ANNOUNCEMENTS



Tuesday, November 11, 2014

इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर

सहअस्तित्व (सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति) समझ में आने पर यह पहचानना सुलभ हो गया कि ज्ञान और इन्द्रियों के संयुक्त स्वरूप की मानव संज्ञा है.  ज्ञान का धारक-वाहक जीवन है.  जीवंत शरीर में इन्द्रिय व्यापार (इन्द्रियों का कार्यकलाप - जैसे देखना, सुनना, चखना, सूंघना, छूना) है.  जीवन शरीर को जीवंत बनाता है, फलस्वरूप इन्द्रिय व्यापार होता है.  

इन्द्रियों से जीवन को कुछ संकेत मिलता है, जिससे जो पहचान जीवन को होता है उसको "इन्द्रियगोचर" कहा.

इन्द्रियों के बिना भी जीवन को ज्ञान विधि से संकेत मिलता है.  उसको "ज्ञानगोचर" कहा.

ज्ञान की प्रसारण विधि जीवन में समाहित है.  इन्द्रियगोचर होने के लिए भी ज्ञान का प्रसारण आवश्यक है.  ज्ञानगोचर होने के लिए तो ज्ञान का प्रसारण आवश्यक है ही.  ज्ञान का प्रसारण जीवन में ही होता है - और किसी चीज (भौतिक-रासायनिक वस्तु) में होता नहीं। 

"ज्ञान सम्पन्नता जीवन में है" - इस बात को स्वीकारा जा सकता है.  ऐसे ज्ञान के कुछ भाग को जीवन इन्द्रियों द्वारा भी पहचानता है. 

मानव ज्ञानावस्था की इकाई है - जो इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर विधि से सम्पूर्ण है.  ज्ञान स्थिति में रहता है, इन्द्रियगोचर विधि से प्रमाणित होता है.  ज्ञान मानव परंपरा में इन्द्रियगोचर विधि से आता है.  इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान प्रकाशित होता है.  हर मानव में जीवन क्रियाशील रहता है.  इन्द्रियों से जो ज्ञान झलकता है, उसके मूल में जाने की व्यवस्था मानव में बनी हुई है.  उसके लिए पहले कल्पनाशीलता का प्रयोग होता है, जिससे ज्ञान वस्तु के रूप में साक्षात्कार होता है.  फलस्वरूप बोध और अनुभव होता है, जिससे प्रमाणित होने की शुरुआत होती है.  यह इसका पूरा स्वरूप है.

ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर के बारे में विगत में भी चर्चा हुई है, पर वे इस निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाये कि मानव ज्ञान और इन्द्रियों का संयुक्त स्वरूप है.  आदर्शवाद ने बताया - "ईश्वर ज्ञान का स्वरूप है."  ईश्वर ज्ञान का स्वरूप है - यह मध्यस्थ दर्शन के परिशीलन से भी निकलता है, किन्तु ज्ञान को पहचानने वाला जीवन ही है.  ईश्वर स्वरूपी ज्ञान का धारक-वाहक जीवन ही है.  आदर्शवाद ने कहा - "ईश्वर सत्य है.  सत्य ही ज्ञान है".   साथ ही ज्ञान को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बताया।  इसके स्थान पर मध्यस्थ दर्शन ने प्रतिपादित किया -  "ईश्वर स्वरूपी सत्य को प्रमाणित करने वाला (व्यक्त करने वाला, सम्प्रेषित करने वाला) मानव ही है, जो जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है".  मध्यस्थ दर्शन के ऐसा प्रतिपादित करने से किसको क्या तकलीफ है? 

चैतन्यता (जीवन) को पहचानना मूल मुद्दा है.  इसी के आधार पर सह-अस्तित्व को पहचानने  की कोशिश है.  इसी के आधार पर मानव को पहचानने की कोशिश है.  इसी के आधार पर चारों अवस्थाओं को पहचानने की कोशिश है.  इसी के आधार पर जीने की कोशिश है. 

जीवन की पहचान न होने के आधार पर हम मान लेते हैं - इन्द्रियों में ज्ञान है.  इन्द्रियों में ज्ञान होना मान कर आगे उसका शोध करते हुए बताया - ज्ञान का स्त्रोत मेधस (brain) है.  पहले ह्रदय को ज्ञान का स्त्रोत बताते थे, बाद में मेधस को बताने लगे.  जबकि सच्चाई यह है कि जीवन ही ज्ञान का धारक-वाहक है, न कि मेधस।  जीवन ही ज्ञान संपन्न होता है या भ्रमित रहता है.  भ्रमित रहने का आधार है - जीवन का शरीर को जीवन मान लेना।  मानने वाली वस्तु जीवन ही है और कुछ भी नहीं। 

शरीर में होने वाले इन्द्रिय व्यापार का दृष्टा जीवन ही होता है.  ज्ञान से जो पहचान होता है, या जो ज्ञानगोचर होता है उसका दृष्टा जीवन ही होता है. इन दोनों का दृष्टा होने से जीवन जागृत होता है.  जागृत होने पर ज्ञानमूलक विधि से जीने का अभ्यास होता है.  जिससे मानव लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और जीवन मूल्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) दोनों साथ-साथ प्रमाणित होता है.  इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में मानव लक्ष्य प्रमाणित होता है. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

 

No comments: