ANNOUNCEMENTS



Monday, April 6, 2015

चैतन्य पद प्रतिष्ठा

प्रश्न: चैतन्य पद प्रतिष्ठा क्या है?

उत्तर: जड़ प्रकृति परिणामशील है.  हर परिणाम पद अपने में एक यथास्थिति एवं व्यवस्था है.  गठनपूर्ण परमाणु के रूप में परमाणु संक्रमित हुआ रहता है, इसे हम चैतन्य पद कह रहे हैं.  इसके साथ जो प्रतिष्ठा जुडी हुई है वह चैतन्य पद की अक्षुण्णता के अर्थ में है.  एक बार चैतन्य पद में संक्रमित होता है, उसके बाद जड़ पद में वापस लौटता नहीं है.   यह भी स्पष्ट किया है कि चैतन्य परमाणु भार-बंधन और अणु-बंधन से मुक्त रहता है.  जीवन जीने की आशा पूर्वक एक पुन्जाकार कार्य गति पथ को प्रभाव क्षेत्र के रूप में स्थापित करके उस आकार के प्राण कोशाओं से रचित शरीर को स्वयं स्फूर्त संचालित करता है.  जीवन भ्रम वश अपने पुन्जाकार के अनुरूप शरीर को पाकर स्वयं को जीता हुआ मान लेता है, और जब वह शरीर छूट जाता है तो स्वयं को मरा हुआ मान लेता है. 

जीवन का स्वयं को शरीर मान लेना ही भ्रम का स्वरूप है.  मानव परंपरा में शनैः शनैः यह भ्रम आशा बंधन से विचार बंधन, विचार बंधन से इच्छा बंधन होता हुआ आंकलित होता है.  इस भ्रम-बंधन से मुक्ति पाना ही मोक्ष है.  इसीलिये जीवन में, से, के लिए जीवन ज्ञान की आवश्यकता महसूस की गयी.  चैतन्य संसार को अध्ययन गम्य, बोध गम्य कराने के क्रम में चैतन्य पद एवं प्रतिष्ठा को सूत्रित एवं व्याख्यायित किया है. 
 
प्रश्न: परावर्तन और प्रत्यावर्तन को जीवन के सन्दर्भ में समझाएं?

उत्तर: जीवन गति = परावर्तन, जीवन गति के प्रभाव क्षेत्र व्यापी फल-परिणामों को मूल्यांकित करना और स्वीकारना = प्रत्यावर्तन

इसे प्रत्येक व्यक्ति सदा-सदा करता ही रहता है.  इसे आप भी निरीक्षण-परीक्षण कर सकते हैं. 

जीवन सहज परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया विधि से मानव अध्ययन, शोध व अनुसंधान करने में सफल होता आया है.  कुछ भागों में सफल होना अभी शेष है.  जैसे - जीवन गति (या परावर्तन) के संवेदनशीलता सीमा में अनुकूलता-प्रतिकूलता का मूल्यांकन करने में (या प्रत्यावर्तन में) मानव सफल हुआ है, जिसका अध्ययन सुलभ हुआ है, जो आहार-आवास-अलंकार और दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण सम्बन्धी वस्तुओं को प्राप्त कर लेने की सीमा में दृष्टव्य है.  इस तरह मनाकार को साकार करने में जीवन सहज परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया विधि से मानव सफल हुआ है.

मनः स्वस्थता को परावर्तन-प्रत्यावर्तन पूर्वक प्रमाणित करने में मानव असफल रहा है.  इस रिक्तता को भरने के लिए संज्ञानीयता (सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ) हेतु आवश्यकीय अध्ययन के सन्दर्भ में मध्यस्थ दर्शन प्रस्तुत हुआ है.  इसे प्रत्येक मानव को अध्ययन करना ही होगा। 

- श्री ए नागराज की डायरी से, एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में (२८ अप्रैल २००१, अमरकंटक)

No comments: