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Tuesday, April 10, 2012

मानव का अधिकार

“होने” का नाम है - अस्तित्व. “रहने” का नाम है – अधिकार. अस्तित्व सह-अस्तित्व है. सह-अस्तित्व = व्यापक वस्तु में एक-एक वस्तुएं अविभाज्य वर्तमान हैं. अस्तित्व चार अवस्थाओं के रूप में प्रकट है. पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था के रूप में जो है – वही अस्तित्व है. पदार्थ-अवस्था का “अधिकार” या “रहने” का स्वरूप है – होने को बनाए रखना. प्राण-अवस्था का “अधिकार” है – अस्तित्व सहित पुष्टि. एक से अनेक स्वरूप में अवतरित होने का अधिकार प्राण-अवस्था में है. जीव-अवस्था में वंश के अनुसार रहने का “अधिकार” है. जैसे – गाय का बछड़ा गाय-वंश के अनुसार रहने का अधिकार के साथ ही जन्म लेता है. मानव (ज्ञान-अवस्था) में देखते हैं तो उसके “रहने” का निश्चित स्वरूप या “मानव का अधिकार” तय ही नहीं हुआ! इसका कारण है – मानव का अध्ययन नहीं हुआ. हर मानव अभी अपने अलग स्वरूप में काम करता है. अभी मानव अलग अलग परिस्थितियों में अलग अलग स्वरूप में काम करता है. इस कारण से मानव के निश्चित आचरण का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाया. स्पष्ट होने की ज़रूरत है या नहीं?

मानव चेतना के साथ “मानव का आचरण” या “मानव का अधिकार” स्पष्ट होता है. मानवत्व मानव-चेतना के साथ है. मानव चेतना पूर्वक यदि मानव जीता है तो वह भ्रम मुक्त हो सकता है और अपराध मुक्त हो सकता है. मानव चेतना की शिक्षा देने से बच्चों में मानवत्व आ सकता है. “मानव का अधिकार” है – रूप, पद, बल, धन और बुद्धि. इसमें से रूप, पद, बल और धन के अधिकार को मानव उपयोग कर चुका है. इस तरह मानव का आचरण स्पष्ट नहीं हुआ. इसके प्रमाण में नर-नारी में समानता आया नहीं, अमीरी-गरीबी में संतुलन इससे हुआ नहीं. मानव ने बुद्धि के अधिकार का प्रयोग नहीं किया है. बुद्धि के अधिकार का प्रयोग करने का मतलब है - समझदारी पूर्वक जीना. मानव को अधिकार पूर्वक जीने के लिए “समझदारी” का उपार्जन करना आवश्यक है.

- नवम्बर २००९, अछोटी अध्ययन शिविर के प्रतिभागियों के साथ संवाद पर आधारित.

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