(१) अस्तित्व = जो आँखों से दिखता है और जो आँखों से नहीं दिखता है.
(२) अस्तित्व नित्य वर्तमान है.
(३) अस्तित्व में मानव ही देखने वाली, समझने वाली इकाई के रूप में है. मानव ही दृष्टा है.
(४) मानव ही अस्तित्व को अध्ययन कर पाता है, जान-समझ पाता है.
(५) मानव का अध्ययन शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में है.
(६) जीवन ही देखता है और समझता है.
इन ६ बिन्दुओं की प्रमाणीकरण विधि का नाम ही "अध्ययन" है. यह अध्ययन अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन के रूप में सम्भव होना पाया गया है. इसी तथ्योद्घाटन क्रम में "मध्यस्थ दर्शन - सहअस्तित्ववाद" वांग्मय मानव सम्मुख प्रस्तुत है. (जिसके प्रणेता श्री ए. नागराज (अमरकंटक) हैं.)
जो मानव आँखों से देखता है, वह भी जीवन को ही दिखता और समझ में आता है. जैसे - आँखों से पदार्थ, वनस्पति संसार, शरीर का रूप दिखता है. रूप = आकार, आयतन, घन. इसमें से आकार और आयतन ही दिखता है, जो अधिकतम १८० अंश के बराबर होता है. गणितीय विधि से लेकिन हम आकार, आयतन, घन को भली प्रकार समझ सकते हैं. गणित मानव की ही कल्पना का प्रवाह है और लय भी है.
हमारी कल्पनायें अनंत के साथ प्रवाह हैं और एक-एक के साथ लय हैं. इससे प्रत्येक एक हमारी अध्ययन की वस्तु है. हर एक में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को मैं पहचानता हूँ, हर व्यक्ति पहचान सकता है. इस विधि से चारों अवस्थाओं के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को हम पहचान सकते हैं.
पदार्थ-अवस्था और प्राण-अवस्था को हम रासायनिक-भौतिक योग-संयोगों (रचना-विरचना) के रूप में हम देखते हैं. जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर भी रासायनिक-भौतिक रचना रूप में वर्तमान हैं. रचना में जो रासायनिक भौतिक द्रव्य रहते हैं, वे विरचित होने के बाद भी अस्तित्व में रहते हैं. जैसे, मरने के बाद शरीर के हड्डी, मांस, वसा इत्यादि खाद बन जाते हैं. विरचना क्रम में रस और रासायनिक द्रव्यों में परिवर्तित होकर अस्तित्व में रहते हैं. इसी प्रकार अस्तित्व में हर वस्तु अविनाशी है. रासायनिक-भौतिक क्रियाकलाप में भाग लेने वाली सम्पूर्ण वस्तुएं परिवर्तनशील होती हैं. इसका साक्ष्य मनुष्य और जीव शरीर, वनस्पति संसार का बीज अनुषंगी विधि से रचनाओं का होना और काल-क्रम में विरचित होता हुआ वर्तमान है. हर जीव शरीर, मानव शरीर गर्भाशय में रचित होता है. हर वनस्पति का धरती के संयोग से जलवायु, ऊष्मा के दबाव सहित बीज विधि से उद्भिज क्रम में रचनाओं का होना वर्तमान है.
मानव में जीवन जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने वाली वस्तु है. जीवन अपने स्वरूप में एक गठन है. जीवन रचना एक गठन-पूर्ण परमाणु के रूप में है. इसका साक्ष्य इसकी अक्षय बल, अक्षय शक्तियां और उनकी निरंतरता है. यह हर मनुष्य में प्रमाणित होता है. जैसे - आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और अनुभव को कितना भी मैं प्रकाशित, अभिव्यक्त, सम्प्रेषित करता हूँ, उसके बाद भी इन क्रियाओं को करने के लिए अपने में ये शक्तियां यथावत बनी हुई देख-समझ पाता हूँ. प्रमाणित करने के उपरान्त ये शक्तियाँ पुनः प्रमाणित करने के लिए यथावत संपन्न रहते हुए अनुभव होता है.
अनुभव का तात्पर्य समझ की तृप्ति है. समझदारी का तात्पर्य जानना-मानना और उसको प्रमाणित करना ही है. प्रमाणित करने का सम्पूर्ण वस्तु जीवन में ही है.
