प्रश्न: साधना काल में आप उत्पादन भी करते थे, क्या उसे समृद्धि के साथ जीना कहेंगे?
उत्तर: उस समय कृषि भर कर लेते थे, जिससे पराधीनता न हो. समृद्धि का उस समय कल्पना ही नहीं था. उस समय ऐसा होता था - जो पैदा किया, उसको बाँट दिया, कुछ रखना ही नहीं!
प्रश्न: आप परिवार के साथ भक्ति-विरक्ति की साधना किये। परिवार साथ में होते हुए विरक्ति भाव में कैसे रहे?
उत्तर: साधना में निष्ठा थी, उससे अपने आप विरक्ति होती है. परिवार मेरी सेवा करता रहा, मैं विरक्ति में रहा. माता जी सेवा की, तभी मैं साधना कर पाया। मेरी स्वीकृति यही है. आप बताओ, कितने साधकों को यह प्राप्त होगा? इतना आसान game नहीं है!
आज भी साधना करने वालों का संसार सम्मान करता ही है. लेकिन साधना से जो फल अपेक्षित है, वह साधना करने वालों से संसार को मिला नहीं। इस धरती की आयु में पहली बार मैंने साधना से मिलने वाले फल को संसार को प्रस्तुत किया है. साधना के फल को मैंने रहस्य में नहीं रखा. रहस्य के लिए मैंने शुरुआत ही नहीं किया था, न भय के लिए किया था, न प्रलोभन के लिए किया था. भय और प्रलोभन से प्रताड़ित हुए बिना रहस्य बनता ही नहीं है, मेरे अनुसार! अब प्रयोग करके देखना है, सबके साथ ऐसा ही होता है या नहीं। तर्कसंगतता तो यही है.
मैं प्रमाणित हूँ, इतना पर्याप्त नहीं है. मैं प्रमाणित तभी हूँ, जब मैं दूसरे को समझा पाया। इस तरह एक से दूसरे व्यक्ति के प्रमाणित होने का क्रम है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित, अप्रैल २०१०, अमरकंटक
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