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Sunday, April 27, 2014

अध्यापक का मंतव्य


आप लोग दूर-दूर से आकर निश्चित मुद्दों पर मेरे साथ विचारविमर्श किये और सहमति तक पहुंचे।  मुख्यतः हम मानव मे होने वाले साक्षात्कार, बोध और अनुभव के बारे में बात किये।  हम सभी इस बात पर सहमत हुए कि ये तीनों प्रक्रिया मानव मे कल्पनाशीलता के आधार पर ही होता है.  कल्पनाशीलता सर्वमानव में नियति विधि से स्वत्व के रूप में है - यह हम सब स्वीकार चुके हैं.  सच्चाइयाँ ही साक्षात्कार, बोध और अनुभव होती हैं.  सच्चाई का प्रस्ताव मध्यस्थ दर्शन के रूप में मैंने आपके सम्मुख प्रस्तुत किया।  अब इस प्रस्ताव को आत्मसात करना है या नहीं और उसके अनुसार जीना है या नहीं - इसमें आप की स्वतंत्रता है.  इसमें किसी का कोई आग्रह नहीं है.  अध्ययन तक ही सारा सन्देश, सूचना, ध्यानाकर्षण है.  उसके बाद जीने का स्वरूप आपको अपने आप गढ़ना है.  उसमें आप स्वतन्त्र हैं.

मैंने इस समझ के अनुसार अपने जीने के स्वरूप को जो गढ़ा, उसका अनुभव मैं आप को बताना चाहता हूँ. 

सबसे पहली बात, ऐसे जीने में मुझसे सर्वमानव को मानव स्वरूप में स्वीकारना बन गया.  अपने-पराये की दीवार ही खत्म हो गयी.  चाहे दूसरा समझा हो, नहीं समझा हो, ज्ञानी हो, अज्ञानी हो, विज्ञानी हो - मैं सभी को मानव स्वरूप में स्वीकार सकता हूँ.  सभी समझ सकते हैं, सभी समाधानित हो सकते हैं, सभी समृद्ध हो सकते हैं - इन तीन आधारों पर मैं सबको स्वीकारता हूँ.  मुझको यह स्थिति बहुत सुखद लगती है.  इसमें कोई व्यक्तिवाद या समुदायवाद नहीं है.  ऐसा हल्कापन मेरे जीवन में अनुभव मे आया.  इसकी आवश्यकता आपको है या नहीं, इस पर आप विचार कर सकते हैं. 

दूसरी बात, जो इस समझ से मेरे जीने में आयी कि मुझ में यह विश्वास बना कि जो कुछ भी "वैध" है उसको मैं समझ सकता हूँ, सीख सकता हूँ और कर सकता हूँ.  कोई सही (वैध) बात हो जिसको मैं नहीं समझ सकूँ, नहीं सीख सकूँ, नहीं कर सकूँ - ऐसा मुझे लगता ही नहीं है.  मानव चेतना आने के बाद "वैध" क्या है - यह स्पष्ट हो जाता है.  यह आत्म विश्वास  ही आधार बना समृद्धि के लिए. 

तीसरे, मैंने नर-नारी में समानता का अनुभव किया।  नर-नारी में समानता घर-परिवार में संगीत का आधार बनता है. 

चौथे, समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने से मैंने गरीबी-अमीरी में संतुलन बिन्दु का अनुभव किया।  गरीब भी समाधान-समृद्धि में संतुलन को पाता है.  अमीर भी समाधान-समृद्धि में संतुलन को पाता है.

क्रमशः

- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

4 comments:

Gopal Bairwa said...

Rakesh Bhai,

One thing is difficult to understand is how can there be any balance between rich and poor ? Humans want equality. Nobody wants to be poor. So how can there be balance in rich and poor ?

Regards,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

Dear Gopal Ji,

The MD way for achieving equality among rich and poor is not same as communism. It is not trying to achieve material equality by "Robinhood like" redistribution of wealth.

Samriddhi (prosperity) is identified as a universal human goal, which gets achieved by a resolved family. Two samriddh (prosperous) families of same size may not be having the same amount of material wealth. The pre-condition for prosperity is samadhan - and with samadhan each family will be able to determine its material needs definitively. And for those definitive needs (avashyakta) would be for bodily nourishment (shareer poshan), protection (sanrakshan) and for family's contribution towards society's progress (samaj gati). Ir is not a 'one size fits all' kind of solution. Human being is too dynamic, has imagination, has free will - so communism is a very crude way, and that's why it didn't work, nor would it ever.

The rich (of today's world) are not prosperous in the sense MD talks about. The poor (of today's world) are also not prosperous in the sense MD talks about. While both rich and poor have natural expectation for becoming prosperous.

Prosperity can only be ascertained at the level of family. As it is in family that one's material needs can get identified. Prosperity is not the goal of an individual. It is a family's collective goal.

The rich will move towards prosperity by understanding the harmony, and appraising the futility of exploitation, identify their needs, renouncing what is unnecessary, and move towards living on fruits of their own labor.

The poor will move towards prosperity by understanding the harmony, overcome the state of exploitation by use of this new found intellect and their already available ability to do hard work.

Please think on these lines and visualize how both rich and poor will reach the point of equality in prosperity. This is a proposal for bringing about a civilizational change, which anchors on natural expectation already present in each human being.

Regards,
Rakesh

Gopal Bairwa said...

So the balance is achieved when rich and poor both become prosperous.

Rakesh Gupta said...

Yes... that's the idea.