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Monday, December 22, 2014

सार्वभौम व्यवस्था


 
- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००९, हैदराबाद



Sunday, December 21, 2014

अनुसंधान की पृष्ठभूमि


- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००९, हैदराबाद 

मध्यस्थ क्रिया के लिये सम क्रिया का प्रयोग


- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, नवम्बर २०१०, बांदा (उत्तर प्रदेश)

Saturday, November 15, 2014

नित्य वर्तमान

अस्तित्व में सत्ता स्वयं ही मध्यस्थ है क्योंकि सम्पूर्ण प्रकृति सत्ता में सम्पृक्त विधि से ही नित्य वर्तमान है.  इसी विधि से  अस्तित्व सहज पूर्णता सहअस्तित्व रूप में नित्य वर्तमान होना स्पष्ट है.  सत्ता स्थिति पूर्ण होना देखा गया है.  स्थितिपूर्णता का वैभव पारगामीयता और पारदर्शीयता के रूप में दृष्टव्य है. 

सत्तामयता का प्रभाव पारगामीयता और पारदर्शीयता के रूप में व्यक्त है. 

सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अविभाज्य है.  यह अविभाज्यता निरंतर है.  इसीलिये सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति नित्य वर्तमान ही है.  अस्तित्व स्वयं भाग-विभाग नहीं होता है इसीलिये अस्तित्व अखंड-अक्षत होना समझ में आता है.  प्रमुख अनुभव यही है कि सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अनंत रूप में दिखाई पड़ती है.  ये सब (प्रकृति की इकाइयां) भाग-विभाग के रूप में ही सत्ता में दिखाई पड़ती हैं.  इसे सटीक इस प्रकार देखा गया है - व्यवस्था का भाग-विभाग होता नहीं।  अस्तित्व ही व्यवस्था का स्वरूप है

सत्ता में होने के कारण हर वस्तु सत्ता में भीगा, डूबा, घिरा दिखाई पड़ता है.  ऐसे दिखने वाली वस्तु में स्वयंस्फूर्त विधि से क्रियाशीलता वर्तमान है.  यह क्रियाशीलता गति, दबाव, प्रभाव के रूप में देखने को मिलता है.  दूसरे विधि से सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति ही स्थिति-गति, परस्परता में दबाव, तरंग पूर्वक आदान-प्रदान सहज विधि से पूरकता, उद्दात्तीकरण, रचना-विरचना के रूप में होना देखने को मिलता है.  और परमाणु में विकास (गठन पूर्णता)  चैतन्य पद में संक्रमण, जीवन पद प्रतिष्ठा होना देखा गया है.   जीवन और रासायनिक-भौतिक पदों के लिए परमाणु ही मूल तत्व होना समझ में आता है.  सत्ता में सम्पृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति में व्यवस्था के मूल तत्व के रूप में परमाणु को देखा जाता है. 

सहअस्तित्व ही अनुभव करने योग्य सम्पूर्ण वस्तु है.  सहअस्तित्व में अनुभव होने की स्थिति में सत्तामयता ही व्यापक होने के कारण अनुभव की वस्तु बनी ही रहती है.  इसी वस्तु में सम्पूर्ण इकाइयाँ दृश्यमान रहते ही हैं. परम सत्य  सहअस्तित्व में जब अनुभूत होते हैं, उसी समय सत्तामयता में अभिभूत होना स्वाभाविक है.  अभिभूत होने का तात्पर्य सत्ता पारगामी, व्यापक, पारदर्शी होना अनुभव में आता है.  अनुभव करने वाला वस्तु जीवन ही होता है.  सत्तामयता पारगामी होने का अनुभव ही प्रधान तथ्य है. 

सत्ता में अनुभव के उपरान्त ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा निरंतर होना देखा गया है.  इसी अनुभव के अनन्तर सह-अस्तित्व सहज सम्पूर्ण दृश्य, जीवन प्रकाश में समझ आता है.  जीवन प्रकाश का प्रयोग अर्थात परावर्तन, अनुभव मूलक विधि से प्रामाणिकता के रूप में बोध, संकल्प क्रिया सहित मानव परंपरा में परावर्तित होता है.  जागृतिपूर्ण जीवन क्रियाकलाप अनुभवमूलक ज्ञान को सदा-सदा के लिए व्यवहार और प्रयोगों में प्रमाणित कर देता है.  यही मानव परंपरा सहज आवश्यकता है. 

- अनुभवात्मक अध्यात्मवाद से 

अनुसन्धान का मूल

(मध्यस्थ दर्शन के) इस अनुसन्धान के मूल में रूढ़ियों के प्रति अविश्वास, कट्टरपंथ के प्रति अविश्वास रहा है.  सार रूप में वेदान्त रूप में "मोक्ष और बंधन" पर जो कुछ भी वांग्मय उपलब्ध है, इस पर हुई शंका।  परिणामतः निदिध्यासन, समाधि, मनोनिरोध, दृष्टाविधि के लिए जो कुछ भी उपदेश हैं उसी के आधार पर प्रयत्न और अभ्यास किया गया.  निर्विचार स्थिति को प्राप्त करने के बाद परंपरा जिसको समाधि, निदिध्यासन, पूर्ण बोध, निर्वाण कुछ भी नाम लिया है, इसी स्थली में मूल शंका का उत्तर नहीं मिल पाया।  परिणामतः इसके विकल्प के लिए तत्पर हुए.  पूर्ववर्ती इशारों के अनुसार 'संयम' का एक ध्वनि थी.  उस ध्वनि को संयम में तत्परता को बनाया गया.  आकाश (शून्य) में संयम किया।  निर्विचार स्थिति में अस्तित्व स्वीकार/बोध सहित सभी ओर आकाश में समायी हुई वस्तु दिखती रही, इसलिए आकाश में संयम करने की तत्परता बनी.  कुछ समय के उपरान्त ही अस्तित्व सह-अस्तित्व के रूप में यथावत देखने को मिला।  अस्तित्व में ही 'जीवन' को देखा गया.  अस्तित्व में अनुभूत हो कर जागृत हुए.  ऐसे अनुभव के पश्चात अस्तित्व सहज विधि से हर व्यक्ति अनुभव योग्य होना देखा गया.  अनुभव करने वाली वस्तु को 'जीवन' रूप में देखा गया.  इसी आधार पर "अनुभवात्मक अध्यात्मवाद" को प्रस्तुत करने में सत्य सहज प्रवृत्ति उद्गमित हुई.  यह मानव सम्मुख प्रस्तुत है. 

- अनुभवात्मक अध्यात्मवाद से

Tuesday, November 11, 2014

इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर

सहअस्तित्व (सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति) समझ में आने पर यह पहचानना सुलभ हो गया कि ज्ञान और इन्द्रियों के संयुक्त स्वरूप की मानव संज्ञा है.  ज्ञान का धारक-वाहक जीवन है.  जीवंत शरीर में इन्द्रिय व्यापार (इन्द्रियों का कार्यकलाप - जैसे देखना, सुनना, चखना, सूंघना, छूना) है.  जीवन शरीर को जीवंत बनाता है, फलस्वरूप इन्द्रिय व्यापार होता है.  

इन्द्रियों से जीवन को कुछ संकेत मिलता है, जिससे जो पहचान जीवन को होता है उसको "इन्द्रियगोचर" कहा.

इन्द्रियों के बिना भी जीवन को ज्ञान विधि से संकेत मिलता है.  उसको "ज्ञानगोचर" कहा.

ज्ञान की प्रसारण विधि जीवन में समाहित है.  इन्द्रियगोचर होने के लिए भी ज्ञान का प्रसारण आवश्यक है.  ज्ञानगोचर होने के लिए तो ज्ञान का प्रसारण आवश्यक है ही.  ज्ञान का प्रसारण जीवन में ही होता है - और किसी चीज (भौतिक-रासायनिक वस्तु) में होता नहीं। 

"ज्ञान सम्पन्नता जीवन में है" - इस बात को स्वीकारा जा सकता है.  ऐसे ज्ञान के कुछ भाग को जीवन इन्द्रियों द्वारा भी पहचानता है. 

मानव ज्ञानावस्था की इकाई है - जो इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर विधि से सम्पूर्ण है.  ज्ञान स्थिति में रहता है, इन्द्रियगोचर विधि से प्रमाणित होता है.  ज्ञान मानव परंपरा में इन्द्रियगोचर विधि से आता है.  इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान प्रकाशित होता है.  हर मानव में जीवन क्रियाशील रहता है.  इन्द्रियों से जो ज्ञान झलकता है, उसके मूल में जाने की व्यवस्था मानव में बनी हुई है.  उसके लिए पहले कल्पनाशीलता का प्रयोग होता है, जिससे ज्ञान वस्तु के रूप में साक्षात्कार होता है.  फलस्वरूप बोध और अनुभव होता है, जिससे प्रमाणित होने की शुरुआत होती है.  यह इसका पूरा स्वरूप है.

ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर के बारे में विगत में भी चर्चा हुई है, पर वे इस निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाये कि मानव ज्ञान और इन्द्रियों का संयुक्त स्वरूप है.  आदर्शवाद ने बताया - "ईश्वर ज्ञान का स्वरूप है."  ईश्वर ज्ञान का स्वरूप है - यह मध्यस्थ दर्शन के परिशीलन से भी निकलता है, किन्तु ज्ञान को पहचानने वाला जीवन ही है.  ईश्वर स्वरूपी ज्ञान का धारक-वाहक जीवन ही है.  आदर्शवाद ने कहा - "ईश्वर सत्य है.  सत्य ही ज्ञान है".   साथ ही ज्ञान को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बताया।  इसके स्थान पर मध्यस्थ दर्शन ने प्रतिपादित किया -  "ईश्वर स्वरूपी सत्य को प्रमाणित करने वाला (व्यक्त करने वाला, सम्प्रेषित करने वाला) मानव ही है, जो जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है".  मध्यस्थ दर्शन के ऐसा प्रतिपादित करने से किसको क्या तकलीफ है? 

चैतन्यता (जीवन) को पहचानना मूल मुद्दा है.  इसी के आधार पर सह-अस्तित्व को पहचानने  की कोशिश है.  इसी के आधार पर मानव को पहचानने की कोशिश है.  इसी के आधार पर चारों अवस्थाओं को पहचानने की कोशिश है.  इसी के आधार पर जीने की कोशिश है. 

जीवन की पहचान न होने के आधार पर हम मान लेते हैं - इन्द्रियों में ज्ञान है.  इन्द्रियों में ज्ञान होना मान कर आगे उसका शोध करते हुए बताया - ज्ञान का स्त्रोत मेधस (brain) है.  पहले ह्रदय को ज्ञान का स्त्रोत बताते थे, बाद में मेधस को बताने लगे.  जबकि सच्चाई यह है कि जीवन ही ज्ञान का धारक-वाहक है, न कि मेधस।  जीवन ही ज्ञान संपन्न होता है या भ्रमित रहता है.  भ्रमित रहने का आधार है - जीवन का शरीर को जीवन मान लेना।  मानने वाली वस्तु जीवन ही है और कुछ भी नहीं। 

शरीर में होने वाले इन्द्रिय व्यापार का दृष्टा जीवन ही होता है.  ज्ञान से जो पहचान होता है, या जो ज्ञानगोचर होता है उसका दृष्टा जीवन ही होता है. इन दोनों का दृष्टा होने से जीवन जागृत होता है.  जागृत होने पर ज्ञानमूलक विधि से जीने का अभ्यास होता है.  जिससे मानव लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और जीवन मूल्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) दोनों साथ-साथ प्रमाणित होता है.  इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में मानव लक्ष्य प्रमाणित होता है. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

 

Tuesday, July 22, 2014

अवलोकन

अवलोकन = अवधारणा के स्वरूप में वस्तु को देखने की विधि

सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति के स्वरूप में अस्तित्व का अवलोकन है.  जीवन और शरीर के समुच्चय स्वरूप में मानव का अवलोकन है.

वर्तमान स्थिति को देखने पर अवगत होता है कि यह धरती रोग-ग्रस्त हो गयी है और मानव लक्ष्य-विहीन और दिशा-विहीन है.  यही इस पूरे अभियान का उद्देश्य है: - धरती का रोग दूर होने का उपाय मिल जाए और मानव जाति को लक्ष्य और दिशा मिल जाए.  इसी आशय से इस कार्यक्रम को शुरू किया गया है. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आंवरी आश्रम)

अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन

अस्तित्व नित्य वर्तमान है - चाहे आप उसे मानें या न मानें, जानें या न जानें।  वर्तमान में जो प्रमाणित होता है, वह पहले से था ही!  जो था नहीं, वह होता नहीं! 

प्रश्न: तो आपके "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" को प्रस्तुत करने से क्या हुआ?

उत्तर: अस्तित्व तो था ही, मानव भी था ही - सीधे-सीधे अस्तित्व से मानव के जीने के सूत्रों को, सुख को अनुभव करने के सूत्रों को, समाधानित होने के सूत्रों को, समृद्ध होने के सूत्रों को, वर्तमान में विश्वास करने के सूत्रों को, सहअस्तित्व में जीने को प्रमाणित करने के सूत्रों को मानव द्वारा प्रकाशित किया गया है.   यह प्रकाशन मानव द्वारा ही संभव है.  जीव-संसार, वनस्पति-संसार, खनिज-संसार इस प्रकाशन को करेगा नहीं।  वर्तमान में प्रमाणित होने के धरातल से इस बात का प्रकाशन किया गया है.  यह केवल बातें नहीं हैं! 

अस्तित्व में मानव एक इकाई है.  मानव का अध्ययन मैंने किया है. 

 अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन से "मध्यस्थ दर्शन - सहअस्तित्ववाद" निष्पन्न हुआ.  हर मानव इसके अध्ययन पूर्वक समाधानित होगा और अनुभव मूलक विधि से समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व को प्रमाणित करेगा।  समाधान, समृद्धि, अभय और सह-अस्तित्व मानव जाति की अपेक्षा है.  इस अपेक्षा को सार्थक बनाना अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन द्वारा ही संभव है.  मानव इस समझदारी को उपार्जित करने के फलस्वरूप ईमानदार, जिम्मेदार और भागीदार हो पाता है.  भागीदारी का फलन ही है - समाधान, समृद्धि, अभय और सह-अस्तित्व। 

एक ध्रुव अस्तित्व है, दूसरा ध्रुव जागृति है.  जागृति का स्वरूप है - समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आंवरी आश्रम)

 

Sunday, July 6, 2014

जिज्ञासा और मेधावियों का वर्चस्व

मेरे बंधुओं, मेधावियों और जिज्ञासुओं,

मैं विश्वास करता हूँ, आप लोग बहुत सारे सवालों के दर्द से भर कर जिज्ञासा कऱ रहे हैं.  जब कभी मानव तीव्रता से जिज्ञासु होता है तब किसी दर्द भरे ढंग से ही मुक्ति पाने का आशय उसमें बनता है.  दर्द से मुक्ति पाने के आशय से ही मानव उस जिज्ञासा का समाधान चाहना शुरु कर देता है.  इस चाहत की वरीयता और सब चाहतों की तुलना में अधिक हो जाती है तो उसका समाधान समीचीन हो जाता है.  समाधान मिलने का कोई एक प्रकार नहीं है.  जैसे - अभी मैं आपको उपलब्ध हूँ.  कल मैं उपलब्ध नहीं भी रहूंगा तो भी अस्तित्व में सवालों का उत्तर रहता ही है.  इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है.  सवाल है तो उसका समाधान भी है.  सवाल जिसका जवाब न हो, वह दर्द भरा होता नहीं है.  यही इसकी कसौटी है.  मेरा स्वयं का अनुभव भी यही है.  दर्द अति तीव्र होने पर ही मेरा जिज्ञासा अति तीव्र हुआ.  दर्द तीव्र होने पर उसके निवारण की जिम्मदारी स्वीकारने और उसके समाधान को प्रमाणित करने की आवश्यकता अपने आप से बन जाती है.

प्रमाण ही मानव का मूल वर्चस्व है.  मानव समाधान से ही धनी है, न कि सवालों से!  सवालों को पैदा करने से हम विद्वान हो गए - ऐसा अभी तक सोचते रहे.  सवालों को पैदा करने से हम धनी नहीं हैं, विद्वान नहीं हैं, न मेधावी हैं.  सवाल का समाधान चाहना मेधावियों का पहला वर्चस्व है.  सवाल का समाधान समीचीन होने पर उसको अपनाना मेधावियों का दूसरा वर्चस्व है.  समाधान को प्रमाणित करना मेधावियों का तीसरा वर्चस्व है.  इन वर्चस्वों के साथ ही मेधावीजन संसार के लिये उपकारी हो पाते हैं.  केवल जिज्ञासा किया, जिसको जीना नहीं है - ऐसी जिज्ञासा से संसार का कोई फायदा होने वाला नहीं है.

