्य, बोध गम्य कराने के क्रम में चैतन्य पद एवं प्रतिष्ठा को सूत्रित एवं व्याख्यायित किया है.
प्रश्न: परावर्तन और प्रत्यावर्तन को जीवन के सन्दर्भ में समझाएं?
उत्तर: जीवन गति = परावर्तन, जीवन गति के प्रभाव क्षेत्र व्यापी फल-परिणामों को मूल्यांकित करना और स्वीकारना = प्रत्यावर्तन
इसे प्रत्येक व्यक्ति सदा-सदा करता ही रहता है. इसे आप भी निरीक्षण-परीक्षण कर सकते हैं.
जीवन सहज परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया विधि से मानव अध्ययन, शोध व अनुसंधान करने में सफल होता आया है. कुछ भागों में सफल होना अभी शेष है. जैसे - जीवन गति (या परावर्तन) के संवेदनशीलता सीमा में अनुकूलता-प्रतिकूलता का मूल्यांकन करने में (या प्रत्यावर्तन में) मानव सफल हुआ है, जिसका अध्ययन सुलभ हुआ है, जो आहार-आवास-अलंकार और दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण सम्बन्धी वस्तुओं को प्राप्त कर लेने की सीमा में दृष्टव्य है. इस तरह मनाकार को साकार करने में जीवन सहज परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया विधि से मानव सफल हुआ है.
मनः स्वस्थता को परावर्तन-प्रत्यावर्तन पूर्वक प्रमाणित करने में मानव असफल रहा है. इस रिक्तता को भरने के लिए संज्ञानीयता (सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ) हेतु आवश्यकीय अध्ययन के सन्दर्भ में मध्यस्थ दर्शन प्रस्तुत हुआ है. इसे प्रत्येक मानव को अध्ययन करना ही होगा।
- श्री ए नागराज की डायरी से, एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में (२८ अप्रैल २००१, अमरकंटक)
उत्तर: जड़ प्रकृति परिणामशील है. हर परिणाम पद अपने में एक यथास्थिति एवं व्यवस्था है. गठनपूर्ण परमाणु के रूप में परमाणु संक्रमित हुआ रहता है, इसे हम चैतन्य पद कह रहे हैं. इसके साथ जो प्रतिष्ठा जुडी हुई है वह चैतन्य पद की अक्षुण्णता के अर्थ में है. एक बार चैतन्य पद में संक्रमित होता है, उसके बाद जड़ पद में वापस लौटता नहीं है. यह भी स्पष्ट किया है कि चैतन्य परमाणु भार-बंधन और अणु-बंधन से मुक्त रहता है. जीवन जीने की आशा पूर्वक एक पुन्जाकार कार्य गति पथ को प्रभाव क्षेत्र के रूप में स्थापित करके उस आकार के प्राण कोशाओं से रचित शरीर को स्वयं स्फूर्त संचालित करता है. जीवन भ्रम वश अपने पुन्जाकार के अनुरूप शरीर को पाकर स्वयं को जीता हुआ मान लेता है, और जब वह शरीर छूट जाता है तो स्वयं को मरा हुआ मान लेता है.
जीवन का स्वयं को शरीर मान लेना ही भ्रम का स्वरूप है. मानव परंपरा में शनैः शनैः यह भ्रम आशा बंधन से विचार बंधन, विचार बंधन से इच्छा बंधन होता हुआ आंकलित होता है. इस भ्रम-बंधन से मुक्ति पाना ही मोक्ष है. इसीलिये जीवन में, से, के लिए जीवन ज्ञान की आवश्यकता महसूस की गयी. चैतन्य संसार को अध्ययन गम्य, बोध गम्य कराने के क्रम में चैतन्य पद एवं प्रतिष्ठा को सूत्रित एवं व्याख्यायित किया है.
प्रश्न: परावर्तन और प्रत्यावर्तन को जीवन के सन्दर्भ में समझाएं?
उत्तर: जीवन गति = परावर्तन, जीवन गति के प्रभाव क्षेत्र व्यापी फल-परिणामों को मूल्यांकित करना और स्वीकारना = प्रत्यावर्तन
इसे प्रत्येक व्यक्ति सदा-सदा करता ही रहता है. इसे आप भी निरीक्षण-परीक्षण कर सकते हैं.
जीवन सहज परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया विधि से मानव अध्ययन, शोध व अनुसंधान करने में सफल होता आया है. कुछ भागों में सफल होना अभी शेष है. जैसे - जीवन गति (या परावर्तन) के संवेदनशीलता सीमा में अनुकूलता-प्रतिकूलता का मूल्यांकन करने में (या प्रत्यावर्तन में) मानव सफल हुआ है, जिसका अध्ययन सुलभ हुआ है, जो आहार-आवास-अलंकार और दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण सम्बन्धी वस्तुओं को प्राप्त कर लेने की सीमा में दृष्टव्य है. इस तरह मनाकार को साकार करने में जीवन सहज परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया विधि से मानव सफल हुआ है.
मनः स्वस्थता को परावर्तन-प्रत्यावर्तन पूर्वक प्रमाणित करने में मानव असफल रहा है. इस रिक्तता को भरने के लिए संज्ञानीयता (सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ) हेतु आवश्यकीय अध्ययन के सन्दर्भ में मध्यस्थ दर्शन प्रस्तुत हुआ है. इसे प्रत्येक मानव को अध्ययन करना ही होगा।
- श्री ए नागराज की डायरी से, एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में (२८ अप्रैल २००१, अमरकंटक)
Sunday, March 29, 2015
जीवन कार्यकलाप
प्रत्येक जीवन एक अनुस्यूत क्रिया है. जीवन में मनन, विचार, इच्छा, बोध एवं अनुभव अविभाज्य और अनिवार्य क्रियाएँ हैं.
मन - मनन क्रिया
मनन क्रिया मान्यताओं पर आधारित जीवन गति है.
मनन सीमावर्ती मान्यताएं चयन और आस्वादन के रूप में गण्य होती हैं. चयन क्रियाएँ अधिकांशतः रूचिमूलक होती हैं, और रुचियाँ सर्वाधिक इन्द्रिय सन्निकर्ष पूर्वक ही प्रमाणित हो पाती हैं. इन्द्रिय-सन्निकर्ष = इन्द्रियों के योग वियोग में होने वाले प्रभाव व स्वीकृतियां। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के अनुकूल अर्थात "अच्छा लगने" वाले योग, संयोग, वियोगात्मक मान्यताएं चयन और आस्वादन के रूप में व्यक्त, सम्प्रेषित व प्रकाशित होती हैं। शरीर को जीवन समझते पर्यन्त जीवन की सम्पूर्ण शक्तियां इन्द्रिय सन्निकर्ष के अर्थ में कार्यरत पायी जाती हैं. यही भ्रम का मूल कारण है. भ्रम का अर्थ है - अस्तित्व में नियति सहज भाव को कम, ज्यादा या नहीं मूल्याङ्कन करना। निर्भ्रम का अर्थ है - जो जैसा है, उसको वैसा ही मूल्याङ्कन करना। यह जागृति पूर्वक होता है. इस प्रकार मनन क्रिया में भ्रम और निर्भ्रम का स्पष्ट स्वरूप अभिहित (स्पष्ट) होता है. अतः चयन एवं आस्वादन क्रियाएँ इन्द्रिय सन्निकर्ष सीमावर्ती होने से भ्रमित मनन है. निर्भ्रम मनन का तात्पर्य जीवन-तृप्ति यथा प्रामाणिकता, समाधान, सह-अस्तित्व एवं अभय पूर्वक चयन और आस्वादन क्रिया संपादित होने से है.
वृत्ति - विचार क्रिया
विचार क्रिया विश्लेषण एवं तुलनों पर आधारित जीवन गति है.
विचार सहित ही मानव शरीर में जीवंतता प्रमाणित हो पाती है. अधिकांशतः विश्लेषण की सम्पूर्ण वस्तु भौतिक एवं रासायनिक रूप तक ही सीमित रहती है, एवं गुणों का विश्लेषण न्यूनतम ही होता है.
प्रत्येक इकाई अपनी सम्पूर्णता में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अविभाज्य वर्तमान होती है. अतः इसका यथार्थ विश्लेषण इसकी सम्पूर्णता, अर्थात चारों आयामों के विश्लेषण से ही संभावित है. इस तरह केवल रूप और गुण किसी इकाई की सम्पूर्णता विश्लेषित नहीं होती, फलतः जागृति प्रमाणित नहीं होती। जीवन के जागृति क्रम में विश्लेषण एक सोपान है. जागृत विश्लेषणों के आधार पर प्राप्त निष्कर्षों का तुलन जीवन सहज है. प्रत्येक मनुष्य प्रियप्रिय, हिताहित, लाभालाभ, न्यायान्याय, धर्माधर्म और सत्यासत्य तुलन क्रिया को व्यक्त करता है. यह क्रम से वरीय होते हैं. यही विकास का प्रधान कसौटी है. इस कसौटी में जब क्रम से न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य का प्रभेद जब स्वत्व के रूप में उजागर हो जाता है, तभी इन मुद्दों में जागृति का पद पाता है. इस प्रकार न्याय, धर्म और सत्य को जानने, मानने व उसके गतिक्रम को पहचानने व निर्वाह करने का तुलनात्मक विचारक्रम जागृति को प्रशस्त करता है.
चित्त - इच्छा क्रिया
इच्छा क्रिया चिंतन व चित्रण पर आधारित जीवन गति है एवं चित्त में संपादित होती है.
सम्पूर्ण विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक विचारों का सम्पादन करना ही चित्त की चित्रण क्रिया है, जिससे प्रवर्तन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है. प्रशस्त होने का तात्पर्य प्रकाशन से है. चित्रण क्रिया प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ सीमावर्ती होने की स्थिति में पुनः इन्द्रिय सन्निकर्ष अवधि में ही सर्वाधिक विनियोजित हो जाता है. इससे वरीय न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य विचारों को चित्रित करने की स्थिति में मनुष्य जीवन सहज ही व्यवहारिक हो जाता है. व्यवहारिक होने का तात्पर्य समाज न्याय का पात्र और समाज न्याय प्रदान करने की योग्यता सम्पन्नता है. यही जागृति और समाधान का तात्पर्य है. इस प्रकार चित्रण क्रिया से जागृत और अजागृत मानव का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है.
चिंतन क्रिया जीवन में विवेचनात्मक प्रक्रिया है. विवेचना स्वयं प्रयोजन व उसकी क्रम-बद्धता को पहचानने और निर्वाह करने की प्रक्रिया है. यह प्रक्रिया शरीर यात्रा और जीवन तृप्ति के संतुलन अथवा संतुलन बिंदु को पहचानने के अर्थ में नित्य क्रियाशील है. जीवन तृप्ति का अर्थ व्यवहार में अभयता, समाधान एवं सह-अस्तित्व ही है. यह चिंतन से निष्कर्षात्मक होने की अभिव्यक्तियाँ हैं.
बुद्धि - बोध क्रिया
बोध क्रिया 'अवधारणा' व 'संकल्प' पर आधारित जीवन गति है.
अवधारणा मुख्यतः स्वभाव और धर्म से सम्बंधित है.
सम्पूर्ण इकाइयाँ चार अवस्थाओं के रूप में गण्य हैं. प्रधम - पदार्थावस्था, जो मृद, पाषाण, मणि, धातु व उसके विकार के रूप में वर्तमान हैं. द्वितीय - प्राणावस्था, जो वनस्पति और उसके बीजानुषंगीय पंरपरा एवं उसके विकारों के रूप में विद्यमान है. तृतीय - जीवावस्था, जो मनुष्येत्तर जीव व उसके वंशानुषंगीय परंपरा पूर्वक आहार-विहार विन्यास के रूप में वर्तमान है. चतृर्थ - ज्ञानावस्था, मानव एवं उसकी संस्कारनुषंगीय परंपरा पूर्वक आहार, विहार, व्यवस्था, अभ्यास, अनुसंधान, एवं शिक्षा के रूप में अभिव्यक्त एवं प्रकाशित है, तथा पशुमानव, राक्षसमानव, मानव, देवमानव, दिव्यमानव की कोटि में गण्य है. पशुमानव व राक्षसमानव असामाजिक, मानव सामाजिक तथा देवमानव व दिव्यमानव सामाजिकता के प्रेरणा स्त्रोत होते हैं. ये जागृतिक्रम तथा अवधारणाओं के आधार पर होने वाले प्रवर्तन हैं. ऐसे प्रवर्तन तीन स्वरूप में गण्य हैं - रुचिमूलक, मूल्यमूलक और लक्ष्यमूलक। रुचिमूलक प्रवर्तन में मनुष्य पशुमानव व राक्षसमानव के अर्थ को प्रकाशित करता है. मूल्य मूलक प्रवर्तन रत मनुष्य मानवीयता को व्यक्त, सम्प्रेषित, व प्रकाशित करता है, जो स्वयं में व्यवस्था है. लक्ष्य मूलक प्रवर्तन जीवन जागृति के अर्थ में सार्थक अभिव्यक्ति करता है एवं देवमानव व दिव्यमानव की कोटि में ख्यात होता है. साथ ही मानवीयता से देवमानवीयता की ओर गति एवं दिशा का प्रेरक तथा कारक भी होता है. इस प्रकार अवधारणाओं के आधार पर मानव तीन प्रकार से प्रवर्तित होता हुआ मिलता है. ऐसा प्रवर्तन मूलतः संकल्प के रूप में होता है.
संकल्प अवधारणाओं के प्रति प्रतिबद्धता ही है.
रुचिमूलक प्रणाली के प्रति प्रतिबद्धता हठवादिता कहलाती है एवं मूल्यमूलक तथा लक्ष्यमूलक प्रणालियों के प्रति सम्पूर्ण प्रतिबद्धताएं निष्ठा के रूप में गण्य होती है.
आत्मा - अनुभव क्रिया
अनुभव क्रिया आनंद और प्रामाणिकता पर आधारित जीवन गति है.
आनंद ही संतोष, शान्ति व सुख के नाम से इंगित होता है तथा प्रामाणिकता गति में व्यक्त होती है. यही प्रत्येक मनुष्य का अभीष्ट एवं वर है. प्रामाणिकता मूलक अवधारणाएं अभिव्यक्ति एवं सम्प्रेष्णा में समाधान के रूप में तथा व्यवहार में न्याय के रूप में प्रकाशित होती हैं. इसी तारतम्य में धर्मपूर्ण विचार व न्याय पूर्ण व्यवहार एवं नियमपूर्ण व्यवसाय हैं, और ऐसी मनन क्रिया शिष्टता के रूप में व्यक्त होती है.
जाने हुए को मानने और माने हुए को जानने के क्रम में अनुभव क्रिया नित्य समीचीन और प्रसवशील है, क्योंकि अनुभव के अनन्तर अनुभव का उदय होता ही है. यही जीवन जागृति व अनुभव क्रम है.
अस्तु! जीवन विद्या में पारंगत व्यक्ति स्वयं में विश्वास और श्रेष्ठता के प्रति सम्मान के अर्थ में समीचीन है. जीवन विद्या पर आधारित शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीय चरित्र में सार्वभौमता समीचीन होने की पूर्ण सम्भावना है. इसे चरितार्थ करना ही हमारी प्रतिज्ञा है.
शिक्षा संस्थानों में जीवन विद्या का क्रियान्वयन तीन चरणो में समपन्न होता है: -
प्रथम चरण: - अस्तित्व में जीवन, जीवनी क्रम और जीवन जागृति सम्बन्धी सम्पूर्ण अवधारणा, अर्थात जीवन दर्शन को चिंतनाभ्यास पूर्वक हृदयंगम करना।
द्वितीय चरण: - जीवन की महिमा, प्रक्रिया व स्वरूप के प्रति जागृति व प्रामाणिकता पूर्वक पारंगत होना तथा व्यवहार में चरितार्थ करना।
तृतीय चरण: - जीवन विद्या के प्रबोधन पूर्वक चिंतन में आरूढ़ होने तथा व्यवहाराभ्यास पूर्वक प्रामाणिक होने का मूल्यांकन करना।
(श्री ए नागराज की डायरी से)
मन - मनन क्रिया
मनन क्रिया मान्यताओं पर आधारित जीवन गति है.
मनन सीमावर्ती मान्यताएं चयन और आस्वादन के रूप में गण्य होती हैं. चयन क्रियाएँ अधिकांशतः रूचिमूलक होती हैं, और रुचियाँ सर्वाधिक इन्द्रिय सन्निकर्ष पूर्वक ही प्रमाणित हो पाती हैं. इन्द्रिय-सन्निकर्ष = इन्द्रियों के योग वियोग में होने वाले प्रभाव व स्वीकृतियां। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के अनुकूल अर्थात "अच्छा लगने" वाले योग, संयोग, वियोगात्मक मान्यताएं चयन और आस्वादन के रूप में व्यक्त, सम्प्रेषित व प्रकाशित होती हैं। शरीर को जीवन समझते पर्यन्त जीवन की सम्पूर्ण शक्तियां इन्द्रिय सन्निकर्ष के अर्थ में कार्यरत पायी जाती हैं. यही भ्रम का मूल कारण है. भ्रम का अर्थ है - अस्तित्व में नियति सहज भाव को कम, ज्यादा या नहीं मूल्याङ्कन करना। निर्भ्रम का अर्थ है - जो जैसा है, उसको वैसा ही मूल्याङ्कन करना। यह जागृति पूर्वक होता है. इस प्रकार मनन क्रिया में भ्रम और निर्भ्रम का स्पष्ट स्वरूप अभिहित (स्पष्ट) होता है. अतः चयन एवं आस्वादन क्रियाएँ इन्द्रिय सन्निकर्ष सीमावर्ती होने से भ्रमित मनन है. निर्भ्रम मनन का तात्पर्य जीवन-तृप्ति यथा प्रामाणिकता, समाधान, सह-अस्तित्व एवं अभय पूर्वक चयन और आस्वादन क्रिया संपादित होने से है.
वृत्ति - विचार क्रिया
विचार क्रिया विश्लेषण एवं तुलनों पर आधारित जीवन गति है.
विचार सहित ही मानव शरीर में जीवंतता प्रमाणित हो पाती है. अधिकांशतः विश्लेषण की सम्पूर्ण वस्तु भौतिक एवं रासायनिक रूप तक ही सीमित रहती है, एवं गुणों का विश्लेषण न्यूनतम ही होता है.
प्रत्येक इकाई अपनी सम्पूर्णता में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अविभाज्य वर्तमान होती है. अतः इसका यथार्थ विश्लेषण इसकी सम्पूर्णता, अर्थात चारों आयामों के विश्लेषण से ही संभावित है. इस तरह केवल रूप और गुण किसी इकाई की सम्पूर्णता विश्लेषित नहीं होती, फलतः जागृति प्रमाणित नहीं होती। जीवन के जागृति क्रम में विश्लेषण एक सोपान है. जागृत विश्लेषणों के आधार पर प्राप्त निष्कर्षों का तुलन जीवन सहज है. प्रत्येक मनुष्य प्रियप्रिय, हिताहित, लाभालाभ, न्यायान्याय, धर्माधर्म और सत्यासत्य तुलन क्रिया को व्यक्त करता है. यह क्रम से वरीय होते हैं. यही विकास का प्रधान कसौटी है. इस कसौटी में जब क्रम से न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य का प्रभेद जब स्वत्व के रूप में उजागर हो जाता है, तभी इन मुद्दों में जागृति का पद पाता है. इस प्रकार न्याय, धर्म और सत्य को जानने, मानने व उसके गतिक्रम को पहचानने व निर्वाह करने का तुलनात्मक विचारक्रम जागृति को प्रशस्त करता है.
चित्त - इच्छा क्रिया
इच्छा क्रिया चिंतन व चित्रण पर आधारित जीवन गति है एवं चित्त में संपादित होती है.
सम्पूर्ण विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक विचारों का सम्पादन करना ही चित्त की चित्रण क्रिया है, जिससे प्रवर्तन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है. प्रशस्त होने का तात्पर्य प्रकाशन से है. चित्रण क्रिया प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ सीमावर्ती होने की स्थिति में पुनः इन्द्रिय सन्निकर्ष अवधि में ही सर्वाधिक विनियोजित हो जाता है. इससे वरीय न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य विचारों को चित्रित करने की स्थिति में मनुष्य जीवन सहज ही व्यवहारिक हो जाता है. व्यवहारिक होने का तात्पर्य समाज न्याय का पात्र और समाज न्याय प्रदान करने की योग्यता सम्पन्नता है. यही जागृति और समाधान का तात्पर्य है. इस प्रकार चित्रण क्रिया से जागृत और अजागृत मानव का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है.
चिंतन क्रिया जीवन में विवेचनात्मक प्रक्रिया है. विवेचना स्वयं प्रयोजन व उसकी क्रम-बद्धता को पहचानने और निर्वाह करने की प्रक्रिया है. यह प्रक्रिया शरीर यात्रा और जीवन तृप्ति के संतुलन अथवा संतुलन बिंदु को पहचानने के अर्थ में नित्य क्रियाशील है. जीवन तृप्ति का अर्थ व्यवहार में अभयता, समाधान एवं सह-अस्तित्व ही है. यह चिंतन से निष्कर्षात्मक होने की अभिव्यक्तियाँ हैं.
बुद्धि - बोध क्रिया
बोध क्रिया 'अवधारणा' व 'संकल्प' पर आधारित जीवन गति है.
अवधारणा मुख्यतः स्वभाव और धर्म से सम्बंधित है.
सम्पूर्ण इकाइयाँ चार अवस्थाओं के रूप में गण्य हैं. प्रधम - पदार्थावस्था, जो मृद, पाषाण, मणि, धातु व उसके विकार के रूप में वर्तमान हैं. द्वितीय - प्राणावस्था, जो वनस्पति और उसके बीजानुषंगीय पंरपरा एवं उसके विकारों के रूप में विद्यमान है. तृतीय - जीवावस्था, जो मनुष्येत्तर जीव व उसके वंशानुषंगीय परंपरा पूर्वक आहार-विहार विन्यास के रूप में वर्तमान है. चतृर्थ - ज्ञानावस्था, मानव एवं उसकी संस्कारनुषंगीय परंपरा पूर्वक आहार, विहार, व्यवस्था, अभ्यास, अनुसंधान, एवं शिक्षा के रूप में अभिव्यक्त एवं प्रकाशित है, तथा पशुमानव, राक्षसमानव, मानव, देवमानव, दिव्यमानव की कोटि में गण्य है. पशुमानव व राक्षसमानव असामाजिक, मानव सामाजिक तथा देवमानव व दिव्यमानव सामाजिकता के प्रेरणा स्त्रोत होते हैं. ये जागृतिक्रम तथा अवधारणाओं के आधार पर होने वाले प्रवर्तन हैं. ऐसे प्रवर्तन तीन स्वरूप में गण्य हैं - रुचिमूलक, मूल्यमूलक और लक्ष्यमूलक। रुचिमूलक प्रवर्तन में मनुष्य पशुमानव व राक्षसमानव के अर्थ को प्रकाशित करता है. मूल्य मूलक प्रवर्तन रत मनुष्य मानवीयता को व्यक्त, सम्प्रेषित, व प्रकाशित करता है, जो स्वयं में व्यवस्था है. लक्ष्य मूलक प्रवर्तन जीवन जागृति के अर्थ में सार्थक अभिव्यक्ति करता है एवं देवमानव व दिव्यमानव की कोटि में ख्यात होता है. साथ ही मानवीयता से देवमानवीयता की ओर गति एवं दिशा का प्रेरक तथा कारक भी होता है. इस प्रकार अवधारणाओं के आधार पर मानव तीन प्रकार से प्रवर्तित होता हुआ मिलता है. ऐसा प्रवर्तन मूलतः संकल्प के रूप में होता है.
संकल्प अवधारणाओं के प्रति प्रतिबद्धता ही है.
रुचिमूलक प्रणाली के प्रति प्रतिबद्धता हठवादिता कहलाती है एवं मूल्यमूलक तथा लक्ष्यमूलक प्रणालियों के प्रति सम्पूर्ण प्रतिबद्धताएं निष्ठा के रूप में गण्य होती है.
आत्मा - अनुभव क्रिया
अनुभव क्रिया आनंद और प्रामाणिकता पर आधारित जीवन गति है.
आनंद ही संतोष, शान्ति व सुख के नाम से इंगित होता है तथा प्रामाणिकता गति में व्यक्त होती है. यही प्रत्येक मनुष्य का अभीष्ट एवं वर है. प्रामाणिकता मूलक अवधारणाएं अभिव्यक्ति एवं सम्प्रेष्णा में समाधान के रूप में तथा व्यवहार में न्याय के रूप में प्रकाशित होती हैं. इसी तारतम्य में धर्मपूर्ण विचार व न्याय पूर्ण व्यवहार एवं नियमपूर्ण व्यवसाय हैं, और ऐसी मनन क्रिया शिष्टता के रूप में व्यक्त होती है.
जाने हुए को मानने और माने हुए को जानने के क्रम में अनुभव क्रिया नित्य समीचीन और प्रसवशील है, क्योंकि अनुभव के अनन्तर अनुभव का उदय होता ही है. यही जीवन जागृति व अनुभव क्रम है.
अस्तु! जीवन विद्या में पारंगत व्यक्ति स्वयं में विश्वास और श्रेष्ठता के प्रति सम्मान के अर्थ में समीचीन है. जीवन विद्या पर आधारित शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीय चरित्र में सार्वभौमता समीचीन होने की पूर्ण सम्भावना है. इसे चरितार्थ करना ही हमारी प्रतिज्ञा है.
शिक्षा संस्थानों में जीवन विद्या का क्रियान्वयन तीन चरणो में समपन्न होता है: -
प्रथम चरण: - अस्तित्व में जीवन, जीवनी क्रम और जीवन जागृति सम्बन्धी सम्पूर्ण अवधारणा, अर्थात जीवन दर्शन को चिंतनाभ्यास पूर्वक हृदयंगम करना।
द्वितीय चरण: - जीवन की महिमा, प्रक्रिया व स्वरूप के प्रति जागृति व प्रामाणिकता पूर्वक पारंगत होना तथा व्यवहार में चरितार्थ करना।
तृतीय चरण: - जीवन विद्या के प्रबोधन पूर्वक चिंतन में आरूढ़ होने तथा व्यवहाराभ्यास पूर्वक प्रामाणिक होने का मूल्यांकन करना।
(श्री ए नागराज की डायरी से)
Thursday, March 26, 2015
जीवन विद्या अध्ययन क्रम
(१) अस्तित्व = जो आँखों से दिखता है और जो आँखों से नहीं दिखता है.
(२) अस्तित्व नित्य वर्तमान है.
(३) अस्तित्व में मानव ही देखने वाली, समझने वाली इकाई के रूप में है. मानव ही दृष्टा है.
(४) मानव ही अस्तित्व को अध्ययन कर पाता है, जान-समझ पाता है.
(५) मानव का अध्ययन शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में है.
(६) जीवन ही देखता है और समझता है.
इन ६ बिन्दुओं की प्रमाणीकरण विधि का नाम ही "अध्ययन" है. यह अध्ययन अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन के रूप में सम्भव होना पाया गया है. इसी तथ्योद्घाटन क्रम में "मध्यस्थ दर्शन - सहअस्तित्ववाद" वांग्मय मानव सम्मुख प्रस्तुत है. (जिसके प्रणेता श्री ए. नागराज (अमरकंटक) हैं.)
जो मानव आँखों से देखता है, वह भी जीवन को ही दिखता और समझ में आता है. जैसे - आँखों से पदार्थ, वनस्पति संसार, शरीर का रूप दिखता है. रूप = आकार, आयतन, घन. इसमें से आकार और आयतन ही दिखता है, जो अधिकतम १८० अंश के बराबर होता है. गणितीय विधि से लेकिन हम आकार, आयतन, घन को भली प्रकार समझ सकते हैं. गणित मानव की ही कल्पना का प्रवाह है और लय भी है.
हमारी कल्पनायें अनंत के साथ प्रवाह हैं और एक-एक के साथ लय हैं. इससे प्रत्येक एक हमारी अध्ययन की वस्तु है. हर एक में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को मैं पहचानता हूँ, हर व्यक्ति पहचान सकता है. इस विधि से चारों अवस्थाओं के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को हम पहचान सकते हैं.
पदार्थ-अवस्था और प्राण-अवस्था को हम रासायनिक-भौतिक योग-संयोगों (रचना-विरचना) के रूप में हम देखते हैं. जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर भी रासायनिक-भौतिक रचना रूप में वर्तमान हैं. रचना में जो रासायनिक भौतिक द्रव्य रहते हैं, वे विरचित होने के बाद भी अस्तित्व में रहते हैं. जैसे, मरने के बाद शरीर के हड्डी, मांस, वसा इत्यादि खाद बन जाते हैं. विरचना क्रम में रस और रासायनिक द्रव्यों में परिवर्तित होकर अस्तित्व में रहते हैं. इसी प्रकार अस्तित्व में हर वस्तु अविनाशी है. रासायनिक-भौतिक क्रियाकलाप में भाग लेने वाली सम्पूर्ण वस्तुएं परिवर्तनशील होती हैं. इसका साक्ष्य मनुष्य और जीव शरीर, वनस्पति संसार का बीज अनुषंगी विधि से रचनाओं का होना और काल-क्रम में विरचित होता हुआ वर्तमान है. हर जीव शरीर, मानव शरीर गर्भाशय में रचित होता है. हर वनस्पति का धरती के संयोग से जलवायु, ऊष्मा के दबाव सहित बीज विधि से उद्भिज क्रम में रचनाओं का होना वर्तमान है.
मानव में जीवन जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने वाली वस्तु है. जीवन अपने स्वरूप में एक गठन है. जीवन रचना एक गठन-पूर्ण परमाणु के रूप में है. इसका साक्ष्य इसकी अक्षय बल, अक्षय शक्तियां और उनकी निरंतरता है. यह हर मनुष्य में प्रमाणित होता है. जैसे - आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और अनुभव को कितना भी मैं प्रकाशित, अभिव्यक्त, सम्प्रेषित करता हूँ, उसके बाद भी इन क्रियाओं को करने के लिए अपने में ये शक्तियां यथावत बनी हुई देख-समझ पाता हूँ. प्रमाणित करने के उपरान्त ये शक्तियाँ पुनः प्रमाणित करने के लिए यथावत संपन्न रहते हुए अनुभव होता है.
अनुभव का तात्पर्य समझ की तृप्ति है. समझदारी का तात्पर्य जानना-मानना और उसको प्रमाणित करना ही है. प्रमाणित करने का सम्पूर्ण वस्तु जीवन में ही है.
जीवन की अक्षय-शक्ति और अक्षय बल गठन-पूर्णता का फल है, क्योंकि जितने भी परमाणु रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना में भागीदारी कर रहे हैं, वे सब विकासक्रम में हैं. ऐसे हर परमाणु भार-बंधन और अणु-बंधन के रूप में वर्तमान हैं. जबकि गठन-पूर्ण परमाणु (जीवन) भार-बंधन, अणु-बंधन से मुक्त रहना मुझे, मुझसे और मेरे लिए समझ आता है. जैसे - मैं जितनी भी आशा करता हूँ उसका भार न मुझमें होता है, न जिसका मैं आस्वादन/चयन करता हूँ उसमें आरोपित होता है. जो भी मैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का आस्वादन करता हूँ, उससे मेरी आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और प्रामाणिकता में कोई न्यूनातिरेक (कम-ज्यादा) न होते हुए, यथावत बना रहता है. इससे पता चलता है, सम्पूर्ण जीवन क्रियाएँ भार-बंधन से मुक्त हैं.
भार-बंधन से मुक्त जीवन आशा-बंधन, विचार-बंधन और इच्छा-बंधन से युक्त है. आशा, विचार, इच्छा बंधन वश ही जीवन का भ्रमित होना पाया जाता है. यह तब समीक्षित होता है, जब जीवन जागृत हो जाता है. भ्रमित अवस्था में जीवन में अविभाज्य रूप में संपन्न होने वाली १० क्रियाओं में से चयन, आस्वादन, विश्लेषण, चित्रण तथा प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, लाभ-अलाभ दृष्टियों से तुलन सम्पूर्ण भ्रमात्मक कार्यों में ग्रसित हुआ समीक्षित हुआ है. जीवनगत सम्पूर्ण क्रियाकलापों में से वर्जित क्रियाकलाप ही सम्पूर्ण भ्रम का स्त्रोत स्पष्ट होता है.
जागृति सहज जीवन का कार्यकलाप न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य विधि से संपन्न होता हुआ, प्रमाणित होता हुआ मैं देखा हूँ, समझा हूँ - आप भी समझ सकते हैं. इसके साथ यह भी समीक्षित होता है कि हर मनुष्य के जीवन में न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियां क्रियाशील होने के लिए उन्मुख रहती हैं. भ्रमात्मक क्रियाकलाप में समाविष्ट रहने वाली प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, लाभ-अलाभ दृष्टियों की क्रियाशीलता जीव-संसार में जीवों की प्रवृत्त्यों में भी देखने को मिलती हैं.
जीवन सहज न्याय, धर्म, सत्यात्मक दृष्टियाँ चिंतन पूर्वक साक्षात्कार होती हैं और बोधगम्य होती हैं. न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियों का साक्षात्कार होना ही जागृति है. जागृति का प्रमाण स्वरूप जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने के रूप में वर्तमान होना पाया गया है. यही प्रामाणिकता का तात्पर्य है.
परस्पर संबंधों की पहचान
१. मनुष्य का मनुष्य के साथ
२. मनुष्य का जीवों के साथ
३. मनुष्य का वनस्पतियों के साथ
४. मनुष्य का पदार्थ संसार के साथ
५. मनुष्य का अस्तित्व के साथ
उपरोक्त संबंधों को पहचानने की आवश्यकता है, इसकी सम्भावना और स्त्रोत नित्य समीचीन है. यह कल्पनाशीलता से प्रारम्भ होकर अनुभव में पूर्ण होता है.
न्याय-अन्याय का साक्षात्कार सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन के स्वरूप में होना देखा गया है. जिससे उभय-तृप्ति संपन्न होना देखा गया है.
धर्म-अधर्म का साक्षात्कार और बोध व्यवस्था में प्रमाणित होना देखा गया है. व्यवस्था स्वयं में मानव परंपरा है. इसमें परिवार परंपरा समाहित है. परिवार के साथ ही व्यवस्था की आवश्यकता उदय होना पाया जाता है. व्यवस्था अपने स्वरूप में जीवन में, से, के लिए समाधान (सुख) रूप में होना देखा गया. इस प्रकार मानव-धर्म समाधान (सुख) के रूप में होना देखा गया है.
सर्वतोमुखी समाधान का तात्पर्य सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिपेक्ष्यों में समाधान और उसकी निरंतरता ही है. यह क्रियाकलाप के रूप में व्यक्त होने के क्रम में परस्पर न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता, मानवीयतापूर्ण शिक्षा संस्कार सुलभता, व स्वास्थ्य संयम सुलभता के रूप में समीचीन है. इसे भली प्रकार से समझा गया है. मानव धर्म सुख, शान्ति, संतोष, आनंद का फलन स्वरूप समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व ही है.
- श्री ए नागराज की डायरी से (२०/५/१९९५)
(२) अस्तित्व नित्य वर्तमान है.
(३) अस्तित्व में मानव ही देखने वाली, समझने वाली इकाई के रूप में है. मानव ही दृष्टा है.
(४) मानव ही अस्तित्व को अध्ययन कर पाता है, जान-समझ पाता है.
(५) मानव का अध्ययन शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में है.
(६) जीवन ही देखता है और समझता है.
इन ६ बिन्दुओं की प्रमाणीकरण विधि का नाम ही "अध्ययन" है. यह अध्ययन अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन के रूप में सम्भव होना पाया गया है. इसी तथ्योद्घाटन क्रम में "मध्यस्थ दर्शन - सहअस्तित्ववाद" वांग्मय मानव सम्मुख प्रस्तुत है. (जिसके प्रणेता श्री ए. नागराज (अमरकंटक) हैं.)
जो मानव आँखों से देखता है, वह भी जीवन को ही दिखता और समझ में आता है. जैसे - आँखों से पदार्थ, वनस्पति संसार, शरीर का रूप दिखता है. रूप = आकार, आयतन, घन. इसमें से आकार और आयतन ही दिखता है, जो अधिकतम १८० अंश के बराबर होता है. गणितीय विधि से लेकिन हम आकार, आयतन, घन को भली प्रकार समझ सकते हैं. गणित मानव की ही कल्पना का प्रवाह है और लय भी है.
हमारी कल्पनायें अनंत के साथ प्रवाह हैं और एक-एक के साथ लय हैं. इससे प्रत्येक एक हमारी अध्ययन की वस्तु है. हर एक में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को मैं पहचानता हूँ, हर व्यक्ति पहचान सकता है. इस विधि से चारों अवस्थाओं के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को हम पहचान सकते हैं.
पदार्थ-अवस्था और प्राण-अवस्था को हम रासायनिक-भौतिक योग-संयोगों (रचना-विरचना) के रूप में हम देखते हैं. जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर भी रासायनिक-भौतिक रचना रूप में वर्तमान हैं. रचना में जो रासायनिक भौतिक द्रव्य रहते हैं, वे विरचित होने के बाद भी अस्तित्व में रहते हैं. जैसे, मरने के बाद शरीर के हड्डी, मांस, वसा इत्यादि खाद बन जाते हैं. विरचना क्रम में रस और रासायनिक द्रव्यों में परिवर्तित होकर अस्तित्व में रहते हैं. इसी प्रकार अस्तित्व में हर वस्तु अविनाशी है. रासायनिक-भौतिक क्रियाकलाप में भाग लेने वाली सम्पूर्ण वस्तुएं परिवर्तनशील होती हैं. इसका साक्ष्य मनुष्य और जीव शरीर, वनस्पति संसार का बीज अनुषंगी विधि से रचनाओं का होना और काल-क्रम में विरचित होता हुआ वर्तमान है. हर जीव शरीर, मानव शरीर गर्भाशय में रचित होता है. हर वनस्पति का धरती के संयोग से जलवायु, ऊष्मा के दबाव सहित बीज विधि से उद्भिज क्रम में रचनाओं का होना वर्तमान है.
मानव में जीवन जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने वाली वस्तु है. जीवन अपने स्वरूप में एक गठन है. जीवन रचना एक गठन-पूर्ण परमाणु के रूप में है. इसका साक्ष्य इसकी अक्षय बल, अक्षय शक्तियां और उनकी निरंतरता है. यह हर मनुष्य में प्रमाणित होता है. जैसे - आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और अनुभव को कितना भी मैं प्रकाशित, अभिव्यक्त, सम्प्रेषित करता हूँ, उसके बाद भी इन क्रियाओं को करने के लिए अपने में ये शक्तियां यथावत बनी हुई देख-समझ पाता हूँ. प्रमाणित करने के उपरान्त ये शक्तियाँ पुनः प्रमाणित करने के लिए यथावत संपन्न रहते हुए अनुभव होता है.
अनुभव का तात्पर्य समझ की तृप्ति है. समझदारी का तात्पर्य जानना-मानना और उसको प्रमाणित करना ही है. प्रमाणित करने का सम्पूर्ण वस्तु जीवन में ही है.
जीवन की अक्षय-शक्ति और अक्षय बल गठन-पूर्णता का फल है, क्योंकि जितने भी परमाणु रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना में भागीदारी कर रहे हैं, वे सब विकासक्रम में हैं. ऐसे हर परमाणु भार-बंधन और अणु-बंधन के रूप में वर्तमान हैं. जबकि गठन-पूर्ण परमाणु (जीवन) भार-बंधन, अणु-बंधन से मुक्त रहना मुझे, मुझसे और मेरे लिए समझ आता है. जैसे - मैं जितनी भी आशा करता हूँ उसका भार न मुझमें होता है, न जिसका मैं आस्वादन/चयन करता हूँ उसमें आरोपित होता है. जो भी मैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का आस्वादन करता हूँ, उससे मेरी आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और प्रामाणिकता में कोई न्यूनातिरेक (कम-ज्यादा) न होते हुए, यथावत बना रहता है. इससे पता चलता है, सम्पूर्ण जीवन क्रियाएँ भार-बंधन से मुक्त हैं.
भार-बंधन से मुक्त जीवन आशा-बंधन, विचार-बंधन और इच्छा-बंधन से युक्त है. आशा, विचार, इच्छा बंधन वश ही जीवन का भ्रमित होना पाया जाता है. यह तब समीक्षित होता है, जब जीवन जागृत हो जाता है. भ्रमित अवस्था में जीवन में अविभाज्य रूप में संपन्न होने वाली १० क्रियाओं में से चयन, आस्वादन, विश्लेषण, चित्रण तथा प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, लाभ-अलाभ दृष्टियों से तुलन सम्पूर्ण भ्रमात्मक कार्यों में ग्रसित हुआ समीक्षित हुआ है. जीवनगत सम्पूर्ण क्रियाकलापों में से वर्जित क्रियाकलाप ही सम्पूर्ण भ्रम का स्त्रोत स्पष्ट होता है.
जागृति सहज जीवन का कार्यकलाप न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य विधि से संपन्न होता हुआ, प्रमाणित होता हुआ मैं देखा हूँ, समझा हूँ - आप भी समझ सकते हैं. इसके साथ यह भी समीक्षित होता है कि हर मनुष्य के जीवन में न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियां क्रियाशील होने के लिए उन्मुख रहती हैं. भ्रमात्मक क्रियाकलाप में समाविष्ट रहने वाली प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, लाभ-अलाभ दृष्टियों की क्रियाशीलता जीव-संसार में जीवों की प्रवृत्त्यों में भी देखने को मिलती हैं.
जीवन सहज न्याय, धर्म, सत्यात्मक दृष्टियाँ चिंतन पूर्वक साक्षात्कार होती हैं और बोधगम्य होती हैं. न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियों का साक्षात्कार होना ही जागृति है. जागृति का प्रमाण स्वरूप जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने के रूप में वर्तमान होना पाया गया है. यही प्रामाणिकता का तात्पर्य है.
परस्पर संबंधों की पहचान
१. मनुष्य का मनुष्य के साथ
२. मनुष्य का जीवों के साथ
३. मनुष्य का वनस्पतियों के साथ
४. मनुष्य का पदार्थ संसार के साथ
५. मनुष्य का अस्तित्व के साथ
उपरोक्त संबंधों को पहचानने की आवश्यकता है, इसकी सम्भावना और स्त्रोत नित्य समीचीन है. यह कल्पनाशीलता से प्रारम्भ होकर अनुभव में पूर्ण होता है.
न्याय-अन्याय का साक्षात्कार सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन के स्वरूप में होना देखा गया है. जिससे उभय-तृप्ति संपन्न होना देखा गया है.
धर्म-अधर्म का साक्षात्कार और बोध व्यवस्था में प्रमाणित होना देखा गया है. व्यवस्था स्वयं में मानव परंपरा है. इसमें परिवार परंपरा समाहित है. परिवार के साथ ही व्यवस्था की आवश्यकता उदय होना पाया जाता है. व्यवस्था अपने स्वरूप में जीवन में, से, के लिए समाधान (सुख) रूप में होना देखा गया. इस प्रकार मानव-धर्म समाधान (सुख) के रूप में होना देखा गया है.
सर्वतोमुखी समाधान का तात्पर्य सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिपेक्ष्यों में समाधान और उसकी निरंतरता ही है. यह क्रियाकलाप के रूप में व्यक्त होने के क्रम में परस्पर न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता, मानवीयतापूर्ण शिक्षा संस्कार सुलभता, व स्वास्थ्य संयम सुलभता के रूप में समीचीन है. इसे भली प्रकार से समझा गया है. मानव धर्म सुख, शान्ति, संतोष, आनंद का फलन स्वरूप समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व ही है.
- श्री ए नागराज की डायरी से (२०/५/१९९५)
Tuesday, March 24, 2015
जागृति विधि साधना
जागृति जीवन सहज लक्ष्य है. जागृति-क्रम ही साधना है. "जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना" जीवन सहज प्रकाशन है. जीवन में नित्य आचरण रूपी अथवा कार्य रूपी गतिविधियों को जानना-मानना जागृति है. जीवन में, से, के लिए सतत क्रियाशीलता प्रत्येक मनुष्य में प्रमाणित है. जैसा - (१) चयन-आस्वादन, (२) विश्लेषण और तुलन, (३) चित्रण और चिंतन, (४) संकल्प और बोध, (५) प्रामाणिकता और अनुभूति। ये जीवन सहज क्रियाएँ हैं. ये सब क्रम से मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि और आत्मा में संपन्न होने वाली क्रियाएँ हैं. ये क्रम से विशाल और सहज प्रभावी हैं.
(१) मन के प्रभाव-क्षेत्र से अधिक प्रभावी वृत्ति का प्रभाव क्षेत्र है. इसलिए वृत्ति में होने वाली न्याय, धर्म, सत्य रूपी दृष्टियों से चयन-आस्वादन विश्लेषणों को तुलन करना - यह जागृति विधि साधना है. इससे मन की गतिविधियों को जानने-मानने की अर्हता स्थापित होती है.
(२) चित्त में विवेचनाओं के आधार पर वृत्ति के क्रियाकलापों को जानना-मानना जागृति विधि साधना है.
(३) चित्त के क्रियाकलापों को अवधारणाओं की रोशनी में जानना-मानना जागृति-विधि साधना है.
(४) अनुभव के प्रकाश में आत्म सहज प्रामाणिकता की कसौटी में सम्पूर्ण बोध को निरीक्षण-परीक्षण करना जागृति विधि साधना है.
आत्मा स्वयं अथवा जीवन स्वयं अस्तित्व सहज वर्तमान होने के कारण अस्तित्व में जिन-जिन अवधारणाओं को प्रामाणिकता की रोशनी में सटीक ठहराया गया है, उसे अस्तित्व सहज रूप में प्रमाणित कर लेना, अस्तित्व में अनुभूति का तात्पर्य है. या अस्तित्व में होने वाली अनुभव क्रिया है. यह जाना-माना हुआ का तृप्ति-बिंदु ही है.
अस्तित्व में प्रत्येक एक को उसकी सम्पूर्णता के साथ जानने-मानने के तृप्ति-बिंदु का अनुभव, निरंतर अनुभव का स्त्रोत होना पाया जाता है. यही साधना और अभ्यास "जागृति विधि साधना" के नाम से जाना जाता है.
- श्री ए नागराज की डायरी से (अमरकंटक - ३० नवंबर, १९९२)
(१) मन के प्रभाव-क्षेत्र से अधिक प्रभावी वृत्ति का प्रभाव क्षेत्र है. इसलिए वृत्ति में होने वाली न्याय, धर्म, सत्य रूपी दृष्टियों से चयन-आस्वादन विश्लेषणों को तुलन करना - यह जागृति विधि साधना है. इससे मन की गतिविधियों को जानने-मानने की अर्हता स्थापित होती है.
(२) चित्त में विवेचनाओं के आधार पर वृत्ति के क्रियाकलापों को जानना-मानना जागृति विधि साधना है.
(३) चित्त के क्रियाकलापों को अवधारणाओं की रोशनी में जानना-मानना जागृति-विधि साधना है.
(४) अनुभव के प्रकाश में आत्म सहज प्रामाणिकता की कसौटी में सम्पूर्ण बोध को निरीक्षण-परीक्षण करना जागृति विधि साधना है.
आत्मा स्वयं अथवा जीवन स्वयं अस्तित्व सहज वर्तमान होने के कारण अस्तित्व में जिन-जिन अवधारणाओं को प्रामाणिकता की रोशनी में सटीक ठहराया गया है, उसे अस्तित्व सहज रूप में प्रमाणित कर लेना, अस्तित्व में अनुभूति का तात्पर्य है. या अस्तित्व में होने वाली अनुभव क्रिया है. यह जाना-माना हुआ का तृप्ति-बिंदु ही है.
अस्तित्व में प्रत्येक एक को उसकी सम्पूर्णता के साथ जानने-मानने के तृप्ति-बिंदु का अनुभव, निरंतर अनुभव का स्त्रोत होना पाया जाता है. यही साधना और अभ्यास "जागृति विधि साधना" के नाम से जाना जाता है.
- श्री ए नागराज की डायरी से (अमरकंटक - ३० नवंबर, १९९२)
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