आप हमारे बीच में जो खाली वस्तु है, हर परस्परता के मध्य में जो वस्तु है – वही सत्ता है. सत्ता पारगामी, पारदर्शी और व्यापक है. व्यापक का अर्थ है – सर्वत्र विद्यमान रहना. पारगामी होने के आधार पर जड़-प्रकृति ऊर्जा-संपन्न है और चैतन्य-प्रकृति ज्ञान-संपन्न है. सत्ता ही साम्य-ऊर्जा है और सत्ता ही ज्ञान है.
सत्ता (ज्ञान) के पारगामी होने के आधार पर ही अस्तित्व मानव को स्वीकार होता है, अन्यथा मानव में कहाँ से आएगा? ज्ञानगोचर को छोड़ करके हम चलते हैं तो यांत्रिकता के अलावा कुछ मिलेगा नहीं.
प्रश्न: “सत्ता ही साम्य-ऊर्जा है और सत्ता ही ज्ञान है” – इस को कैसे समझें?
प्रश्न: सत्ता की “पारदर्शीयता” से क्या आशय है?
उत्तर: आप और हम यहाँ आमने-सामने बैठे हैं. आपको मैं पहचान रहा हूँ, मुझको आप पहचान रहे हैं. बीच में सत्ता इस पहचान को रोकता नहीं है. आप अपने को यथावत प्रस्तुत करें और मैं अपने को यथावत प्रस्तुत करूँ, इसमें सत्ता सहमत है. इसीलिये सत्ता पारदर्शी है. हम और आप एक दूसरे को देख-समझ पा रहे हैं – यही सत्ता की पारदर्शीयता का “प्रमाण” है.
प्रश्न: जैसे बिजली के कारण-वश बल्ब जलता है – सत्ता के कारण-वश प्रकृति क्रियाशील है. बिजली के स्त्रोत को हम हटा देते हैं तो बल्ब जलता नहीं है – इसलिए हमको यह सिद्ध हो जाता है कि बिजली के कारण ही बल्ब जल रहा था. लेकिन सत्ता के साथ ऐसा किया नहीं जा सकता, फिर सत्ता को कारण स्वरूप में कैसे समझें?
उत्तर: सत्ता को हटाया नहीं जा सकता – इसलिए सत्ता और प्रकृति के सह-अस्तित्व को इस विधि से नहीं सिद्ध कर सकते. “सत्ता पारगामी है, इसलिए प्रकृति क्रियाशील है” – यह मानव के “समझ” में आता है. समझ का मतलब है – ज्ञान. मैंने जो “समझा” है – वह आपको बताया है. जो मैंने बताया है – वह आपके लिए “सूचना” है. आप भी उस ओर “ध्यान” देकर (या अध्ययन पूर्वक) उसे “समझ” सकते हैं. मैंने भी उसे “ध्यान” दे कर अध्ययन पूर्वक “समझा” है. आपको अपने “समझने के अधिकार” का प्रयोग करना है. अध्ययन पूर्वक “समझने का अधिकार” हर व्यक्ति में रखा हुआ है. मानव में जो “कल्पनाशीलता” है – अध्ययन का आधार वहीं से है. ज्ञान-सम्पन्नता का आंशिक भाग कल्पनाशीलता ही है. कल्पनाशीलता का आप “सदुपयोग” करेंगे तो सत्ता की पारमीयता, पारदर्शीयता, व्यापकता भी समझ आता है. वही ज्ञान-गोचर है. ज्ञान-गोचर विधि से मानव “समझ” सकता है. इन्द्रिय-गोचर विधि से “समझ” में नहीं आता है. मानव ज्ञान-अवस्था की इकाई है. ज्ञान-गोचर विधि से ही मानव की सार्थकता है. ज्ञान-गोचर विधि से समझने में केवल जीवन का ही श्रम है, शरीर का कोई श्रम नहीं है. ज्ञान गम्य होने में जीवन ही श्रम करता है. शरीर से कोई श्रम नहीं होता. ज्ञान को परंपरा में प्रमाणित करने के लिए जीवन शरीर द्वारा प्रस्तुत होता है. उसी ढंग से मैं जीता ही हूँ.
“देखने का मतलब ही समझना है.” कहीं न कहीं इस बात को समझने में हम अटक जाते हैं. शरीर का एक भाग है – “सुनना”. जो सुना, उसका कुछ अर्थ होता है. वह अर्थ अस्तित्व में वस्तु है. वस्तु को वस्तु स्वरूप में साक्षात्कार करना ही “समझने” का मतलब है. मुझको समझ में आ सकता है तो आपको भी आ सकता है. आँखों से जो दिखता है उससे जो निष्कर्ष निकलता है, बारम्बार उसे गौण करके “समझने” को प्राथमिक करने से समझ में आता है.
प्रश्न: पानी में जैसे कपड़ा भीगता है, क्या वैसे ही ज्ञान में जीवन भीगा है?
उत्तर: किसी भी तरह की उपमा विधि से यह पूरा नहीं पड़ता. ज्ञान या सत्ता जैसा और कोई वस्तु नहीं है. उपमा विधि से “भीगे होने” की वास्तविकता को समझाने की शुरुआत है. हर परमाणु-अंश भीगा है, हर परमाणु भीगा है, शरीर भीगा है, जीवन भीगा है. इसको ज्ञान-गोचर विधि से स्वीकारना होता है. भीगे होने का प्रमाण है – क्रियाशीलता. क्रियाशीलता का कुछ भाग (रासायनिक भौतिक वस्तुएं) इन्द्रिय-गोचर होने के साथ ज्ञान-गोचर भी है. जीवन संबंधी वस्तुएं और सत्ता केवल ज्ञान-गोचर हैं. ज्ञान-गोचर पक्ष पर यदि हमको यकीन होता है तो इस बात को “समझने” में हमको तकलीफ नहीं होगा. ज्ञान-गोचर पक्ष को पहचानना जीवन का अधिकार है, जब हम यह स्वीकार पाते हैं – तब हम “समझ” पाते हैं. यदि ऐसा नहीं स्वीकार पाते हैं तो नहीं समझ पायेंगे. ज्ञान-गोचर पक्ष पर आपका गम्यता कहाँ तक हुआ है, उसको सोचना चाहिए.
आप और हम इसको समझने और समझाने के प्रयास में चल रहे हैं. “यह समझ में नहीं आ सकता” – ऐसा निर्णय नहीं ले लेना. “इसको हम समझना चाहते हैं” – यहाँ तक आप की बात ठीक है.
प्रश्न: तो क्या अभी आपकी बात हम बिना समझे स्वीकार लें?
उत्तर: समझने पर ही कोई भी बात स्वीकार होता है या अस्वीकार होता है. “बिना समझे हम स्वीकारेंगे नहीं!” – इस हठ से तो आप इस प्रस्ताव को सुनेंगे ही नहीं. इस प्रस्ताव को “सुनना है” या “नहीं सुनना है”, “समझना है” या “नहीं समझना है”, फिर “स्वीकारना है” या “नहीं स्वीकारना है” – यह आपके अधिकार की बात है. इसका मार्ग है: - “पहले समझने के लिए स्वीकारना. फिर समझ कर स्वीकारना.”
प्रश्न: तो क्या आपके तर्क को समझ कर ही स्वीकारा जा सकता है?
उत्तर: यह प्रस्ताव तर्क नहीं है, स्वयं में शोध की बात है. हम समझ पा रहे हैं या नहीं समझ पा रहे – इसका स्वयं में शोध होना. अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझ पा रहे हैं या नहीं – इसका स्वयं में शोध होना. अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझना ही ज्ञान-गोचर है. सत्ता और जीवन को ज्ञान-गोचर विधि से ही समझा जा सकता है. इन्द्रिय-गोचर विधि से यह होगा नहीं! इन्द्रिय-गोचर विधि से केवल इनके लक्षण आते हैं. जैसे मैं जो समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ, मेरे वह लक्षण आप तक पहुँचता है. वह सूत्र भेदते-भेदते जीवन-गत होता है. जीवन-गत होने पर ज्ञान-गोचर होता है. ज्ञान-गोचर हो जाने पर वह आपका स्वत्व हो गया. समझ स्वत्व होने पर स्वतन्त्र हो गए. मानव के लिए ज्ञान-गोचर विधि से ही तृप्ति बिंदु है. मानव ज्ञान-विधि से ही तृप्त होता है. यांत्रिक विधि से मानव तृप्त हो नहीं सकता.
उत्तेजित होकर समझा नहीं जा सकता. शान्ति पूर्वक ही समझा जा सकता है. सत्ता की सर्वत्र विद्यमानता, सर्वत्र पारदर्शीयता और सर्वत्र पारगामीयता ज्ञान-गोचर है. इन तीनो बातों पर ध्यान देना होता है. सबसे ज्यादा ज्ञान-गोचर कुछ है, तो वह यही है. इस भाषा का क्या अर्थ है – इसका शोध करने का दायित्व आपका स्वयं का है. इसीलिये “ध्यान” देने के लिए कह रहे हैं. समझने के लिए ध्यान देना होता है, समझने के बाद ध्यान बना ही रहता है. ध्यान का मतलब विधिवत अध्ययन करना ही है. इसके अलावा पूर्णता पाने के लिए दूसरा रास्ता समाधि-संयम पूर्वक अनुसंधान है – जो अँधेरे में हाथ मारने जैसा है. मिल जाए तो ठीक है, नहीं तो और हाथ मारते रहो! भौतिकवादी विधि से यांत्रिकता हाथ लगती है. यांत्रिकता गलत है – ऐसा मैंने नहीं कहा है. यांत्रिकता की सीमा में मनुष्य नहीं है – यह कहा है. संज्ञानीयता यांत्रिकता की सीमा में नहीं है.
संज्ञानीयता है – सत्ता में संपृक्त प्रकृति को समझना. यह समझ में नहीं आता है तो संज्ञानीयता में प्रवेश ही नहीं हुआ. संज्ञानीयता की शुरुआत ही यहाँ से है. यही मूल मुद्दा है. सत्ता में संपृक्त प्रकृति में ही परिवर्तन, परिमार्जन और गुणात्मक-विकास तक का सम्बन्ध बना हुआ है. सत्ता में संपृक्तता समझ में नहीं आता है तो हम कितना भी प्रयास करें – वह अधूरा ही रहेगा. ज्ञानगोचर प्रक्रिया जीवन में समाहित है ही. जीवन ज्ञानेन्द्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों) से जो भी देखता है, वह ज्ञान-संपन्न होने के लिए ही देखता है. उसमे कोई तकलीफ भी नहीं है. ज्ञानगोचर होने के लिए हमको ज्यादा बल देने की ज़रूरत है. संपृक्तता समझ में नहीं आ रहा है, उसका कारण है – इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर का भेद स्पष्ट नहीं होना. इन्द्रिय संवेदनाओं से ज्ञान होने के सम्बन्ध को हमने स्वीकार लिया है. ज्ञानगोचर विधि में ज्ञान से ही वास्तविकताएं स्पष्ट होना और व्यवहार में उसका संकेत पहुँच जाना होता है. मैंने जो जिया है, उसका तरीका यही है. मैं तो इतना ही कह सकता हूँ.
- - श्री ए. नागराज के
साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८).
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