आपकी पहली जिज्ञासा है - मध्यस्थ दर्शन जो मैंने प्रस्तुत किया है, उसका मतलब क्या है?

विज्ञान और आदर्शवाद के हाथ जो चीज नहीं लगी थी, वह चीज़ मेरे हाथ लग गयी.  उसका नाम 'मध्यस्थ दर्शन' है.  आदर्शवाद जो प्रतिपादित नहीं कर पाया, प्रमाणित नहीं कर पाया, दूसरों को समझाने की ताकत और तरीका पैदा नहीं कर पाया, उसी तरह विज्ञान जो पहचान नहीं पाया, प्रमाणित नहीं कर पाया, बता नहीं पाया, सोच नहीं पाया - उसका नाम मध्यस्थ दर्शन है.  अभी तक मानव इतिहास में यही दो चिंतन आये हैं - विज्ञान और आदर्शवाद। 

प्रश्न:  आपकी नज़र में आदर्शवादी चिंतन क्या है? 

आदर्शवाद "रहस्य मूलक ईश्वर केंद्रित चिंतन" की अभिव्यक्ति है.  इसके नजरिये में "ईश्वर से सब कुछ होता है."  मध्यस्थ दर्शन को अपनी स्वीकृति के रूप में प्राप्त करने के लिए इस बात को याद रखने की आवश्यकता है.  आदर्शवाद में हर बात को ईश्वर से जोड़ना चाहते हैं - ईश्वर की इच्छा से ही  पैदा हुआ, ईश्वर की इच्छा से ही रहेगा, ईश्वर की इच्छा से ही मरेगा।  पैसा मिल गया तो ईश्वर कृपा से मिल गया, यश मिल गया तो ईश्वर कृपा से, अच्छा कपड़ा मिल गया तो ईश्वर कृपा  से,   अच्छा मकान तो ईश्वर कृपा से.  दूसरे, यदि कुछ काम बिगड़ गया तो ईश्वर रूठ गए, नाराज हो गए.  इसमें शुरू में किसी को कोई आपत्ति भी नहीं थी, बाद में चर्चाएं हुईं - "ईश्वर को पहचाने बिना सब कुछ ईश्वर कृपा से होता है, ऐसा कैसे कहा जाए?"  उसका कोई उत्तर निकला नहीं।  मध्यस्थ दर्शन के निष्पन्न होने के कारण में एक यह भी रहा. 

 ईश्वर प्राप्ति के लिए पहले "ज्ञान" को ही एक मात्र मार्ग बताया था, बाद में "भक्ति" को भी मान्यता मिली.  भक्ति से भी भय-मुक्ति होती है, ऐसी परिकल्पनाएँ दी गयी.  भक्ति-मार्ग में भय से मुक्ति के लिए ईश्वर के स्थान पर देवी-देवताओं की परिकल्पना दी गयी.  देवी-देवताओं को प्रमाणित करने वाला कोई नहीं है, फिर भी बताया गया कि  उनसे भय-मुक्ति हो जाती है.  आदर्शवाद में भय को मानव की स्वाभाविक गति बताया गया है.   कोई भयभीत व्यक्ति देवताओं या ईश्वर की भक्ति से भय मुक्त हो गया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिला।  कोई आदर्शवादी व्यक्ति भी नहीं मिला जो यह घोषणा करे कि मैं भय से मुक्त हो गया हूँ और भय-मुक्त विधि से जी रहा हूँ.  जिन सिद्ध लोगों को भय मुक्त माने भी थे, वे भी ईश्वर से भय मुक्ति और दरिद्रता से मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हुए देखे गए.  ये तो करना ही है!  यदि सिद्ध लोगों को भी वही प्रार्थना करना है जो आप-हम लोगों को करना है जो सिद्ध नहीं हैं, तो उनमें और हममें फर्क क्या हुआ? 

आदर्शवाद में "जीव" और "जगत" की अवधारणा दी गयी. जिसमें भौतिक-रासायनिक संसार को जगत और मानव सहित सारे जीव-जानवरों को जीव श्रेणी में होना कहा गया है. जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है. मानव एक अलग ही अवस्था है पशु-पक्षी से. ऐसा सामान्य देखने से दिखता भी है, इसको समझने का प्रयास करें तो यह समझ भी आता है.

इस तरह आदर्शवादी मानव को पहचानने से रह गए, उसके साथ जीवन को पहचानने से रह गए. मानव को 'जीव' बताते गए. जीव में "भय" की स्वाभाविक प्रवृत्ति होना बताये। भय के लिए "आश्रय" की आवश्यकता को बताया। वह आश्रय मूलतः ईश्वर को बताया गया। ईश्वर ही सब के भय को दूर करने वाला है, जिसकी कृपा की आवश्यकता है. ईश्वर की कृपा जीवों पर बरसती है, वह मानव पर भी बरसती है - ऐसा बताये हैं.
 उसी के आधार पर वैदिक विचार में कहना पड़ा - घोड़ा, बकरी, गाय, मेढक ये सब वेद को बोले!  इस ढंग से आदर्शवादी विचार भाषा के रूप में बहुत फैला, पर प्रमाण के रूप में कहीं नहीं पहुंचा। 

आदर्शवाद में हर बात को ईश्वर से जोड़ना चाहते हैं.  ईश्वर कैसे देता है?  कैसे छुड़ा के ले जाता है?  यदि छुड़ा कर ले जाने वाला ईश्वर नहीं है तो क्या वस्तु है?  इसको खोजने की इच्छा हुआ.  ईश्वर है तो वह वस्तु के रूप में क्या है?  ईश्वर वस्तु स्वरूप में है या केवल भाषा स्वरूप में ही है?  आदर्शवादियों ने यह भी कहा कि "नाम" प्रधान है, "वस्तु" गौण है.  जबकि यहाँ कह रहे हैं - वस्तु प्रधान है, नाम वस्तु को इंगित करने के लिये है. 

प्रश्न: आपकी नज़र में विज्ञान सार रूप में क्या कहता है?

उत्तर:  विज्ञान के अनुसार भौतिक-रासायनिक वस्तु से सब-कुछ होता है.  विज्ञान के सारे कथन का सार-भूत भाग इतना ही है.  भौतिक-रासायनिकता की सीमा में मानव आता नहीं है.  जीवन की पहचान विज्ञान द्वारा नहीं हो पायी।  विज्ञान द्वारा मानव का अध्ययन नहीं हुआ. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (१९९९, आंवरी)

Wednesday, July 2, 2014

आकर्षण, प्रत्याकर्षण तथा कम्पनात्मक गति



परमाणु में मध्यांश और आश्रित अंशों (परिवेशीय अंशों) के बारे में आपको मैंने बताया है.  मध्यांश का आश्रित अंशों के साथ आकर्षण बना ही रहता है.  जब कभी आश्रित अंश (परमाणु की परस्परता के प्रभाव वश) मध्यांश से दूर भागने लगते हैं, उस स्थिति में मध्यस्थ बल प्रत्याकर्षण के रूप में अपने बल को नियोजित करता है, फलस्वरूप वे अच्छी निश्चित दूरी में पुनः स्थापित हो जाते हैं.  यदि आश्रित अंश बहुत पास में आ जाते हैं तो मध्यांश (मध्यस्थ बल) विकर्षण स्वरूप में अपने बल को नियोजित करता है, और पुनः उनको अच्छी निश्चित दूरी में अवस्थित करता है.  इसको नियंत्रण कहा. 

"आकर्षण और प्रत्याकर्षण मिलके कार्य-गति तैयार होती है."  यह एक सूत्र है.  इस सूत्र की व्याख्या परमाणु करता है, अणु करता है, अणु रचित पिंड करता है, धरती करता है, मानव करता है.  व्याख्यायित किया ही रहता है.  जड़ परमाणु में यह कार्य-गति उसकी वर्तुलात्मक गति के रूप में देखी जाती है.  चैतन्य संसार के मानव में यह कार्य-गति उसके विचार, व्यवसाय, अभिव्यक्ति, प्रमाण स्वरूप में देखी जाती है.

इस प्रकार आकर्षण-प्रत्याकर्षण पूर्वक परमाणु में कम्पनात्मक गति होती है, जिससे वह स्वभाव गति में पाया जाता है.  कम्पनात्मक गति नियंत्रण है - जो एक नृत्य है, जो खुशहाली का द्योतक है, उत्सव का द्योतक है, स्वभाव गति का द्योतक है, और मानव भाषा में हंसी-खुशी का द्योतक है.

प्रश्न: आकर्षण और प्रत्याकर्षण तथा कम्पनात्मक गति को मानव के परिपेक्ष्य में कैसे देखें?

उत्तर: आकर्षण और प्रत्याकर्षण को मानव द्वारा रोजमर्रा की जिंदगी में कई जगह पर पहचाना जा सकता है.  मानव किसी वस्तु को समझने जाता है, तो उस वस्तु को समझने पर वस्तु और मानव की परस्परता में एक सुखद उत्सव होता है.  समझने वाली वस्तु (मानव) और समझने की वस्तु (जैसे - परमाणु) के बीच की दूरी घट कर जो संगीतमय स्थिति में आते हैं - उसका नाम है समझदारी!  मानव में समझने पर तृप्ति है.  वह तृप्ति बिंदु स्वयं में एक कम्पन की स्थिति है, जो एक खुशहाली की स्थिति है.  इसको हर व्यक्ति स्वयं में देख सकता है.  यदि यह साक्षात्कार नहीं होगा, बोध नहीं होगा, अनुभव नहीं होगा तो हमारे में यह खुशहाली होगी नहीं!

प्रश्न: मानव में इस खुशहाली की स्थिति को पाने की विधि क्या है?

उत्तर: अध्ययन, बोध, और अनुभव - उसके बाद प्रामाणिकता की हालत आती है.  अध्ययन की आरंभिक स्थिति है - शब्द, उसके बाद है शब्द से इंगित वस्तु।  इंगित वस्तु स्मरण से चल कर हमारे साक्षात्कार में उदय होना।  दूसरी स्थिति है - जो साक्षात्कार हुआ, वह पूरा स्वीकृत हो जाना, सदा-सदा के लिए जीवन में.  इसी का नाम है - संस्कार या वस्तु-बोध.   वस्तु बोध होने के पश्चात् होता है - अनुभव।  बोध होने और प्रमाणित होने के बीच तृप्ति-बिंदु का नाम है - अनुभव।

हम किसी वस्तु को समझने जाते हैं, तो वस्तु को समझने पर जब हम तृप्त होने लगते हैं तो वस्तु का स्वभाव, धर्म, प्रयोजन हमारी बुद्धि में निहित हो जाता है - यही "समझ" है.  यह जब तक नहीं होता है, तब तक हम समझे कहाँ हैं?  शब्दों की सीमा में समझ का प्रमाण होता नहीं है.  शब्दों की सीमा में वार्तालाप हो सकता है, चर्चा हो सकती है.  घटनाओं की चर्चा करके सांत्वना लगाने की बात रहती है, प्रमाण तो होता नहीं है.  मानव में समझने पर तृप्ति है. वह तृप्ति बिंदु स्वयं में एक कम्पन की स्थिति है, जो एक खुशहाली है.  बोध और प्रमाण के बीच कम्पन की यह स्थिति आत्मा में होती है.  एक बार जो वह तृप्ति-बिंदु मिलता है तो फिर वह निरंतर आवंटित होने के लिए बना रहता है.  यही आकर्षण और प्रत्याकर्षण का तृप्ति-बिंदु है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आंवरी आश्रम, सितम्बर १९९९)

