प्रश्न: आपने मानव व्यवहार दर्शन में लिखा है - "आत्मबोध ही आध्यात्मिक उपलब्धि है". अध्यात्म को कृपया समझाइये।
उत्तर: आत्मा का आधार स्वरूप ही अध्यात्म है. यह आधार स्वरूप है - अनुभव. अनुभव बोध हो जाना ही अध्यात्म का मतलब है. बुजुर्गों ने जो "अध्यात्म" शब्द दिया था, उसका मतलब यह है.
साक्षात्कार हुआ, अवधारणा हुआ, अनुभव हुआ, फिर प्रमाण बोध हुआ, तो धारणा हो गया. धारणा होना ही अध्यात्म है.
आत्मा का आधार है सत्ता. सत्ता में अभिभूत होना, सत्ता में सम्पृक्त होने का अनुभव होना ही अध्यात्म है. सत्ता में भीगा होने का अनुभव होना ही अध्यात्म है, यही ज्ञान है. यह ज्ञान अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है - ऐसा विगत में बताया था. हमने उसे व्यक्त और वचनीय बता दिया।
अनुभव मूलक विधि से प्रमाणों का बोध हो जाना ही अध्यात्म है. यही धारणा है. यही सुख का स्वरूप है. धारणा = धर्म, जो बताया था, वह यही है. अनुभव हर मानव में प्रमाणित होने वाली चीज है.
प्रश्न: इसके आगे आपने लिखा है - "अंतर्नियामन प्रक्रिया द्वारा ही आत्मबोध होता है, जो ध्यान देने की चरम उपलब्धि है. यह ही जागृति है. ऐसे आत्म बोध (अनुभव बोध) संपन्न मानव की जागृत मानव संज्ञा है तथा यही प्रमाण रूप में मानव, देवमानव, दिव्य मानव होना पाया जाता है." अंतर्नियामन प्रक्रिया और ध्यान को कृपया समझाइये।
उत्तर: यह अध्ययन विधि से ही होगी. ध्यान देना बुद्धि में ही होता है. ध्यान देना अनुभव के लिए ही होता है, और सब बात के लिए ध्यान चित्त, वृत्ति और मन द्वारा ही हो जाता है. अनुभव के लिए ध्यान बुद्धि ही देता है. अनुभव का बोध होना बुद्धि की प्यास है. इस आधार पर बुद्धि ध्यान देता है. इसी आधार पर अध्ययन होता है. चारों अवस्थाओं का रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अध्ययन। इसके लिए चार सूत्र दिया - विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति।
अंतर्नियामन का मतलब है - मन वृत्ति के अनुरूप हो जाना, वृत्ति चित्त के अनुरूप हो जाना, चित्त बुद्धि के अनुरूप हो जाना, बुद्धि आत्मा के अनुरूप हो जाना। इस विधि से ध्यान देना समझ में आता है. अभी शरीर के अनुरूप मन को बनाते हैं, मन के अनुरूप विचार को बनाते हैं, विचार के अनुरूप चित्त को बनाते हैं - इससे अंतर्नियामन होता नहीं है.
अध्ययन विधि में सहअस्तित्व के अनुसार साक्षात्कार के लिए जीवन शक्तियों का अंतर्नियोजन होने लगता है. अंतर्नियोजन के बिना साक्षात्कार कैसे होगा? अंतर्नियोजन होने पर अध्ययन शुरू होता है. जीवन की सम्पूर्ण क्रियाएं क्रियाशील होने के लिए अंतर्नियोजन। ध्यान देने का मतलब शक्तियों का अंतर्नियोजन ही है.
अनुभव की रौशनी और अधिष्ठान के साक्षी में अध्ययन होता है. साक्षात्कार पूर्वक अवधारणाएं बनती हैं, उसके बाद अनुभव होता है. अनुभव-प्रमाण स्वयं में सुख स्वरूप है. अनुभव प्रमाण समाधान स्वरूप में ही प्रकट होता है. अनुभव होने के बाद उसकी निरंतरता है. यह फिर कम होता ही नहीं है. इसके बाद एक का अनेक में परिवर्तित होना या अनुभव का multiplication शुरू हो जाता है. यही उपकार है. उपाय पूर्वक करना ही उपकार है. अनुभव प्रमाण ही उपाय है. और कोई उपाय नहीं है. अनुभव मूलक बोध = धारणा। धारणा के अनुरूप होने के लिए अभ्यास है. स्वयं में तृप्त होना, दूसरे को अनुभव कराना - यही उपाय है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
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