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Friday, April 27, 2012

ज्ञानगोचर को प्राथमिकता दी जाए


समझने की प्यास हम सभी में एक जैसी है.  समझने के लिए कुछ बातें दृष्टिगोचर और ज्ञानगोचर संयुक्त रूप में हैं.  कुछ बातें केवल ज्ञानगोचर से ही तृप्त होती हैं.  “ज्ञानगोचर भाग को समझ गए हैं”, इस बात का प्रमाण केवल व्यवहार में ही आता है.  व्यवहार में समाधान प्रमाणित होना ही अखंड समाज का पहला सूत्र है.  ज्ञानगोचर सभी का स्वत्व बनने की आवश्यकता है.  “इसको क्या मैं केवल मान लूं?” ऐसा शंका करना यहाँ उचित नहीं है.  “यह मुझे समझ में आया या नहीं समझ में आया” – इस तरह अध्ययन क्रम में चलना है.  ज्ञानगोचर को अपना स्वत्व बनाने के लिए ध्यान देना ही पड़ता है.  इसमें दूसरे द्वारा स्वयं पर कुछ आरोपण का मतलब ही नहीं है.  दूसरे से सूचना है.  ध्यान देना आप ही को है, समझना आप ही को है.  मेरी समझदारी मेरा ही स्वत्व है, उसकी सूचना आप तक पहुँचता है.  सूचना है – कैसे मैं इसको पा गया, कैसे मैं इसको समझ गया, कैसे इसको जी गया.  मेरे जीने से आप सहमत हो गए.  समझने में भी आप सहमत हो गए.  समझ को आपका अपना स्वत्व बनाने में कहीं न कहीं देरी है. ज्ञानगोचर को स्वत्व बनाने के बाद आप अपना ताना-बाना बनाइये.  पहले अपना ताना-बाना बनाना आपके समझने में अड़चन बन जाता है.  मानव की कल्पनाशीलता में समझने का ताना-बाना भी आता है, समझाने का ताना-बाना भी आता है.  ये दोनों साथ-साथ रहता है.  इसमें समझने के पक्ष को प्राथमिक बनाया जाए.  “मैं इन्द्रियगोचर संपन्न हूँ, ज्ञानगोचर संपन्न हो सकता हूँ” – इस विश्वास के साथ चलें, तो ध्यान देने पर बात बन जायेगी.  इस में कोई काली दीवाल आएगा नहीं.  यह सबसे मासूम, सबसे प्राथमिक, सर्वप्रथम समझने की चीज है.  यह समझ में आने के बाद सब हल हो जाता है.

पारगामीयता का मतलब है - सब में निर्बाध प्रवेश पूर्वक चले जाना.  विगत में ब्रह्म के बारे में बताया था – “यह सब में समा गया है.”  समाने वाली बात गलत निकल गयी.  “समाने” का मतलब ऐसा निकलता है – जिसमे समाया उसमे रहा, बाकी में नहीं रहा.  यहाँ बताया है – ब्रह्म (सत्ता) जड़-चैतन्य वस्तु में पारगामी है.  मेरे अनुसंधान का पहला प्रतिपादन यही है.  जड़-चैतन्य में पारगामी होने से जड़ में ऊर्जा-सम्पन्नता और चैतन्य में ज्ञान-सम्पन्नता है.  जड़ प्रकृति में मूल-ऊर्जा यही है.  साम्य-ऊर्जा उसको नाम दिया है.  चैतन्य प्रकृति में ज्ञान यही है.  ज्ञान जीव-संसार में चार विषयों में प्रवृत्ति और संवेदना के रूप में प्रकट है.  मानव में संवेदनाएं प्रबल हुआ, तथा कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता ज्ञान-संपन्न होने के लिए प्रवृत्त हुआ.  ज्ञानगोचर को स्वत्व बनाने के लिए मानव के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता स्वाभाविक रूप में प्रकृति-प्रदत्त है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता की तृप्ति के लिए ही पूरा ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर का प्रयोग है.  इन्द्रियगोचर का प्रयोग करने में मानव पारंगत है.  अब ज्ञानगोचर भाग को जोड़ने की आवश्यकता है.  उसको जोड़ने की आवश्यकता क्या है? सुखी होना.  समाधान पूर्वक सुखी होना होता है.  समस्या पूर्वक दुखी होना होता है.  अब प्रोत्साहन है – ज्ञानगोचर को प्राथमिकता दी जाए.  सारा उन्माद इन्द्रिय-गोचर विधि से है.  मानव का अध्ययन इन्द्रिय-गोचर विधि से हो नहीं पाता.  सत्ता में संपृक्त प्रकृति को समझना, जीवन को समझना, सार्वभौमता को समझना, अखंडता को समझना, प्रबुद्धता पूर्ण होना यह ज्ञानगोचर विधि से ही होगा.

मानव जो कुछ भी बात-चीत करता है वह ज्ञान की अपेक्षा में ही करता है.  मानव बहुत सारे भाग में ज्ञानगोचर विधि से जीता ही है.  विषयों और संवेदनाओं में भी मानव जो अभी जीता है वह भी ज्ञानगोचर विधि से ही जीता है.  पहले कल्पना से पहचानता है, फिर उसको शरीर द्वारा करता है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता ज्ञानगोचर ही है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग चेतना-विकास के लिए होने की आवश्यकता है.  इस पर तुलने की ज़रूरत है.  यही मूल मुद्दा है.   

श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८). 

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