Tuesday, May 6, 2014

सम, विषम, मध्यस्थ और शून्याकर्षण


शून्याकर्षण है - आकर्षण-विकर्षण से मुक्त।  सत्ता स्वयं शून्याकर्षण स्वरूप है.  सत्तामयता का शून्याकर्षण भी एक नाम है.  सत्ता सम-विषम से मुक्त होने के आधार पर इसको शून्याकर्षण नाम दिया। 

सत्ता में सम्पूर्ण प्रकृति है.  प्रकृति की इकाई का स्वभाव गति (मध्यस्थ) में होना ही शून्याकर्षण है.  जैसे - यह धरती शून्याकर्षण में है.  ज्ञानावस्था का जागृत मानव भी शून्याकर्षण में है. 

इकाई (प्रकृति) की स्वभाव गति सम-विषम के साथ है.  सत्ता अपने में मध्यस्थ है, जो सम-विषम से मुक्त है.  

प्रश्न: ये पत्थर, मणि, मिट्टी आदि अपनी स्वभाव गति में रहते हैं, तो क्या ये शून्याकर्षण में हैं?

उत्तर: नहीं।  पत्थर, मणि, मिट्टी आदि मनुष्येत्तर प्रकृति सम-विषम स्वरूप में क्रियारत रहते हैं.  उनके सम-विषम क्रियाकलाप (संगठन-विघटन, सारक-मारक, अक्रूर-क्रूर) को हम स्वभाव गति मान लेते हैं.  मनुष्येत्तर प्रकृति की हर वस्तु सम-विषम विधि से स्वभाव गति में है.  मनुष्य ने भी सम-विषम विधि से स्वभाव गति में होने का प्रयास किया, पर अभी तक सफल नहीं हो पाया।  इसीलिये मानव की स्वभाव गति (धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करुणा) को पहचानने की आवश्यकता आयी. 

प्रकृति में सम और विषम दोनो मध्यस्थ होना चाहते हैं, इसी की परिणिति है - चारों अवस्थाओं का प्रकटन। 

आपको सम, विषम और मध्यस्थ के बारे में बताया।  ज्ञान मध्यस्थ है, सम-विषम से मुक्त है.  सम-विषम कार्यकलाप होता है.  सम-विषम की गणना होती है.  ज्ञान की गणना नहीं होती।  मानव ज्ञान सम्पन्न होने के पहले बात करेगा या ज्ञान सम्पन्न होने के बाद बात करेगा?  मानव ज्ञान सम्पन्न होने के बाद बात करे, वही शोभनीय होगा।  ज्ञान विधि से बात करने के लिये मध्यस्थ को पकड़ना होगा, जो सम-विषम से मुक्त है.

प्रश्न: ज्ञान विधि से मानव में मध्यस्थता को (मानवीयता पूर्ण आचरण स्वरूप में) जो आपने स्वयं जीने में प्रमाणित करके समझाया, वह स्पष्ट है.  उससे पहले मनुष्येत्तर प्रकृति में आपने कहा, सम-विषम विधि से ही सारा कार्यकलाप है.  इसके साथ आपने हमें यह भी बताया है कि एक परमाणु से लेकर, अणु, अणु रचित रचनायें, रसायन, जीव आदि सभी व्यवस्था के ही क्रम में हैं.  साथ ही यह भी बताया है कि व्यवस्था मध्यस्थता का स्वरूप है.  फिर आप यह कैसे कह रहे हैं कि उनका कार्यकलाप सम-विषम ही है?

उत्तर: मनुष्येत्तर प्रकृति व्यवस्था में है, लेकिन उसका कार्यकलाप सम-विषम है.  कार्यकलाप सम-विषम ही होता है.  ज्ञान मध्यस्थ है.  मानव को अध्ययन पूर्वक ज्ञान में अनुभव होता है.  ज्ञान-संपन्न मानव का कार्य-कलाप सम-विषम ही होता है, पर वह मध्यस्थ क्रिया (आत्मा) द्वारा नियंत्रित होता है. 

ज्ञान और विज्ञान दोनों एक स्तर के नहीं हैं.  ज्ञान कारण स्तर पर है, विज्ञान कार्य स्तर पर है.  अभी आप लोगों के साथ व्याधा है कि आप ज्ञान और विज्ञान को एक ही स्तर पर लाकर देखना चाहते हो. 

यह जो बताया, इसको अध्ययन करने की आवश्यकता है.  इसके बारे में केवल बात-चीत करना भर पर्याप्त नहीं है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (मई २०१४, अछोटी)

Sunday, April 27, 2014

अध्यापक का मंतव्य


आप लोग दूर-दूर से आकर निश्चित मुद्दों पर मेरे साथ विचारविमर्श किये और सहमति तक पहुंचे।  मुख्यतः हम मानव मे होने वाले साक्षात्कार, बोध और अनुभव के बारे में बात किये।  हम सभी इस बात पर सहमत हुए कि ये तीनों प्रक्रिया मानव मे कल्पनाशीलता के आधार पर ही होता है.  कल्पनाशीलता सर्वमानव में नियति विधि से स्वत्व के रूप में है - यह हम सब स्वीकार चुके हैं.  सच्चाइयाँ ही साक्षात्कार, बोध और अनुभव होती हैं.  सच्चाई का प्रस्ताव मध्यस्थ दर्शन के रूप में मैंने आपके सम्मुख प्रस्तुत किया।  अब इस प्रस्ताव को आत्मसात करना है या नहीं और उसके अनुसार जीना है या नहीं - इसमें आप की स्वतंत्रता है.  इसमें किसी का कोई आग्रह नहीं है.  अध्ययन तक ही सारा सन्देश, सूचना, ध्यानाकर्षण है.  उसके बाद जीने का स्वरूप आपको अपने आप गढ़ना है.  उसमें आप स्वतन्त्र हैं.

