ANNOUNCEMENTS



Sunday, July 6, 2014

जिज्ञासा और मेधावियों का वर्चस्व

मेरे बंधुओं, मेधावियों और जिज्ञासुओं,

मैं विश्वास करता हूँ, आप लोग बहुत सारे सवालों के दर्द से भर कर जिज्ञासा कऱ रहे हैं.  जब कभी मानव तीव्रता से जिज्ञासु होता है तब किसी दर्द भरे ढंग से ही मुक्ति पाने का आशय उसमें बनता है.  दर्द से मुक्ति पाने के आशय से ही मानव उस जिज्ञासा का समाधान चाहना शुरु कर देता है.  इस चाहत की वरीयता और सब चाहतों की तुलना में अधिक हो जाती है तो उसका समाधान समीचीन हो जाता है.  समाधान मिलने का कोई एक प्रकार नहीं है.  जैसे - अभी मैं आपको उपलब्ध हूँ.  कल मैं उपलब्ध नहीं भी रहूंगा तो भी अस्तित्व में सवालों का उत्तर रहता ही है.  इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है.  सवाल है तो उसका समाधान भी है.  सवाल जिसका जवाब न हो, वह दर्द भरा होता नहीं है.  यही इसकी कसौटी है.  मेरा स्वयं का अनुभव भी यही है.  दर्द अति तीव्र होने पर ही मेरा जिज्ञासा अति तीव्र हुआ.  दर्द तीव्र होने पर उसके निवारण की जिम्मदारी स्वीकारने और उसके समाधान को प्रमाणित करने की आवश्यकता अपने आप से बन जाती है.

प्रमाण ही मानव का मूल वर्चस्व है.  मानव समाधान से ही धनी है, न कि सवालों से!  सवालों को पैदा करने से हम विद्वान हो गए - ऐसा अभी तक सोचते रहे.  सवालों को पैदा करने से हम धनी नहीं हैं, विद्वान नहीं हैं, न मेधावी हैं.  सवाल का समाधान चाहना मेधावियों का पहला वर्चस्व है.  सवाल का समाधान समीचीन होने पर उसको अपनाना मेधावियों का दूसरा वर्चस्व है.  समाधान को प्रमाणित करना मेधावियों का तीसरा वर्चस्व है.  इन वर्चस्वों के साथ ही मेधावीजन संसार के लिये उपकारी हो पाते हैं.  केवल जिज्ञासा किया, जिसको जीना नहीं है - ऐसी जिज्ञासा से संसार का कोई फायदा होने वाला नहीं है.

आपकी पहली जिज्ञासा है - मध्यस्थ दर्शन जो मैंने प्रस्तुत किया है, उसका मतलब क्या है?

विज्ञान और आदर्शवाद के हाथ जो चीज नहीं लगी थी, वह चीज़ मेरे हाथ लग गयी.  उसका नाम 'मध्यस्थ दर्शन' है.  आदर्शवाद जो प्रतिपादित नहीं कर पाया, प्रमाणित नहीं कर पाया, दूसरों को समझाने की ताकत और तरीका पैदा नहीं कर पाया, उसी तरह विज्ञान जो पहचान नहीं पाया, प्रमाणित नहीं कर पाया, बता नहीं पाया, सोच नहीं पाया - उसका नाम मध्यस्थ दर्शन है.  अभी तक मानव इतिहास में यही दो चिंतन आये हैं - विज्ञान और आदर्शवाद। 

प्रश्न:  आपकी नज़र में आदर्शवादी चिंतन क्या है? 

आदर्शवाद "रहस्य मूलक ईश्वर केंद्रित चिंतन" की अभिव्यक्ति है.  इसके नजरिये में "ईश्वर से सब कुछ होता है."  मध्यस्थ दर्शन को अपनी स्वीकृति के रूप में प्राप्त करने के लिए इस बात को याद रखने की आवश्यकता है.  आदर्शवाद में हर बात को ईश्वर से जोड़ना चाहते हैं - ईश्वर की इच्छा से ही  पैदा हुआ, ईश्वर की इच्छा से ही रहेगा, ईश्वर की इच्छा से ही मरेगा।  पैसा मिल गया तो ईश्वर कृपा से मिल गया, यश मिल गया तो ईश्वर कृपा से, अच्छा कपड़ा मिल गया तो ईश्वर कृपा  से,   अच्छा मकान तो ईश्वर कृपा से.  दूसरे, यदि कुछ काम बिगड़ गया तो ईश्वर रूठ गए, नाराज हो गए.  इसमें शुरू में किसी को कोई आपत्ति भी नहीं थी, बाद में चर्चाएं हुईं - "ईश्वर को पहचाने बिना सब कुछ ईश्वर कृपा से होता है, ऐसा कैसे कहा जाए?"  उसका कोई उत्तर निकला नहीं।  मध्यस्थ दर्शन के निष्पन्न होने के कारण में एक यह भी रहा. 

