This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
ज्ञान को परम्परा में प्रमाणित होना है, यह आदर्शवाद ने माना ही नहीं. व्यक्ति ज्ञानी हो सकता है, यह माना। इससे लोगों की मान्यता में यह आया कि हर व्यक्ति को पूरा समझने की ज़रुरत नहीं है. एक व्यक्ति समझेगा, बाकी लोग उसका अनुकरण करेंगे। अनुकरण विधि से हम सही हो सकते हैं, समझना बहुत ज़रूरी नहीं है. इसको चाहे आदर्शवाद का उपकार मानो या बर्बादी मानो! जबकि यहाँ हम कह रहे हैं - समझना ही प्रधान है, अनुकरण करना दूसरे नंबर पर है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)
समानता का आधार अनुभव मूलक विधि से ही आता है, बोलने की विधि से नहीं आता है. तीन लोग तीन बात बोलते हैं, उससे तीन रास्ते बन जाते हैं, जबकि अनुभव सभी का एक ही होता है. सहअस्तित्व में ही अनुभव होता है, दूसरा कुछ होता नहीं है. सहअस्तित्व में अनुभव होने से अनुभव प्रमाण, व्यव्हार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण होता है. मैं सोचता हूँ मनुष्य यदि व्यव्हार प्रमाण में जी जाए तब भी शांति पूर्वक जी सकता है. व्यव्हार प्रमाण में जीना = स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, दया पूर्ण कार्य व्यव्हार में जीना। इसमें से स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष तो इच्छा के आधार पर भी हो जाता है, पर दया पूर्ण कार्य व्यव्हार में जीने के लिए अनुभव करने की आवश्यकता है.
व्यक्ति में जो अनुभव करने की अर्हता है, क्या उसका हनन किया जा सकता है? अभी इतना समय तक जो मानव जिया, क्या उसका हनन हुआ? "गुरु जी अनुभव करेंगे, शिष्यों को अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है" - यह तरीका इसमें नहीं चलता। इसीलिये ऐसी व्यक्तिवादी बात को गौण कर दिया, समुदायवाद की समीक्षा कर दिया। व्यक्ति में क्या होना चाहिए, उसको तय कर दिया।
भौतिकवादी विधि से यौन चेतना के लिए सुविधा संग्रह के लिए आदमी फंसा है, और उसका कोई कार्यक्रम नहीं है. आदर्शवाद में ईश्वर भला करेगा इस आस्था के साथ ईश्वर के भय से लोग त्रस्त होते थे. स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय रहा. अब वह समाप्त हो गया और सभी अवैध बातों को वैध मानने के लिए मानव तैयार हो गया.
अब मानवीयता पूर्वक जीने की आवश्यकता बनेगी तो उसमे हम सफल होंगे. यह आवश्यकता यदि सर्वोच्च प्राथमिकता में आ जाता है तो जल्दी होगा, यदि प्राथमिकता द्वितीय रहती है तो देर से होगा, यदि तृतीय रहती है तो अगले जन्म में होगा! प्राथमिकता को हर व्यक्ति को अपने में तय करना होगा। दूसरा कोई कर नहीं सकता।
इस जगह में आने के पहले से हम व्यव्हार को लेकर प्रयत्न किये रहते हैं, लेकिन व्यव्हार पक्ष में ठीक होते हुए भी स्वयं में तृप्ति नहीं रहती है. तृप्ति के लिए अनुभव होना आवश्यक है. अनुभव के लिए या तो अध्ययन है या अनुसन्धान है. अनुसन्धान पूर्वक अनुभव करो या अध्ययन पूर्वक अनुभव करो!
प्रश्न: अब जब अध्ययन विधि स्थापित हो गयी है तो क्या अनुसन्धान विधि का कोई अर्थ बनेगा?
उत्तर: अध्ययन विधि अभी प्रस्ताव स्तर पर है. जब परम्परा बन गया तब स्थापित होगा. तब यह generalise होगा. अतिवाद में हम जा ही नहीं सकते. अभी भाषा के रूप में स्थापित हुआ है, अनुभव के रूप में स्थापित होना अभी शेष है. अनुभव रूप में स्थापित होने से ही प्रमाण होगा. दूसरा कोई भी रास्ता नहीं है। बातें हम बहुत सी कर सकते हैं, पर रास्ता तो एक यही है. अभी जैसे बात करते हैं - शिखर पर पहुँचने के कई रास्ते हैं, किसी से भी पहुँच सकते हैं. कौन पहुंचा? पूछने पर कोई प्रमाण मिलता नहीं है. प्रमाण के बिना मार्ग का कोई अर्थ नहीं है. प्रमाण परम्परा में आने पर हम दावा कर सकते हैं कि हम समझ गए. तब तक सुने हैं, सुनाते हैं - इतना ही है. वेद विचार जैसे श्रुति था - वैसे ही. वेद विचार को श्रुति ही बताया है, अनुभव नहीं बताया है. वहां बताते हैं, कोई कोई आप्त-पुरुष होता है जिसको अनुभव होता है. मानवीय परम्परा का जो यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रस्ताव कर रहे हैं, वह परंपरा में नहीं है. व्यक्ति कोई जागृत हुआ हो तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि परम्परा में प्रमाण नहीं है. सारे वेद विचार में इसका जिक्र नहीं है. वेद विचार को मैंने पूरा जांच लिया। मैं इतना ही कर सकता था. आइंस्टीन, न्यूटन, डार्विन, फ्रायड, मार्क्स आदि को मैंने पढ़ा नहीं है, लेकिन समीक्षा किया है कि ये लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी विचार हैं.
जीवन को सच्चाई चाहिए। सच्चाई को सहअस्तित्व स्वरूप में बताया है. पहले सहअस्तित्व ज्ञान में ही अनुभव होता है, अनुभव के बिना ज्ञान होता नहीं है. ज्ञान बोलने में बनेगा, पर स्वत्व के रूप में होता नहीं है. ज्ञान से संतुष्टि होता है कहा जाए, या और किसी चीज़ से? अरबों रुपया खर्च करके भी ज्ञान से होने वाला संतुष्टि नहीं हो सकता।
पूरा मानव जाति भ्रम में फंसा है. सभी अपराधों को वैध मान लिया है. अब इस प्रस्ताव को सुनने वाले को पश्चात्ताप तो होता है. कोई उसी जगह से लौट जाता है, कोई जूझ जाता है. जूझने वालों का यह जीवन विद्या सम्मलेन है!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अमरकंटक, सितम्बर २०११)
मानव को जीव नियंत्रित नहीं कर पाते हैं, मानव उनको नियंत्रित कर सकता है. मांसाहारी पशुओं की संख्या कितना रखना है, कितना नहीं रखना है - इसको सोचने का अधिकार मानव के पास है. जैसे - मच्छरों का नियंत्रण करने के लिए हम कुछ धुआं आदि का उपाय करते हैं, वैसे ही बाघ-भालू के नियंत्रण के लिए भी उपाय होगा, उसका प्रयोग होगा।
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)
प्रश्न: समाधि-संयम पूर्वक आपको सत्ता का स्वरूप कैसा दिखा?
उत्तर: समाधि की स्थिति में मुझे गहरे पानी में आँख खोलने पर जैसे प्रकाश दिखता है, वैसा दिखता रहा. समाधि में मुझे सत्ता ही दिखता रहा, यह संयम में स्पष्ट हो गया. संयम में पता चला कि मैं समाधि में सत्ता को ही देख रहा था. समाधि के आधार पर ही संयम में अध्ययन करना बना.
प्रश्न: समाधि में जैसा आपको दिखता रहा, हमको वैसा दिखता नहीं है. इसका क्या कारण है?
उत्तर: समाधि की स्थिति में जीवन शरीर को छोड़ा रहता है. सशरीर जब आप देखते हैं तो आँख से वह स्वरूप आपको दिखता नहीं है.