मैंने इस समझ के अनुसार अपने जीने के स्वरूप को जो गढ़ा, उसका अनुभव मैं आप को बताना चाहता हूँ. 

सबसे पहली बात, ऐसे जीने में मुझसे सर्वमानव को मानव स्वरूप में स्वीकारना बन गया.  अपने-पराये की दीवार ही खत्म हो गयी.  चाहे दूसरा समझा हो, नहीं समझा हो, ज्ञानी हो, अज्ञानी हो, विज्ञानी हो - मैं सभी को मानव स्वरूप में स्वीकार सकता हूँ.  सभी समझ सकते हैं, सभी समाधानित हो सकते हैं, सभी समृद्ध हो सकते हैं - इन तीन आधारों पर मैं सबको स्वीकारता हूँ.  मुझको यह स्थिति बहुत सुखद लगती है.  इसमें कोई व्यक्तिवाद या समुदायवाद नहीं है.  ऐसा हल्कापन मेरे जीवन में अनुभव मे आया.  इसकी आवश्यकता आपको है या नहीं, इस पर आप विचार कर सकते हैं. 

दूसरी बात, जो इस समझ से मेरे जीने में आयी कि मुझ में यह विश्वास बना कि जो कुछ भी "वैध" है उसको मैं समझ सकता हूँ, सीख सकता हूँ और कर सकता हूँ.  कोई सही (वैध) बात हो जिसको मैं नहीं समझ सकूँ, नहीं सीख सकूँ, नहीं कर सकूँ - ऐसा मुझे लगता ही नहीं है.  मानव चेतना आने के बाद "वैध" क्या है - यह स्पष्ट हो जाता है.  यह आत्म विश्वास  ही आधार बना समृद्धि के लिए. 

तीसरे, मैंने नर-नारी में समानता का अनुभव किया।  नर-नारी में समानता घर-परिवार में संगीत का आधार बनता है. 

चौथे, समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने से मैंने गरीबी-अमीरी में संतुलन बिन्दु का अनुभव किया।  गरीब भी समाधान-समृद्धि में संतुलन को पाता है.  अमीर भी समाधान-समृद्धि में संतुलन को पाता है.

क्रमशः

- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

Tuesday, March 25, 2014

ज्ञान और सुख की सहज अपेक्षा

४ विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) का ज्ञान जीवों में "करने" के रूप में है.  जीव-जानवर विषयों को पहचानते हैं, तभी तो उनको करते हैं.  उसके बाद ५ संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में राजी होने की बात मानव में आ गयी.  मानव संवेदनाओं के आधार पर विषयों को पहचानता है, जबकि जीव-जानवर विषयों के लिए संवेदनाओं का उपयोग करते हैं.  जीवों और मानवों में यह महत्त्वपूर्ण अंतर है.  यह मानव में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता का पहला प्रभाव है, इसी आधार पर मानव को ज्ञानावस्था में बताया।

सर्वप्रथम मानव ने संवेदनाओं के आधार पर ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया।  इसके पहले शब्द होता है, स्पर्श होता है, गंध होता है, रस होता है, रूप होता है - यह उपयोग में था ही.  जैसे - जीव-जानवर अपने आहार को पहचानने के लिए गंध का उपयोग करते हैं, उससे पहले पेड़ पौधों की जड़ों में अपने पोषक तत्वों को पहचानने के लिए गंध का उपयोग है.  मानव ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए इनके ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया।  क्यों? क्योंकि मानव में सुख की सहज अपेक्षा है.  इसी बिंदु से मानव का अध्ययन शुरू होता है.

मानव को ज्ञान की आवश्यकता केवल सुख के लिए है, और किसी अर्थ में नहीं है.  ज्ञान को लेकर मानव ने अब तक के इतिहास में आदर्शवादी और भौतिकवादी तरीके से सोचा है.  आदर्शवादी तरीके से मानव को शब्द ज्ञान मिला।  भौतिकवादी तरीके से मानव को स्थूल और सूक्ष्म नापदंड मिले।  इन दोनों विधियों से सुख मानव के हाथ नहीं लगा.  शब्द से तृप्ति मिलती नहीं है.  नाप तौल से तृप्ति मिलती नहीं है - कितना भी सूक्ष्म नाप लें, और सूक्ष्म नापने की जगह बनी ही रहती है.  कितना भी विशाल नाप लें - और विशाल नापने की जगह बनी ही रहती है.  उल्टे इन आधारों पर जो भी किया उससे धरती ही बीमार हो गयी.  मानव को कुछ और समझने की आवश्यकता है - यह बात उजागर हो गयी.  इस आवश्यकता की भरपाई करने के लिये मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है.

- श्री ए नागराज (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, March 23, 2014

कार्य ज्ञान और ज्ञान

"इकाइयों की परस्परता में जो खाली  स्थली है - वह स्वयं सत्ता है.  आँखों में यह सत्ता खाली स्थली जैसी प्रतिबिम्बित होती है.  यह खाली नहीं है, ऊर्जा है.  यह ऊर्जा सब में पारगामी है - पत्थर में, मिट्टी में, पानी में... एक परमाणु अंश से लेकर धरती में - सब में पारगामी है.  इकाइयों में इसके पारगामी होने की गवाही है, उनमें ऊर्जा सम्पन्नता।  मानव में यह ऊर्जा सम्पन्नता ज्ञान के रूप में है.  मानव में 'कार्य ज्ञान' होता है, यह बात परंपरा में आ चुकी है.   कार्य ज्ञान के मूल में ज्ञान है, वह सत्ता है.  जिस तरह 'कार्य ऊर्जा' और 'साम्य ऊर्जा' भौतिक संसार में है, उसी तरह 'कार्य ज्ञान' और 'ज्ञान' मानव में है.  'रहने' के रूप में कार्य ज्ञान, 'होने' के रूप में ज्ञान।  'रहने' के रूप में कार्य ऊर्जा, 'होने' के रूप में साम्य ऊर्जा। 'होने' के रूप में कारण की पहचान है.  'रहने' के रूप में कार्य की पहचान है.  होना और रहना अविभाज्य है." - श्री ए नागराज

Sunday, February 9, 2014

स्थिति गति

प्रश्न: "स्थिति गति" से क्या आशय है?

उत्तर: अस्तित्व में हर वस्तु की स्थिति गति है.  स्थिति का मतलब है - होना।  गति का मतलब है - रहना।   स्थिति और गति अविभाज्य है. 

स्थिति या होने का मूल स्वरूप है - सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति।  प्रकृति की हर इकाई में "होने" के लिए प्रतिबद्धता है.  होने की निश्चित स्थितियाँ हैं.  जैसे - दो अंश का परमाणु  "होने" की एक निश्चित स्थिति है.  पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था, जीव अवस्था और ज्ञान अवस्था - होने की निश्चित स्थितियाँ है.   होने की इन स्थितियों में एक क्रम है.

गति के तीन स्वरूप हैं - (१) स्थानांतरण (२) परिवर्तन (३) व्यवस्था में भागीदारी।  हर स्थिति की गति के यही तीन स्वरूप हैं.

अभी प्रचलित विज्ञान गति को कुछ सीमा तक पहचाना है, पर स्थिति को पहचाना नहीं है. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Thursday, January 16, 2014

उपयोग विधि, कार्य विधि, होने की विधि

चारों अवस्थाओं की उपयोग विधि, कार्य विधि और होने की विधि है.  उपयोग और कार्य विधि रूप और गुण की सीमा तक है, जो साक्षात्कार, बोध और अनुभव की वस्तु नहीं है.  होने की विधि अनुक्रम है, स्वभाव और धर्म है, जो साक्षात्कार, बोध और अनुभव की वस्तु है.  पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था का होना कैसे हुआ?  प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था का होना कैसे हुआ?  जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था का होना कैसे हुआ?  भ्रमित ज्ञान अवस्था से जागृत ज्ञान अवस्था का होना कैसे हुआ? यह होने का कड़ी से कड़ी जुड़ा होना अनुक्रम है.

रूप, गुण, स्वभाव और धर्म चारों सत्य हैं.  अस्तित्व में रूप है ही, गुण है ही, स्वभाव है ही, धर्म है ही.  रूप और गुण चित्रण तक रहता है, जो स्वभाव और धर्म से सम्मत होता है.  स्वभाव और धर्म आगे साक्षात्कार होकर बुद्धि तक जाता है.  फिर केवल धर्म अनुभव में जाता है.  समझने से आशय साक्षात्कार, बोध और अनुभव ही है.  अनुभव होने पर रूप, गुण, स्वभाव और धर्म को संयुक्त रूप में पहचानने और निर्वाह करने की अर्हता आ जाती है.  इससे मानव के जीने में (अनुभव, विचार और कार्य-व्यव्हार में) प्रमाण प्रवाहित होता है. 

होना समग्र का है.  अस्तित्व धर्म सभी अवस्थाओं में साम्य है.  इसलिए होने को समग्रता में ही समझा जाता है.  होने को टुकड़ों में समझा नहीं जाता।  समग्र का होना एक साथ ही समझ आता है.  पानी अनुभव में आ जाए, मानव अनुभव में न आये - ऐसा होता नहीं है.  मानव होने के केंद्र में है.  मानव के होने के अर्थ में मनुष्येत्तर प्रकृति का होना है.  इसलिए समझ के टुकड़े नहीं होते।  मानव अभी पानी को उपयोग और कार्य के अर्थ में ही पहचानता है, उसके "होने" के अर्थ में नहीं। 

साक्षात्कार, बोध और अनुभव में कोई काल और तर्क नहीं होता।  तर्क रूप और गुण की सीमा में है.  सारी देर साक्षात्कार तक पहुँचने में ही है.  कल्पनाशीलता में समझने के लिए प्राथमिकता बनने में ही जो समय लगता है, वह लगता है.  साक्षात्कार होने पर बोध और अनुभव तत्काल होता है.  या तो "समझे" या "नहीं समझे" - ऐसा ही है. 

उपयोग विधि और कार्य विधि इन्द्रियगोचर है.  होने की विधि ज्ञानगोचर है.  होने की विधि को समझने के लिए अध्ययन है.  इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में मानव अस्तित्व में देखता है, करता है और भोगता है. 

प्रश्न: हम अभी जहां खड़े हैं, वहाँ से समझने के लिए प्राथमिकता बनाने के लिए क्या करें?

उत्तर: हम जहाँ हैं, वहीं से आगे का रास्ता बना सकते हैं.  समझदारी के इस प्रस्ताव से सहमति तो हो ही जाती है.  न्याय, समाधान और सत्य को नकारना किसी से बनता नहीं है.  सहमति के साथ अध्ययन में निष्ठा जोड़ने की आवश्यकता है.  अपने जीने के लक्ष्य को परिवर्तित करने की आवश्यकता है.  लक्ष्य को सुविधा-संग्रह के स्थान पर समाधान-समृद्धि में स्थिर करने पर हम अभी जो रोटी-पानी के लिए करते हैं उसको साधन मानें न कि साध्य।  मानवीयता पूर्ण आचरण को विचार में अपनाने से इस समझ के प्रति हम ईमानदार होते हैं. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)