 ईश्वर प्राप्ति के लिए पहले "ज्ञान" को ही एक मात्र मार्ग बताया था, बाद में "भक्ति" को भी मान्यता मिली.  भक्ति से भी भय-मुक्ति होती है, ऐसी परिकल्पनाएँ दी गयी.  भक्ति-मार्ग में भय से मुक्ति के लिए ईश्वर के स्थान पर देवी-देवताओं की परिकल्पना दी गयी.  देवी-देवताओं को प्रमाणित करने वाला कोई नहीं है, फिर भी बताया गया कि  उनसे भय-मुक्ति हो जाती है.  आदर्शवाद में भय को मानव की स्वाभाविक गति बताया गया है.   कोई भयभीत व्यक्ति देवताओं या ईश्वर की भक्ति से भय मुक्त हो गया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिला।  कोई आदर्शवादी व्यक्ति भी नहीं मिला जो यह घोषणा करे कि मैं भय से मुक्त हो गया हूँ और भय-मुक्त विधि से जी रहा हूँ.  जिन सिद्ध लोगों को भय मुक्त माने भी थे, वे भी ईश्वर से भय मुक्ति और दरिद्रता से मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हुए देखे गए.  ये तो करना ही है!  यदि सिद्ध लोगों को भी वही प्रार्थना करना है जो आप-हम लोगों को करना है जो सिद्ध नहीं हैं, तो उनमें और हममें फर्क क्या हुआ? 

आदर्शवाद में "जीव" और "जगत" की अवधारणा दी गयी. जिसमें भौतिक-रासायनिक संसार को जगत और मानव सहित सारे जीव-जानवरों को जीव श्रेणी में होना कहा गया है. जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है. मानव एक अलग ही अवस्था है पशु-पक्षी से. ऐसा सामान्य देखने से दिखता भी है, इसको समझने का प्रयास करें तो यह समझ भी आता है.

इस तरह आदर्शवादी मानव को पहचानने से रह गए, उसके साथ जीवन को पहचानने से रह गए. मानव को 'जीव' बताते गए. जीव में "भय" की स्वाभाविक प्रवृत्ति होना बताये। भय के लिए "आश्रय" की आवश्यकता को बताया। वह आश्रय मूलतः ईश्वर को बताया गया। ईश्वर ही सब के भय को दूर करने वाला है, जिसकी कृपा की आवश्यकता है. ईश्वर की कृपा जीवों पर बरसती है, वह मानव पर भी बरसती है - ऐसा बताये हैं.
 उसी के आधार पर वैदिक विचार में कहना पड़ा - घोड़ा, बकरी, गाय, मेढक ये सब वेद को बोले!  इस ढंग से आदर्शवादी विचार भाषा के रूप में बहुत फैला, पर प्रमाण के रूप में कहीं नहीं पहुंचा। 

आदर्शवाद में हर बात को ईश्वर से जोड़ना चाहते हैं.  ईश्वर कैसे देता है?  कैसे छुड़ा के ले जाता है?  यदि छुड़ा कर ले जाने वाला ईश्वर नहीं है तो क्या वस्तु है?  इसको खोजने की इच्छा हुआ.  ईश्वर है तो वह वस्तु के रूप में क्या है?  ईश्वर वस्तु स्वरूप में है या केवल भाषा स्वरूप में ही है?  आदर्शवादियों ने यह भी कहा कि "नाम" प्रधान है, "वस्तु" गौण है.  जबकि यहाँ कह रहे हैं - वस्तु प्रधान है, नाम वस्तु को इंगित करने के लिये है. 

प्रश्न: आपकी नज़र में विज्ञान सार रूप में क्या कहता है?

उत्तर:  विज्ञान के अनुसार भौतिक-रासायनिक वस्तु से सब-कुछ होता है.  विज्ञान के सारे कथन का सार-भूत भाग इतना ही है.  भौतिक-रासायनिकता की सीमा में मानव आता नहीं है.  जीवन की पहचान विज्ञान द्वारा नहीं हो पायी।  विज्ञान द्वारा मानव का अध्ययन नहीं हुआ. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (१९९९, आंवरी)

No comments: