अस्तित्व में सत्ता स्वयं ही मध्यस्थ है क्योंकि सम्पूर्ण प्रकृति सत्ता में सम्पृक्त विधि से ही नित्य वर्तमान है. इसी विधि से अस्तित्व सहज पूर्णता सहअस्तित्व रूप में नित्य वर्तमान होना स्पष्ट है. सत्ता स्थिति पूर्ण होना देखा गया है. स्थितिपूर्णता का वैभव पारगामीयता और पारदर्शीयता के रूप में दृष्टव्य है.
सत्तामयता का प्रभाव पारगामीयता और पारदर्शीयता के रूप में व्यक्त है.
सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अविभाज्य है. यह अविभाज्यता निरंतर है. इसीलिये सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति नित्य वर्तमान ही है. अस्तित्व स्वयं भाग-विभाग नहीं होता है इसीलिये अस्तित्व अखंड-अक्षत होना समझ में आता है. प्रमुख अनुभव यही है कि सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अनंत रूप में दिखाई पड़ती है. ये सब (प्रकृति की इकाइयां) भाग-विभाग के रूप में ही सत्ता में दिखाई पड़ती हैं. इसे सटीक इस प्रकार देखा गया है - व्यवस्था का भाग-विभाग होता नहीं। अस्तित्व ही व्यवस्था का स्वरूप है.
सत्ता में होने के कारण हर वस्तु सत्ता में भीगा, डूबा, घिरा दिखाई पड़ता है. ऐसे दिखने वाली वस्तु में स्वयंस्फूर्त विधि से क्रियाशीलता वर्तमान है. यह क्रियाशीलता गति, दबाव, प्रभाव के रूप में देखने को मिलता है. दूसरे विधि से सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति ही स्थिति-गति, परस्परता में दबाव, तरंग पूर्वक आदान-प्रदान सहज विधि से पूरकता, उद्दात्तीकरण, रचना-विरचना के रूप में होना देखने को मिलता है. और परमाणु में विकास (गठन पूर्णता) चैतन्य पद में संक्रमण, जीवन पद प्रतिष्ठा होना देखा गया है. जीवन और रासायनिक-भौतिक पदों के लिए परमाणु ही मूल तत्व होना समझ में आता है. सत्ता में सम्पृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति में व्यवस्था के मूल तत्व के रूप में परमाणु को देखा जाता है.
सहअस्तित्व ही अनुभव करने योग्य सम्पूर्ण वस्तु है. सहअस्तित्व में अनुभव होने की स्थिति में सत्तामयता ही व्यापक होने के कारण अनुभव की वस्तु बनी ही रहती है. इसी वस्तु में सम्पूर्ण इकाइयाँ दृश्यमान रहते ही हैं. परम सत्य सहअस्तित्व में जब अनुभूत होते हैं, उसी समय सत्तामयता में अभिभूत होना स्वाभाविक है. अभिभूत होने का तात्पर्य सत्ता पारगामी, व्यापक, पारदर्शी होना अनुभव में आता है. अनुभव करने वाला वस्तु जीवन ही होता है. सत्तामयता पारगामी होने का अनुभव ही प्रधान तथ्य है.
सत्ता में अनुभव के उपरान्त ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा निरंतर होना देखा गया है. इसी अनुभव के अनन्तर सह-अस्तित्व सहज सम्पूर्ण दृश्य, जीवन प्रकाश में समझ आता है. जीवन प्रकाश का प्रयोग अर्थात परावर्तन, अनुभव मूलक विधि से प्रामाणिकता के रूप में बोध, संकल्प क्रिया सहित मानव परंपरा में परावर्तित होता है. जागृतिपूर्ण जीवन क्रियाकलाप अनुभवमूलक ज्ञान को सदा-सदा के लिए व्यवहार और प्रयोगों में प्रमाणित कर देता है. यही मानव परंपरा सहज आवश्यकता है.
- अनुभवात्मक अध्यात्मवाद से
सत्तामयता का प्रभाव पारगामीयता और पारदर्शीयता के रूप में व्यक्त है.
सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अविभाज्य है. यह अविभाज्यता निरंतर है. इसीलिये सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति नित्य वर्तमान ही है. अस्तित्व स्वयं भाग-विभाग नहीं होता है इसीलिये अस्तित्व अखंड-अक्षत होना समझ में आता है. प्रमुख अनुभव यही है कि सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अनंत रूप में दिखाई पड़ती है. ये सब (प्रकृति की इकाइयां) भाग-विभाग के रूप में ही सत्ता में दिखाई पड़ती हैं. इसे सटीक इस प्रकार देखा गया है - व्यवस्था का भाग-विभाग होता नहीं। अस्तित्व ही व्यवस्था का स्वरूप है.
सत्ता में होने के कारण हर वस्तु सत्ता में भीगा, डूबा, घिरा दिखाई पड़ता है. ऐसे दिखने वाली वस्तु में स्वयंस्फूर्त विधि से क्रियाशीलता वर्तमान है. यह क्रियाशीलता गति, दबाव, प्रभाव के रूप में देखने को मिलता है. दूसरे विधि से सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति ही स्थिति-गति, परस्परता में दबाव, तरंग पूर्वक आदान-प्रदान सहज विधि से पूरकता, उद्दात्तीकरण, रचना-विरचना के रूप में होना देखने को मिलता है. और परमाणु में विकास (गठन पूर्णता) चैतन्य पद में संक्रमण, जीवन पद प्रतिष्ठा होना देखा गया है. जीवन और रासायनिक-भौतिक पदों के लिए परमाणु ही मूल तत्व होना समझ में आता है. सत्ता में सम्पृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति में व्यवस्था के मूल तत्व के रूप में परमाणु को देखा जाता है.
सहअस्तित्व ही अनुभव करने योग्य सम्पूर्ण वस्तु है. सहअस्तित्व में अनुभव होने की स्थिति में सत्तामयता ही व्यापक होने के कारण अनुभव की वस्तु बनी ही रहती है. इसी वस्तु में सम्पूर्ण इकाइयाँ दृश्यमान रहते ही हैं. परम सत्य सहअस्तित्व में जब अनुभूत होते हैं, उसी समय सत्तामयता में अभिभूत होना स्वाभाविक है. अभिभूत होने का तात्पर्य सत्ता पारगामी, व्यापक, पारदर्शी होना अनुभव में आता है. अनुभव करने वाला वस्तु जीवन ही होता है. सत्तामयता पारगामी होने का अनुभव ही प्रधान तथ्य है.
सत्ता में अनुभव के उपरान्त ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा निरंतर होना देखा गया है. इसी अनुभव के अनन्तर सह-अस्तित्व सहज सम्पूर्ण दृश्य, जीवन प्रकाश में समझ आता है. जीवन प्रकाश का प्रयोग अर्थात परावर्तन, अनुभव मूलक विधि से प्रामाणिकता के रूप में बोध, संकल्प क्रिया सहित मानव परंपरा में परावर्तित होता है. जागृतिपूर्ण जीवन क्रियाकलाप अनुभवमूलक ज्ञान को सदा-सदा के लिए व्यवहार और प्रयोगों में प्रमाणित कर देता है. यही मानव परंपरा सहज आवश्यकता है.
- अनुभवात्मक अध्यात्मवाद से
No comments:
Post a Comment