जीवन की अक्षय-शक्ति और अक्षय बल गठन-पूर्णता का फल है, क्योंकि जितने भी परमाणु रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना में भागीदारी कर रहे हैं, वे सब विकासक्रम में हैं. ऐसे हर परमाणु भार-बंधन और अणु-बंधन के रूप में वर्तमान हैं. जबकि गठन-पूर्ण परमाणु (जीवन) भार-बंधन, अणु-बंधन से मुक्त रहना मुझे, मुझसे और मेरे लिए समझ आता है. जैसे - मैं जितनी भी आशा करता हूँ उसका भार न मुझमें होता है, न जिसका मैं आस्वादन/चयन करता हूँ उसमें आरोपित होता है. जो भी मैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का आस्वादन करता हूँ, उससे मेरी आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और प्रामाणिकता में कोई न्यूनातिरेक (कम-ज्यादा) न होते हुए, यथावत बना रहता है. इससे पता चलता है, सम्पूर्ण जीवन क्रियाएँ भार-बंधन से मुक्त हैं.
भार-बंधन से मुक्त जीवन आशा-बंधन, विचार-बंधन और इच्छा-बंधन से युक्त है. आशा, विचार, इच्छा बंधन वश ही जीवन का भ्रमित होना पाया जाता है. यह तब समीक्षित होता है, जब जीवन जागृत हो जाता है. भ्रमित अवस्था में जीवन में अविभाज्य रूप में संपन्न होने वाली १० क्रियाओं में से चयन, आस्वादन, विश्लेषण, चित्रण तथा प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, लाभ-अलाभ दृष्टियों से तुलन सम्पूर्ण भ्रमात्मक कार्यों में ग्रसित हुआ समीक्षित हुआ है. जीवनगत सम्पूर्ण क्रियाकलापों में से वर्जित क्रियाकलाप ही सम्पूर्ण भ्रम का स्त्रोत स्पष्ट होता है.
जागृति सहज जीवन का कार्यकलाप न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य विधि से संपन्न होता हुआ, प्रमाणित होता हुआ मैं देखा हूँ, समझा हूँ - आप भी समझ सकते हैं. इसके साथ यह भी समीक्षित होता है कि हर मनुष्य के जीवन में न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियां क्रियाशील होने के लिए उन्मुख रहती हैं. भ्रमात्मक क्रियाकलाप में समाविष्ट रहने वाली प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, लाभ-अलाभ दृष्टियों की क्रियाशीलता जीव-संसार में जीवों की प्रवृत्त्यों में भी देखने को मिलती हैं.
जीवन सहज न्याय, धर्म, सत्यात्मक दृष्टियाँ चिंतन पूर्वक साक्षात्कार होती हैं और बोधगम्य होती हैं. न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियों का साक्षात्कार होना ही जागृति है. जागृति का प्रमाण स्वरूप जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने के रूप में वर्तमान होना पाया गया है. यही प्रामाणिकता का तात्पर्य है.
परस्पर संबंधों की पहचान
१. मनुष्य का मनुष्य के साथ
२. मनुष्य का जीवों के साथ
३. मनुष्य का वनस्पतियों के साथ
४. मनुष्य का पदार्थ संसार के साथ
५. मनुष्य का अस्तित्व के साथ
उपरोक्त संबंधों को पहचानने की आवश्यकता है, इसकी सम्भावना और स्त्रोत नित्य समीचीन है. यह कल्पनाशीलता से प्रारम्भ होकर अनुभव में पूर्ण होता है.
न्याय-अन्याय का साक्षात्कार सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन के स्वरूप में होना देखा गया है. जिससे उभय-तृप्ति संपन्न होना देखा गया है.
धर्म-अधर्म का साक्षात्कार और बोध व्यवस्था में प्रमाणित होना देखा गया है. व्यवस्था स्वयं में मानव परंपरा है. इसमें परिवार परंपरा समाहित है. परिवार के साथ ही व्यवस्था की आवश्यकता उदय होना पाया जाता है. व्यवस्था अपने स्वरूप में जीवन में, से, के लिए समाधान (सुख) रूप में होना देखा गया. इस प्रकार मानव-धर्म समाधान (सुख) के रूप में होना देखा गया है.
सर्वतोमुखी समाधान का तात्पर्य सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिपेक्ष्यों में समाधान और उसकी निरंतरता ही है. यह क्रियाकलाप के रूप में व्यक्त होने के क्रम में परस्पर न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता, मानवीयतापूर्ण शिक्षा संस्कार सुलभता, व स्वास्थ्य संयम सुलभता के रूप में समीचीन है. इसे भली प्रकार से समझा गया है. मानव धर्म सुख, शान्ति, संतोष, आनंद का फलन स्वरूप समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व ही है.
- श्री ए नागराज की डायरी से (२०/५/१९९५)
(२) अस्तित्व नित्य वर्तमान है.
(३) अस्तित्व में मानव ही देखने वाली, समझने वाली इकाई के रूप में है. मानव ही दृष्टा है.
(४) मानव ही अस्तित्व को अध्ययन कर पाता है, जान-समझ पाता है.
(५) मानव का अध्ययन शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में है.
(६) जीवन ही देखता है और समझता है.
इन ६ बिन्दुओं की प्रमाणीकरण विधि का नाम ही "अध्ययन" है. यह अध्ययन अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन के रूप में सम्भव होना पाया गया है. इसी तथ्योद्घाटन क्रम में "मध्यस्थ दर्शन - सहअस्तित्ववाद" वांग्मय मानव सम्मुख प्रस्तुत है. (जिसके प्रणेता श्री ए. नागराज (अमरकंटक) हैं.)
जो मानव आँखों से देखता है, वह भी जीवन को ही दिखता और समझ में आता है. जैसे - आँखों से पदार्थ, वनस्पति संसार, शरीर का रूप दिखता है. रूप = आकार, आयतन, घन. इसमें से आकार और आयतन ही दिखता है, जो अधिकतम १८० अंश के बराबर होता है. गणितीय विधि से लेकिन हम आकार, आयतन, घन को भली प्रकार समझ सकते हैं. गणित मानव की ही कल्पना का प्रवाह है और लय भी है.
हमारी कल्पनायें अनंत के साथ प्रवाह हैं और एक-एक के साथ लय हैं. इससे प्रत्येक एक हमारी अध्ययन की वस्तु है. हर एक में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को मैं पहचानता हूँ, हर व्यक्ति पहचान सकता है. इस विधि से चारों अवस्थाओं के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को हम पहचान सकते हैं.
पदार्थ-अवस्था और प्राण-अवस्था को हम रासायनिक-भौतिक योग-संयोगों (रचना-विरचना) के रूप में हम देखते हैं. जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर भी रासायनिक-भौतिक रचना रूप में वर्तमान हैं. रचना में जो रासायनिक भौतिक द्रव्य रहते हैं, वे विरचित होने के बाद भी अस्तित्व में रहते हैं. जैसे, मरने के बाद शरीर के हड्डी, मांस, वसा इत्यादि खाद बन जाते हैं. विरचना क्रम में रस और रासायनिक द्रव्यों में परिवर्तित होकर अस्तित्व में रहते हैं. इसी प्रकार अस्तित्व में हर वस्तु अविनाशी है. रासायनिक-भौतिक क्रियाकलाप में भाग लेने वाली सम्पूर्ण वस्तुएं परिवर्तनशील होती हैं. इसका साक्ष्य मनुष्य और जीव शरीर, वनस्पति संसार का बीज अनुषंगी विधि से रचनाओं का होना और काल-क्रम में विरचित होता हुआ वर्तमान है. हर जीव शरीर, मानव शरीर गर्भाशय में रचित होता है. हर वनस्पति का धरती के संयोग से जलवायु, ऊष्मा के दबाव सहित बीज विधि से उद्भिज क्रम में रचनाओं का होना वर्तमान है.
मानव में जीवन जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने वाली वस्तु है. जीवन अपने स्वरूप में एक गठन है. जीवन रचना एक गठन-पूर्ण परमाणु के रूप में है. इसका साक्ष्य इसकी अक्षय बल, अक्षय शक्तियां और उनकी निरंतरता है. यह हर मनुष्य में प्रमाणित होता है. जैसे - आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और अनुभव को कितना भी मैं प्रकाशित, अभिव्यक्त, सम्प्रेषित करता हूँ, उसके बाद भी इन क्रियाओं को करने के लिए अपने में ये शक्तियां यथावत बनी हुई देख-समझ पाता हूँ. प्रमाणित करने के उपरान्त ये शक्तियाँ पुनः प्रमाणित करने के लिए यथावत संपन्न रहते हुए अनुभव होता है.
अनुभव का तात्पर्य समझ की तृप्ति है. समझदारी का तात्पर्य जानना-मानना और उसको प्रमाणित करना ही है. प्रमाणित करने का सम्पूर्ण वस्तु जीवन में ही है.
जीवन की अक्षय-शक्ति और अक्षय बल गठन-पूर्णता का फल है, क्योंकि जितने भी परमाणु रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना में भागीदारी कर रहे हैं, वे सब विकासक्रम में हैं. ऐसे हर परमाणु भार-बंधन और अणु-बंधन के रूप में वर्तमान हैं. जबकि गठन-पूर्ण परमाणु (जीवन) भार-बंधन, अणु-बंधन से मुक्त रहना मुझे, मुझसे और मेरे लिए समझ आता है. जैसे - मैं जितनी भी आशा करता हूँ उसका भार न मुझमें होता है, न जिसका मैं आस्वादन/चयन करता हूँ उसमें आरोपित होता है. जो भी मैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का आस्वादन करता हूँ, उससे मेरी आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और प्रामाणिकता में कोई न्यूनातिरेक (कम-ज्यादा) न होते हुए, यथावत बना रहता है. इससे पता चलता है, सम्पूर्ण जीवन क्रियाएँ भार-बंधन से मुक्त हैं.
भार-बंधन से मुक्त जीवन आशा-बंधन, विचार-बंधन और इच्छा-बंधन से युक्त है. आशा, विचार, इच्छा बंधन वश ही जीवन का भ्रमित होना पाया जाता है. यह तब समीक्षित होता है, जब जीवन जागृत हो जाता है. भ्रमित अवस्था में जीवन में अविभाज्य रूप में संपन्न होने वाली १० क्रियाओं में से चयन, आस्वादन, विश्लेषण, चित्रण तथा प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, लाभ-अलाभ दृष्टियों से तुलन सम्पूर्ण भ्रमात्मक कार्यों में ग्रसित हुआ समीक्षित हुआ है. जीवनगत सम्पूर्ण क्रियाकलापों में से वर्जित क्रियाकलाप ही सम्पूर्ण भ्रम का स्त्रोत स्पष्ट होता है.
जागृति सहज जीवन का कार्यकलाप न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य विधि से संपन्न होता हुआ, प्रमाणित होता हुआ मैं देखा हूँ, समझा हूँ - आप भी समझ सकते हैं. इसके साथ यह भी समीक्षित होता है कि हर मनुष्य के जीवन में न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियां क्रियाशील होने के लिए उन्मुख रहती हैं. भ्रमात्मक क्रियाकलाप में समाविष्ट रहने वाली प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, लाभ-अलाभ दृष्टियों की क्रियाशीलता जीव-संसार में जीवों की प्रवृत्त्यों में भी देखने को मिलती हैं.
जीवन सहज न्याय, धर्म, सत्यात्मक दृष्टियाँ चिंतन पूर्वक साक्षात्कार होती हैं और बोधगम्य होती हैं. न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियों का साक्षात्कार होना ही जागृति है. जागृति का प्रमाण स्वरूप जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने के रूप में वर्तमान होना पाया गया है. यही प्रामाणिकता का तात्पर्य है.
परस्पर संबंधों की पहचान
१. मनुष्य का मनुष्य के साथ
२. मनुष्य का जीवों के साथ
३. मनुष्य का वनस्पतियों के साथ
४. मनुष्य का पदार्थ संसार के साथ
५. मनुष्य का अस्तित्व के साथ
उपरोक्त संबंधों को पहचानने की आवश्यकता है, इसकी सम्भावना और स्त्रोत नित्य समीचीन है. यह कल्पनाशीलता से प्रारम्भ होकर अनुभव में पूर्ण होता है.
न्याय-अन्याय का साक्षात्कार सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन के स्वरूप में होना देखा गया है. जिससे उभय-तृप्ति संपन्न होना देखा गया है.
धर्म-अधर्म का साक्षात्कार और बोध व्यवस्था में प्रमाणित होना देखा गया है. व्यवस्था स्वयं में मानव परंपरा है. इसमें परिवार परंपरा समाहित है. परिवार के साथ ही व्यवस्था की आवश्यकता उदय होना पाया जाता है. व्यवस्था अपने स्वरूप में जीवन में, से, के लिए समाधान (सुख) रूप में होना देखा गया. इस प्रकार मानव-धर्म समाधान (सुख) के रूप में होना देखा गया है.
सर्वतोमुखी समाधान का तात्पर्य सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिपेक्ष्यों में समाधान और उसकी निरंतरता ही है. यह क्रियाकलाप के रूप में व्यक्त होने के क्रम में परस्पर न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता, मानवीयतापूर्ण शिक्षा संस्कार सुलभता, व स्वास्थ्य संयम सुलभता के रूप में समीचीन है. इसे भली प्रकार से समझा गया है. मानव धर्म सुख, शान्ति, संतोष, आनंद का फलन स्वरूप समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व ही है.
- श्री ए नागराज की डायरी से (२०/५/१९९५)
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