प्रश्न: अध्ययन विधि में शरीर के साथ सत्ता का स्वरूप हमको कैसा दिखेगा?
उत्तर: इन्द्रियगोचर विधि और ज्ञानगोचर विधि दोनों मानव में है. सत्ता ज्ञानगोचर वस्तु है. ज्ञानगोचर विधि से आपको सत्ता का स्वरूप समझ में आएगा. ज्ञानगोचर विधि से सत्ता का स्वरूप मुझे संयम में समझ में आया. ज्ञानगोचर विधि से ही सत्ता का स्वरूप आपको अध्ययन पूर्वक समझ में आएगा।
प्रश्न: समाधि की स्थिति को आप इन्द्रियगोचर कहेंगे या ज्ञानगोचर कहेंगे?
उत्तर: वह इन्द्रियगोचर भी नहीं है, ज्ञानगोचर भी नहीं है. समाधि एक घटना है. जैसे, हथोड़े से किसी पत्थर को हमने तोडना शुरू किया। १०० चोटों तक टूटा नहीं, १०१ वीं चोट में टूट गया. १०० चोटों में टूटने की घटना का कारण बनता रहा, १०१वीं चोट में टूटने की घटना आंकलित हो गया. वैसे ही समाधि घटना की पृष्ठभूमि साधना से बनी, समाधि घटना में आशा-विचार-इच्छा का चुप होना आंकलित हो गया. उस में कोई ज्ञान नहीं हुआ. संयम काल में समाधि का मूल्यांकन हुआ. संयम काल में सत्ता में अनंत प्रकृति डूबा-भीगा-घिरा स्वरूप में देख लिया।
प्रश्न: सत्ता ही ऊर्जा है, सत्ता ही ज्ञान है - यह निष्कर्ष कैसे निकाला?
उत्तर: भौतिक रासायनिक वस्तु में अपनी कोई ताकत नहीं है, ताकत सत्ता है. हर वस्तु क्रियाशील है, अतः ऊर्जा संपन्न है. अगर वस्तु में अपनी अलग ताकत होती तो वह सत्ता से अलग भी पाया जाता। कोई जगह ऐसी है भी नहीं, जहाँ सत्ता न हो.
ऊर्जा से बाहर वस्तु जा नहीं सकता, ऊर्जा के बिना वस्तु रह नहीं सकता. इस आधार पर कहा - वस्तु ऊर्जा संपन्न है.
ऊर्जा का प्यास वस्तु को है, वस्तु का प्यास ऊर्जा को है. इस तरह वस्तु और ऊर्जा की नित्य सामरस्यता बन गयी, जिसको हम 'सहअस्तित्व' नाम दे रहे हैं. न वस्तु सत्ता को छोड़ सकता है, न सत्ता वस्तु को छोड़ सकती है - सहअस्तित्व इसका नाम दिया है. सत्ता का प्यास वस्तु को है, क्योंकि वस्तु को क्रिया करने के लिए ऊर्जा चाहिए। वस्तु का प्यास सत्ता को है, क्योंकि सत्ता को प्रकट होने के लिए वस्तु चाहिए।
वस्तु सत्ता में समाया है, सत्ता स्थितिपूर्ण यथावत संतुष्ट है. सत्ता में कोई चाहत नहीं है. चाहत वस्तु में होता है, चाहत ऊर्जा में नहीं है. चाहत एक निश्चित दायरे में होता है. निश्चित दायरे में नहीं है तो चाहत कहाँ है? सत्ता सर्वत्र होने के आधार पर उसमे किसी इकाई विशेष का नाश करने (या उद्धार करने) का कोई स्वरूप नहीं बनता। (भौतिक रासायनिक) वस्तु कहीं भी जाए, उसको रहना सत्ता में ही है. ज्ञान भी वैसा ही है. मनुष्य ज्ञान के बिना रह नहीं सकता, भौतिक-रासायनिक (जड़) वस्तु ऊर्जा के बिना रह नहीं सकता।
जड़ प्रकृति मूल ऊर्जा के बिना रह नहीं सकता। कार्य ऊर्जा के कारण स्वरूप में मूल ऊर्जा (सत्ता) है.
मूल ऊर्जा के बिना जड़ प्रकृति कार्य कर ही नहीं सकता। उसी प्रकार चैतन्य चेतना के बिना कार्य कर ही नहीं सकता। चैतन्य प्रकृति का मानव जीव चेतना को अपना कर दुखी रहता है, दुखी करता है. मानव चेतना को अपना कर सुखी रहता है, सुखी करता है.
चैतन्यता को हर व्यक्ति अपने में जांच सकता है, उसके आधार पर जड़ में ऊर्जा सम्पन्नता को पहचानने का उसको एक स्टेप मिल जाता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)
प्रश्न: साधना काल में आप उत्पादन भी करते थे, क्या उसे समृद्धि के साथ जीना कहेंगे?
उत्तर: उस समय कृषि भर कर लेते थे, जिससे पराधीनता न हो. समृद्धि का उस समय कल्पना ही नहीं था. उस समय ऐसा होता था - जो पैदा किया, उसको बाँट दिया, कुछ रखना ही नहीं!
प्रश्न: आप परिवार के साथ भक्ति-विरक्ति की साधना किये। परिवार साथ में होते हुए विरक्ति भाव में कैसे रहे?
उत्तर: साधना में निष्ठा थी, उससे अपने आप विरक्ति होती है. परिवार मेरी सेवा करता रहा, मैं विरक्ति में रहा. माता जी सेवा की, तभी मैं साधना कर पाया। मेरी स्वीकृति यही है. आप बताओ, कितने साधकों को यह प्राप्त होगा? इतना आसान game नहीं है!
आज भी साधना करने वालों का संसार सम्मान करता ही है. लेकिन साधना से जो फल अपेक्षित है, वह साधना करने वालों से संसार को मिला नहीं। इस धरती की आयु में पहली बार मैंने साधना से मिलने वाले फल को संसार को प्रस्तुत किया है. साधना के फल को मैंने रहस्य में नहीं रखा. रहस्य के लिए मैंने शुरुआत ही नहीं किया था, न भय के लिए किया था, न प्रलोभन के लिए किया था. भय और प्रलोभन से प्रताड़ित हुए बिना रहस्य बनता ही नहीं है, मेरे अनुसार! अब प्रयोग करके देखना है, सबके साथ ऐसा ही होता है या नहीं। तर्कसंगतता तो यही है.
मैं प्रमाणित हूँ, इतना पर्याप्त नहीं है. मैं प्रमाणित तभी हूँ, जब मैं दूसरे को समझा पाया। इस तरह एक से दूसरे व्यक्ति के प्रमाणित होने का क्रम है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित, अप्रैल २०१०, अमरकंटक
प्रश्न: आपने मानव व्यवहार दर्शन में लिखा है - "आत्मबोध ही आध्यात्मिक उपलब्धि है". अध्यात्म को कृपया समझाइये।
उत्तर: आत्मा का आधार स्वरूप ही अध्यात्म है. यह आधार स्वरूप है - अनुभव. अनुभव बोध हो जाना ही अध्यात्म का मतलब है. बुजुर्गों ने जो "अध्यात्म" शब्द दिया था, उसका मतलब यह है.
साक्षात्कार हुआ, अवधारणा हुआ, अनुभव हुआ, फिर प्रमाण बोध हुआ, तो धारणा हो गया. धारणा होना ही अध्यात्म है.
आत्मा का आधार है सत्ता. सत्ता में अभिभूत होना, सत्ता में सम्पृक्त होने का अनुभव होना ही अध्यात्म है. सत्ता में भीगा होने का अनुभव होना ही अध्यात्म है, यही ज्ञान है. यह ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है - ऐसा विगत में बताया था. हमने उसे व्यक्त और वचनीय बता दिया।
अनुभव मूलक विधि से प्रमाणों का बोध हो जाना ही अध्यात्म है. यही धारणा है. यही सुख का स्वरूप है. धारणा = धर्म, जो बताया था, वह यही है. अनुभव हर मानव में प्रमाणित होने वाली चीज है.
प्रश्न: इसके आगे आपने लिखा है - "अंतर्नियामन प्रक्रिया द्वारा ही आत्मबोध होता है, जो ध्यान देने की चरम उपलब्धि है. यह ही जागृति है. ऐसे आत्म बोध (अनुभव बोध) संपन्न मानव की जागृत मानव संज्ञा है तथा यही प्रमाण रूप में मानव, देवमानव, दिव्य मानव होना पाया जाता है." अंतर्नियामन प्रक्रिया और ध्यान को कृपया समझाइये।
उत्तर: यह अध्ययन विधि से ही होगी. ध्यान देना बुद्धि में ही होता है. ध्यान देना अनुभव के लिए ही होता है, और सब बात के लिए ध्यान चित्त, वृत्ति और मन द्वारा ही हो जाता है. अनुभव के लिए ध्यान बुद्धि ही देता है. अनुभव का बोध होना बुद्धि की प्यास है. इस आधार पर बुद्धि ध्यान देता है. इसी आधार पर अध्ययन होता है. चारों अवस्थाओं का रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अध्ययन। इसके लिए चार सूत्र दिया - विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति।
अंतर्नियामन का मतलब है - मन वृत्ति के अनुरूप हो जाना, वृत्ति चित्त के अनुरूप हो जाना, चित्त बुद्धि के अनुरूप हो जाना, बुद्धि आत्मा के अनुरूप हो जाना। इस विधि से ध्यान देना समझ में आता है. अभी शरीर के अनुरूप मन को बनाते हैं, मन के अनुरूप विचार को बनाते हैं, विचार के अनुरूप चित्त को बनाते हैं - इससे अंतर्नियामन होता नहीं है.
अध्ययन विधि में सहअस्तित्व के अनुसार साक्षात्कार के लिए जीवन शक्तियों का अंतर्नियोजन होने लगता है. अंतर्नियोजन के बिना साक्षात्कार कैसे होगा? अंतर्नियोजन होने पर अध्ययन शुरू होता है. जीवन की सम्पूर्ण क्रियाएं क्रियाशील होने के लिए अंतर्नियोजन। ध्यान देने का मतलब शक्तियों का अंतर्नियोजन ही है.
अनुभव की रौशनी और अधिष्ठान के साक्षी में अध्ययन होता है. साक्षात्कार पूर्वक अवधारणाएं बनती हैं, उसके बाद अनुभव होता है. अनुभव-प्रमाण स्वयं में सुख स्वरूप है. अनुभव प्रमाण समाधान स्वरूप में ही प्रकट होता है. अनुभव होने के बाद उसकी निरंतरता है. यह फिर कम होता ही नहीं है. इसके बाद एक का अनेक में परिवर्तित होना या अनुभव का multiplication शुरू हो जाता है. यही उपकार है. उपाय पूर्वक करना ही उपकार है. अनुभव प्रमाण ही उपाय है. और कोई उपाय नहीं है. अनुभव मूलक बोध = धारणा। धारणा के अनुरूप होने के लिए अभ्यास है. स्वयं में तृप्त होना, दूसरे को अनुभव कराना - यही उपाय है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
प्रश्न: मानव व्यव्हार दर्शन में आपने लिखा है - "बुद्धि में प्राप्त अवधारणायें क्रम से विचार और क्रिया में व्यक्त होती हैं, और क्रिया से प्राप्त विचार पुनः अवधारणा में स्थित होते हैं. अवधारणा में तब तक परिवर्तन होता रहेगा, जब तक वह धारणा के अनुरूप न हो जाये।" इसको कृपया स्पष्ट कर दीजिये।
उत्तर: यहाँ "बुद्धि में प्राप्त धारणायें" होना चाहिए। इसको ऐसे पढ़िए - बुद्धि में प्राप्त धारणायें क्रम से विचार और क्रिया में व्यक्त होती हैं, और क्रिया से प्राप्त विचार पुनः अवधारणा में स्थित होते हैं. अवधारणा में तब तक परिवर्तन होता रहेगा, जब तक वह धारणा के अनुरूप न हो जाये।
अनुभव मूलक विधि से "धारणा" होता है. अनुभवगामी पद्दति से साक्षात्कार पूर्वक "अवधारणा" होता है. अवधारणा पूर्वक अनुभव होता है, फिर अनुभव मूलक विधि से धारणा होता है. साक्षात्कार पूर्वक बुद्धि में होने वाली स्वीकृतियों का नाम है अवधारणा। अवधारणा पूरी होने पर तुरंत अनुभव होता है, उसका बोध बुद्धि में जो होता है, उसका नाम है धारणा। धारणा ही धर्म है. अनुभव मूलक बोध ही धारणा है. वही धर्म है, वही समाधान है.
इस तरह बुद्धि में अनुभव मूलक विधि से प्राप्त धारणा, धारणा के आधार पर सभी विचार और कार्य व्यव्हार, और उनके फल-परिणाम, पुनः फल-परिणाम का विचार, विचार का साक्षात्कार होकर अवधारणा, पुनः अनुभव, और पुनः उसका प्रमाण. इस प्रकार यह जागृत जीवन चक्र चलता है और अनुभव पुष्ट होता रहता है. अनुभव का प्रमाणित होना ही अनुभव का पुष्ट होना है. इस तरह बुद्धि में प्रमाणित होने का जो संकल्प हुआ था, वह पूरा होता गया. यह जब पूरा तृप्त हो जाता है तब दिव्य मानवीयता का संक्रमण है. यह तीन चरण में पूरा होता है. मानव चेतना पर्यन्त एषणात्रय सहित उपकार, उसके बाद देव चेतना में लोकेषणा सहित उपकार, फिर दिव्य चेतना में एषणाओं से मुक्त हो कर उपकार.
अनुभव मूलक विधि से जो धारणा होती है, जब तक पूरा कार्य-व्यव्हार उसके अनुरूप नहीं हो जाता, तब तक अवधारणा में परिवर्तन होता रहता है. जब तक परिवर्तन होता रहता है, तब तक मानव चेतना है, जहाँ एषणाओं सहित उपकार है. अवधारणा में परिवर्तन से मुक्ति की शुरुआत देवचेतना से हो गयी, जहाँ लोकेषणा सहित उपकार है. दिव्यचेतना में यह पूरा हो गया, जहाँ लोकेषणा भी समाप्त हो गयी, केवल उपकार शेष रहा.
उपकार है - सत्य बोध कराना। और कुछ भी नहीं है.
अवधारणा में परिवर्तन = धारणा के अनुरूप अपने सारे विचार, कार्य, व्यवहार का शोध होते रहना. यही 'स्वनिरीक्षण' है. दृष्टा पद में होना ही स्वनिरीक्षण का तात्पर्य है. दृष्टा पद में अनुभव स्थिर है. फलतः अनुभव की रौशनी में हर क्षण, हर कार्य व्यव्हार का शोध होने लगता है.
अनुभव की रौशनी में अध्ययन करना, अनुभव होने के पश्चात हर कार्य व्यव्हार का शोध करना। इस तरह मानव का 'सही' होना बनता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
प्रश्न: आपने मानव व्यवहार दर्शन में लिखा है - "बुद्धि में पूर्ण बोध होने के साथ साथ ही आत्मा में पूर्ण अनुभव होना पाया जाता है, फलस्वरूप अनुभव प्रमाणित होना सहज है." क्या बुद्धि में "अपूर्ण बोध" और आत्मा में "अपूर्ण अनुभव" भी होता है?
उत्तर: बोध और अनुभव पूर्ण ही होता है. बोध और अनुभव अपूर्ण कभी होता ही नहीं है.
प्रश्न: मानव व्यव्हार दर्शन में ही एक और जगह आपने लिखा है - "अध्ययन के मूल में चैतन्य का प्रभाव होना अनिवार्य है. इसी के अनुपात में अपूर्ण बोध, अल्प बोध, सुबोध एवं पूर्ण बोध हैं. इनके ही प्रभेद से मनुष्य में श्रेणियाँ हैं."
उत्तर: अध्ययन विधि से अवधारणा बनने के क्रम में बुद्धि चित्त का मूल्यांकन करती है कि यह अपूर्ण है या अल्प है. आत्मा और बुद्धि के साक्षी में ही अध्ययन होता है. पूरा होने के पहले यह अपूर्ण है, बुद्धि को चित्त में इस अपूर्णता का पता चलता है. इसी को "अपूर्ण बोध" कहा. "अल्प बोध" मतलब कुछ ठीक हुआ. सुबोध के बाद पूर्ण बोध होता है.
प्रश्न: आपने लिखा है - "जिसका चैतन्य पक्ष जितना जागृत है, उसके पूर्ण होने और प्रमाणित होने की उतनी ही सम्भावना है" इससे क्या आशय है?
उत्तर: अभी मानव भ्रम में है. सारा संसार जागृति की ओर ही है. भ्रम में रहते हुए भी जागृति की कतार में है. इसमें "चैतन्य पक्ष जितना जागृत है" से आशय है, कितना तीव्रता से जागृति के लिए प्रवृत्त है. जागृति भौतिक-रासायनिक वस्तु से शुरू होता है, चैतन्य वस्तु तक पहुँचता है.
अभी सत्यता के लिए लोग जितना प्यासे हैं, पहले नहीं थे. पहले सत्यता के लिए चर्चाएं आज्ञापालन के रूप में रहा, अनुभव के रूप में नहीं रहा. विज्ञान ने तर्क को जोड़ा तो अनुभव की आवश्यकता आ गयी.
प्रश्न: मानव व्यव्हार दर्शन में एक जगह आपने पशु मानव को अल्प जागृत, राक्षस मानव को अर्ध जागृत, मानव को जागृत, देवमानव दिव्यमानव को पूर्ण जागृत कहा है. अनुभव दर्शन में मानव को अर्ध जागृत, देव मानव को जागृत और दिव्य मानव को पूर्ण जागृत कहा है. इसमें से कौनसा ले कर चलें?
उत्तर: मानव व्यवहार दर्शन में जो आया है, वह सही है. अनुभव दर्शन में अगले संस्करण में वही आना है.
अर्ध जागृत से आशय है - भौतिक रासायनिक वस्तुओं के प्रति जागृत। इसी आधार पर मनाकार को साकार कर पाया। फिर अनुभव के आधार पर मानव जागृत है. प्रमाण के आधार पर देवमानव, दिव्यमानव पूर्ण जागृत हैं.
मानव जागृत ही रहता है, पर मानव पद में प्रमाण पूरा नहीं होता है. मानव में प्रमाण अधूरा होता है, इसीलिये अनुभव दर्शन में मानव को "अर्ध जागृत" मैंने लिखा था.
अनुभव पूरे अस्तित्व में होता है, उसका दृष्टा पद नाम है. दृष्टा पद में अनुभव पूरा रहता है, प्रमाण होने पर जागृति होती है. प्रमाण की पूर्णता जागृति पूर्णता है, जो दिव्य चेतना है. मानव में इसकी तुलना में प्रमाण अधूरा रहता है, जिसमें तीनों एषणाओं के साथ जीते हुए उपकार करता है. देवमानव लोकेषणा के साथ उपकार करता है. दिव्य मानव तीनों एषणाओं से मुक्त उपकार करता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
प्रश्न: आपने अनुभव दर्शन में लिखा है - "दिव्य मानव को ब्रह्मानुभूति, देवमानव को ब्रह्म प्रतीति, मानवीयता पूर्ण मानव को ब्रह्म का आभास, अमानव में भी ब्रह्म का भास होता है." इसको समझाइये.
उत्तर: व्यापक वस्तु का पशुमानव-राक्षसमानव में भी भास होना पाया जाता है. किन्तु भास का प्रमाण नहीं होता, आशा होता है. मानव चेतना संपन्न मानव में ब्रह्म का आभास न्याय स्वरूप में प्रमाणित होता है. देव चेतना संपन्न मानव में ब्रह्म का प्रतीति धर्म (समाधान) स्वरूप में प्रमाणित होता है. दिव्य चेतना संपन्न मानव में ब्रह्म में अनुभव सहअस्तित्व स्वरूप में प्रमाणित होता है.
इसके पहले आपको बताया था, अनुभव में पूरा ज्ञान रहता है वह क्रम से प्रमाणित होता है. इस तरह अनुभव के उपरान्त मानव चेतना में 'आभास' प्रमाणित होता है. देवचेतना में 'प्रतीति' प्रमाणित होता है. दिव्यचेतना में 'अनुभूति' प्रमाणित होता है.
जीवों में जीवनी-क्रम है. मानव में जागृति-क्रम है. जागृतिक्रम में "ज्यादा समझे - कम समझे" का झंझट आदिकाल से है. धीरे-धीरे चलते-चलते समझदारी के शोध की बात आ गयी. अब जा करके (मध्यस्थ दर्शन के अनुसन्धान पूर्वक) यह बात स्पष्ट हुई. इससे पता चला, ज्यादा समझा-कम समझा कुछ होता नहीं है. समझा या नहीं समझा यही होता है. ज्ञान हुआ, नहीं हुआ - यही होता है. अनुभव में ज्ञान हो जाता है, फिर प्रमाणित होना क्रम से होता है. मैं सम्पूर्ण अस्तित्व को समझा हूँ, अध्ययन किया हूँ, अनुभव किया हूँ, मैं स्वयं प्रमाणित हूँ, किन्तु समझाने/प्रमाणित करने की जगह में क्रम में ही हूँ. पहले न्याय समझाने/प्रमाणित करने के बाद ही धर्म प्रमाणित होगा। धर्म प्रमाणित होने के बाद ही सत्य प्रमाणित होगा. अभी मैं न्याय को प्रमाणित करता हूँ, धर्म को प्रमाणित करता हूँ - लेकिन सत्य को प्रमाणित करने का जगह ही नहीं बना है. कालान्तर में बन जाएगा. सत्य प्रमाणित होना = सहअस्तित्व स्वरूप में व्यवस्था प्रमाणित होना. उसके पहले अखंड समाज सूत्र व्याख्या होना - जिसका आधार समाधान (धर्म) ही है. मैं समाधान प्रमाणित करता हूँ - इस बात की मैं घोषणा कर चुका हूँ. वही प्रश्न-मुक्ति अभियान है. न्याय मैं प्रमाणित करता ही हूँ - अपने परिवार और आगंतुकों के साथ मैं न्याय करता हूँ. मैं न्याय करता हूँ, उससे मुझे स्वयं से तृप्ति मिलती है. दूसरे से भी तृप्ति मिले, इसके लिए मैं प्रयत्न करता हूँ. कुछ संबंधों में ऐसा हो चुका है, कुछ में शेष है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
संवेदना का परिभाषा है - पूर्णता के अर्थ में वेदना.
संवेदना की यह परिभाषा किस प्रकार चरितार्थ होगी? आप सोचिये!
भोगवाद संवेदनाओं को उन्मुक्त करने में खुशहाली मानता है. व्यापार विधि में ऐसा मानते हैं - व्यापार से पैसा, पैसे से संग्रह, संग्रह से भोग, भोग से खुशहाली.
यहाँ (मध्यस्थ दर्शन में) संवेदनाओं को संयत करने में खुशहाली मानते हैं.
संवेदनाओं को कितना भी उन्मुक्त बनाएं, उसमें खुशहाली तो मिलता नहीं है. संवेदनाओं को संयत करने में सर्वतोमुखी समाधान पूर्वक खुशहाली का निरंतरता होता है. इसको "अभ्युदय" हमने नाम दिया है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)